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बौद्धिकता कहाँ है?

चंद लहरें
चंद लहरें
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हम  सब   जगत में अपनी भूमिका विस्मृत कर दें ,पर प्रकृति अपनी भूमिका विस्मृत नहीं करती । विशेषकर यह भारत भूमि जिसे   छः ऋतुओं का वरदान प्राप्त है , हर ऋतु से हमें सम्मोहित करती है । पर वसन्त का आगमन   सर्दी से ठिठुरे हुए शरीर में अचानक स्फूर्ति पैदा कर देता है औरजैसा कि हम  भारतीयों की आध्यात्मिकता  हर ऐसे अवसर  को एक विशेष आध्यात्मिक भावभूमि से  जोड़ने की अभ्यस्त   है,  वसंतपंचमी शरीर एवम् मन के हर संकुचन का त्याग कर ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख होने  का संदेश देती  है ।सदा से ज्ञानपिपासु यह देश इस अवसर पर माँ सरस्वती की अराधना कर    ज्ञान के महात्म्य को प्रतिष्ठित करने  को प्रयत्नशील होता है।आज घर  घर सरस्वती  पूजा होती  है पर हंसवाहिनी के नी र क्षीर विवेक को जाग्रत करने का संदेश  कितने लोग समझ पाते हैं।.

वस्तुतः इस देश में सही शिक्षा की परम आवश्यकता है।   यह शिक्षा ही हैजो वस्तुतः  इस देश की जनता को विकास के पथ  अग्रसर कर सकती है। विकास  का  अर्थ सिर्फ आर्थिक विकास नहीं बल्कि उस मनोभूमि का विकास है जो एक भेदभावहीन मानवतामूलक समाज की संरचना में मदद कर सके। आज हमारा दे श मात्र इस एक विकास को आग्रही है।इस भौतिकवादी परिवेश में शिक्षा का वह अर्थ ही हम विस्मृत कर बैठे हैं जो देश और समाज को सही राह दिखासके ।लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था मेंव्यक्तित्व के विकास पर बल दिया जाना स्वाभाविक है और शिक्षा की यह अति सामान्य सी माँग है।पर व्यक्तित्व विकास का अगर वह अर्थ ही हम भुलादें जो सदियों से हमारे लिए अपेक्षित रहा है जिसमें सच्चाई ,सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय की कामना होती है,।स्पष्ट ही हमारा इंगित बौद्धिकता की ओर है जिसे आँखों पर स्वार्थकी पट्टी बांधकर  हम  खोते जा  रहे  हैं।.लगता है भारत अभी भी उस अन्धकूप से निकल नहीं पाया हैजिसमें पड़ा भारतीय समाज सदियों– सदियों तक कूपमण्डूक की  तरह  जीता रहा और मानसिक परतंत्रता  का  कष्ट झेलता रहा।.अपने  ही बन्धनों में जकड़ा अगर कोई बाहर  की उदार दुनिया नहीं देखना चाहे    तो लाखों करोड़ों माँ सरस्वती के विग्रहों की पान फूल से आराधना कितनी फलदायी हो सकती है?

महर्षि विवेकानन्द और अरविन्द सदृश जिन व्यक्तित्वों ने सत्यान्वेषण की जिस भावना पर आधारित एक स्वर्णिम युग की कल्पना की थी ,अपनी मातृभूमि भारत को जिन ऊँचाईयों को छूते देखा था वह टुच्चे उद्येश्यों की पूर्ति के लिए छिन्न भिन्न होता सा प्रतीत होता है।अन्धकूप से तत्कालीन जिस तैंतीस करोड़ नंगी भूखी अशिक्षित जनता को निकलने का संदेश दिया था, विकास के इस लम्बे दौर में  जनसंख्या तो अरबों तक पहुँच गयी पर विचारधाराएँ अभी भी मुड़ मुड़कर पीछे ही देखना चाहती हैं।

वैचारिक वैविध्य अच्छी चीज है पर वह इसलिए कि वैचारिक मंथन हो सके और सत्य नवनीत की तरह बाहर प्रतिस्थापित हो सके।संस्कृति का संरक्षण भी आवश्यक है पर मंथन के उपरांत निकले तत्व रूप सार  ही ग्राह्य और संरक्ष्य होने चाहिए।भारतीय संस्कृति के नाम पर हम आज पिछड़ेपन को गले लगाना चाहते हैंऔर तेजी से आगे बढ़ती दुनियाँ में अपनी छवि एक पिछड़े समाज के रूप में प्रदर्शित करना चाहते हैं जहाँ कला और साहित्य का समादर नहीं ,जहाँ विरोध प्रदर्शन के लिये अशान्तिपूर्ण हथकंडों का सहारा लिया जाता है। गौरवमय अतीत के संरक्षण  नाम पर भारतीय जातियाँ आज भी मरने मारने पर उतारू हैं।अतीत का संरक्षण उससे प्रेरणा लेने के लिए होता है अगर वह प्रेरणा देने के बदले गृहयुद्ध का कारण बन जाए तो उसका संरक्षण निरुद्येश्य ही प्रतीत होता है। एक फिल्म पद्मावत के नाम पर जिस प्रकार देश में  संग्राम छिड़ा हैवह विदेशों में भी देश की कोई अच्छी छवि नहीं प्रस्तुत नहीं कर रहा।

