- 180 Posts
- 343 Comments
हर जागरुक विचारशील व्यक्ति चाहता है कि समाज,देश या विश्व- स्तर पर न्याय सुदृढ़ हो, दंड और पुरस्कारों की व्यवस्था ऐसी हो कि मन में प्रश्न चिह्न न उठें। न्याय-प्रक्रियाओं में काल के अन्तराल की बाधा प्रश्न चिह्नों को जन्म देने से नहीं चूकती ।काल के अंतराल में जब दोषी के दोष का स्वरूप परिवर्तित होने लगता है,मानस में अतिरिक्त परिपक्वता आने लगती है,सहृदय व्यक्ति स्वयं अपने दोषों को मानस-न्याय के तराजू पर तौलने,परखने लगता है और कृत्यों के पाश्चातापस्वरूप जीवन को मर्यादित और लोकोपकारी बनाने का यत्न करता है,न जाने कितनी मानसिक यातनाएँ दंडस्वरूप भुगत चुका होता है। न्यायालय की तबतक की प्रक्रियाएँ शायद दंड संहिताओं को खँगालने में ही लगी रहती हैं,अपराधों की वास्तविकता,उसके स्वरूपों की जाँच- पड़ताल में ही लगी रहती हैं।न्याय प्रक्रिया की यह अनिवार्यता तो हो सकती है, पर इस अन्तराल में जहाँ एक संवेदनशील व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बदल चुका होता है, और वहीं एक अपराधी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति सही न्याय के चँगुल से छूटने की न जाने कितनी व्यवस्थाएँ कर लेता है।तुरत फुरत न्याय न कर पाना न्याय प्रक्रिया का बहुत बड़ा छिद्र है जिसे भरने की सख़्त आवश्यकता है।न्याय की यह विलंबित प्रक्रिया वास्तविक अपराधी को उसके अपराधों का दंड और इस दौरान के उसके आचरणों का पुरस्कार का सही निर्धारण कर पाती है कि नहीं, यह गम्भीर चिंतन का विषय हो सकता है।क्या न्याय का अति विलंबन उसे बेमानी नहीं कर देता ?
Read Comments