और एक क्रूर प्रश्न तो आरम्भ से ही सोचने का रहा   कि आखिर बी जेपी शासित क्षेत्रों  में इसका विरोध और प्रदर्शन पर प्रतिबंध क्यों जबकि केन्द्र में भी  इसकी सरकार है।. क्या  मात्र  एक फिल्म का प्रदर्शन लॉ एन्ड आर्डर पर भारी पड़ रहा है?क्या वे गुंडातत्वों पर अपनी पकड़ नहीं बना सकते? या, अभी कोई राजनीतिक उद्येश्य हासिल करना शेष है!कहीं ऐसा तो नहीं ,जैसा करणी सेना ने कहा हैकि वह बच्चों की बसों पर स्टोन पेल्टिंग जैसा कार्य नहीं कर सकती—तो क्या मौन रहने वाली सभी पार्टियाँ स्थिति का प्रतियोगितात्मक लाभ उठाना चाहती हैं?चित्त भी मेरी और पट भी मेरी!एक काल्पनिक कथा(संभवतः) को इतिहास का नाम देकर कबतक देश में अशान्ति उत्पन्न करने की कोशिश की जाती रहेगी।यह इस देश के उस बौद्धिकता का विकृत स्वरूप है जिसकी उत्कृष्टता का हम दम भरते नहीं थकते।

एक अन्य किन्तु महत्वपूर्ण विषय हमारी उस मर्यादा पर आघात पहुँचाने की कोशिश कर रहा हैजो हमारी न्याय व्यवस्था से जुड़ी है।.अपनी न्याय प्रियता के लिए सदियों से जाना जाता रहा यह देश सम्पूर्ण विश्व में एक पृथक पहचान रखता है।न्याय की कुर्सी पर बैठकर कोई  न्याय का हनन नहीं कर सकता,यह भारतीयों का सहज विश्वास है।नीर क्षीर विवेक  की आवश्यकता इस न्यायप्रियता की रीढ़ है।यों भी भारतीय लोकतंत्र का सबसे सशक्त स्तम्भ  न्यायपालिका हीमाना जाता रहा है।हालाँकि बात कुछ पुरानी हो गयी पर बात जब सर्वोच्च न्यायालय में मची हलचल की हो तो यह पुरानी नहीं हो सकती। इसकी गूँज अभी  भी एक विशिष्ट घटना के रूप में देश विदेश के अखबारों में सुनायी पड़ रही है।

भारतीय संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्र अंग के रूप में स्वीकार करनेका तात्पर्य उसकी विशिष्ट  गरिमा को बनाए रखना ही था।वह विधानपालिका या कार्यपालिका से अप्रभावित तथा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सबसे अलग हो,उपर हो।यही कारण है किभारतीय जनता का विश्वास न्यायपालिका पर अबतक अक्षुण्ण रहा है। उसके द्वारा लिए गये निर्णयों पर ऊँगली उठाना न ही आसान होता है और न ही स्वीकार्य ही।न्याय की गुहार लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लोगों की पहुँच होती हैजिसका अंकुश सब पर होता है।न्यायालयों का प्रशासनिक अधिकार भी उसके पास होता है परिणामतःउसकी व्यवस्थाओं में खामी मात्र पारंपरिक रूप से लिए गये निर्णयों के आधार पर ढूँढ़ना बेमानी है।किन्तु हाल में कुछ दिनों पूर्व  हीउच्चतम न्यायालयय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के द्वारा मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली पर सार्वजनिक रूप से उठायी गयी ऊँगली अनायास ही मन मे इनकी विज्ञतापर संशय पैदा करती है।इनकी आस्था और देश के प्रति उत्तरदायित्व बोध के प्रति संशय उत्पपन्न करती है।

यह सच है कि व्यक्तिगत वैभिन्न्य के कारण किसी के द्वारा किया गया कोई कार्य हर दूसरे व्यक्ति को सही लगे, यह आवश्यक नहीं।पर , एक साथ चार जजों के द्वारा उठायी गयी आवाजजहाँ कुछ मायने रखती है वहीं वह न्यायतंत्र को कमजोर कर भविष्य में ऊँगली उठाने केदरवाजे  खोल देने की साजिश भी प्रतीत होती  है।अभी तक अगर ऐसी समस्याएँ न्यायालय के अन्दर ही निपटा दी जाती रहीं तो अभीउन्हें जनता तक पहुँचाने के लिए प्रेस काँफ्रेंस करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?। तुरत की प्रतिक्रियाएँ मुख्य न्यायाधीश को जनता के अदालत तक खींच कर ले जाती है जहाँ हर कोई दंडित हो सकता है।पर यह प्रतिक्रिया  क्रियान्विति के लिए इतनी आसान नहीं हो सकती । यह एक लज्जाजनक प्रसंग भी हो सकता था अतः इसे अन्दर ही अन्दर निपटाना ही एकमात्र समाधान   प्रतीत हो सकता था।अन्यथा एक बड़ा राजनीतिक संकट पैदा हो सकता था और मेरी दृष्टि से सम्पूर्ण सरकारी तंत्र के फँस जाने की संभावना होती ,सारे फैसलों पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जा सकते । सत्ताविरोधी गुटों के अचानक मुखर हो जाने की छूट मिलती। यह रास्ता कभी भी भारतीय लोकतंत्र में सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति की विश्वसनीयता की दृष्टि से स्वागतयोग्य नहीं होता।

यह स्थिति उन चारो न्यायाधीशों की बौद्धिक परिपक्वता पर प्रश्न उठाती है जिनकी स्वार्थ दृष्टि ने देश की सम्मानप्रद स्थिति को ही संकट में डाल दिया।अगर उनमें से कुछ अवकाशप्राप्ति के कगार पर हों तो यह  पहले ही जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेने के समान है।कुल मिलाकर  इसे एक निंदनीय  प्रयास ही कहेंगेजिससे  भारतीय जनता का विश्वास हिल सकता है।जिन विशिष्ट न्याय प्रक्रियाओं की ओर वे विश्वास भरी दृष्टि से देखते हैं उन्हें सार्वजनिक करने की माँग कर सकते हैंजो सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों में हस्तक्षेप के समान होगा ।और जब प्रणाली ही संदिग्ध होगी तो लिए गए फैसले भी संदेह के घेरे में आ सकते हैं।

इन सारी बातों को अगर एक दूसरे दृष्टिकोण से देखें ,जैसा कि पूर देश देखना चाह रहा है—जस्टिस लोया की  हार्टअटैक से मृत्यु की संदिग्धता और तत्सम्बन्धित केस जुड़ा प्रतीत हो रहा है।वे जिस केस को देख रहे थे उससे किसी प्रकार भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी घिरे थे।ऐसी स्थिति में उस केस की सुनवायी किसी जूनियर न्यायाधीश नीत बेंच में नहो जाय, मुख्य मुद्दा ऐसा ही प्रतीत हो रहा।

स्थिति तब बदलती हुई प्रतीत होती है जब मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने स्वयं ही उसकी सुनवाई का फैसला किया है।

सर्वोच्च न्यायाकय पर आया संकट तत्काल टलता हुआ प्रतीत होता है पर उसकी गरिमा पर आये उस संकट का क्या जो चंद न्यायाधीशों के अदूरदर्शितापूर्ण कृत्यों का परिणाम हो सकता है!भारतीय सर्वोच्च न्यायलय की कार्यप्रणाली विश्व में बहुप्रशंसित है।उसकी मर्यादा का हनन हो सकता है।जिसके आदेशों की अवमानना न्यायालय की अवमानना मानी जाती रही और जिसके लिए दंड का भी प्रावधान है वह स्वयं ही तराजू के एक पलड़े पर आसीन नजर आ गया।इस स्थिति का लाभ निश्चय ही विरोधी पक्ष को मिल सकता है,जबकि सत्तासीन पार्टी बड़ी कठिनाई से गुजरात की चुनावी परिणामों से उबर पायी है, अभी उसे कई राज्यों के चुनावी कठघरे में खड़ा होना है।

यह सारा खेल पुनः सत्ता और सत्ताविरोधी खेल सा प्रतीत होने लगा है।चाहे जो हो न्यायालय का कार्य सही न्याय करना ही हैऔर महत्वपूर्ण केस की सुनवाई महत्वपूर्ण बेंच को ही सौंपा जाना चाहिए—इसमें दो राय नहीं हो सकती। सत्ता की स्वार्थपूर्ण नीति ऐसी नहीं होनी चाहिए कि हम अपने प्रमुख अधिष्ठानों की मर्यादाओं को ही ताक पर रख दें।

वसंतपंचमी की सरस्वती पूजा और गणतंत्र के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व के महीने मे हम अपनी सही तर्क, विवेक बुद्धि से अपने देश की बौद्धिकता और स्वाभिमान की रक्षा कर सकें , यही इस देश की प्रबुद्ध मानसिकता की माँग होनी चाहिए।

जय हिन्द।

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