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भारतीय गणतंत्र —नींव गहरी है

चंद लहरें
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आधुनिक स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय पर्व है-गणतंत्र-दिवस—छब्बीस जनवरी-।अपना संविधान लागू होने का दिवस।लम्बी परतंत्रता,विदेशी शासन,राजतंत्रीय शासकीय ढाँचे के अधीन शासित होकर रहने के पश्चात् अपने बनाए नियमों ,कानूनोंके अधीन या यों कहें कि स्वाधीनतापूर्वक जीवन-यापन ,एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही। लम्बे अंग्रेजीशासन के अधीन रहकर सम्पूर्ण विश्व के नियमों कानूनों,मानवीय अधिकारों की रक्षा से सम्बन्धित प्रावधानों की जानकारी ने हमें एक बेहतर स्थिति में ला खड़ा किया और आज अपने संविधान के अनुकूल आचरण,कर्तव्य निष्पादनऔर अधिकार भोग में हमें कोई दुविधा नहीं होती।हमें अपनी राजनैतिक स्थिति और संविधान पर गर्व का अनुभव होता है।
देश के वर्तमान सामाजिक,राजनैतिक ढाँचे ने तर्कपूर्ण न्याय व्यवस्था दी है जो आज भी और संभवतः सुदूर भविष्य तक समयानुकूल ही सिद्ध होगी।
पर आज कीयह उपलब्धि भारत के लिए कोई नयी नहीं है।हम भारतीय आरंभ से ही नियमों और कानून के अधीन रहकर भी स्वतंत्र भाव से जीने के अभ्यस्त है ।यह अभ्यास हमारे रक्त में बीज रूप से निवास करता है परिणामतः इससे इतर की स्थिति हमें सह्य नहीं होती ,और जैसे ही इस स्थिति पर कोई चोट पहुँचती है,हम विकल और विद्रोही हो उठते हैं।

आर्यों के आगमन के पूर्व से ही –जैसा कि ऐतिहासिक साक्ष्यों और प्राग्ऐतिहासिक खुदाईयों आदि की प्राप्त सामग्रियों,तथ्यों से विदित होता है,हम नियमानुकूल एक अच्छी व्यवस्था में रहने केआदी थे। आर्यों के आगमन का काल निर्धारण चूंकि आज विवादग्रस्त हैअतः प्रप्त साक्ष्यों को प्राचीनतम कहकर संतोष करना पड़ता है ।वे आर्यकालीन हों अथवा उसके पूर्ववर्ती द्रविड़ियन अथवा सम्पूर्ण भारतवर्ष मे निवसित अन्य जातियोँ के काल की; उन प्राचीनतम स्थितियों में भी नियमों काअनुपालन कड़ाई से होता था,ऐसा सहज अनुमान्य हो सकता है।हम विवश होते थे, जब व्यवस्थाएँ हम पर लादी जाती थीं,न्यायानुकूल नहीं होती थीं औरमानव स्वभाव और आदर्शों के विरुद्ध होती थीं।उन्हें मानने को हम तैयार नहीं होते थे परिणामतः सांस्कृतिक युद्ध भी हुआ करते थे।गणतंत्र ,राज्यों कीऐसी शासन व्यवस्था रहीजिसमें जिसमें विभिन्न जनपदों के प्रधान अथवा राजाओं को पूर्व निर्धारित सिद्धांतों अथवा नियमों कोमानकर शासन करना होता था।ये गणराज्य हुआ करते थे।यह गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली हमारे लिए नयी तो नहीं ही थी बल्कि सम्पूर्ण विश्व में एक व्यवस्थित शासन प्रणालीके लिए अपने प्राचीनतम रूप मे भारत के ही प्राचीन गणराज्यों मे देखा गया था ।

महाभारत काल में ऐसेगणराज्यों काउल्लेख मिलता है जिसे गण, गणपरिषद् अधवा अराष्ट्र की संज्ञा दी जाती थी।ऐसे सोलह राज्य या जनपद थे जो महाजनपद के नाम से भी जाने जाते थे।मगध, अवन्ती ,कोसल,पांचाल ,मल्ल,गांधार, अंग,मत्स्य,कुरु,काशी, शूरसेन,वत्स वृज्जी मद्र,असाका चैत्य ,आदि। किन्तु ,जैनकाल तक लिच्छवियों का प्राचीनतम गणतंत्र का सर्वत्र उल्ले ख मिलता है जिसकी राजधानी वैशाली थी।
कहते है,मगधमे प्रथम सम्राट शासित राज्य का उदय हुआऔर इस विधि से स्थापित सम्राट शासित राज्यों की विधि ने लम्बे काल तक स्वदेशी सम्राटों वाले साम्राज्यों की स्थापना की।मगध मेंबिम्बिसार,अजातशत्रु,नंद वंश,मौर्य वंश,-सम्राट अशोक,शुंग वंश ,समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय आदि का सशक्त शासनकाल रहा।देश के सुदूर दक्षिणी राज्यों में ,चोल पांड्य वंशों के शासनकाल में देश- शासनतंत्र की सुव्यवस्था,प्रजा की संतुष्टि,स्थापत्य, वाणिज्य कौशल आदि से वैभवशाली रहा तबतक ,जबतक तुर्कों, मुगलों को इस देश में देशी राजाओं के फूट के कारण प्रवेश नहीं मिल गया।और अन्ततःव्यापार की दृष्टि से आये पुर्तगाली फ्रांसिसी और अंग्रेजों ने इसे विदेशी रंग सेकी गई,अपनी चालाकियों से पराधीन कर दिया।

पर इस देश की जनता इस प्रकार पराधीन होकर अत्याचार सहकर बेबस होकर रहने की आदी नही थी और, उनके सभी विकसित अस्त्र-शस्त्रों को नजरअंदाज कर अपने परम शास्त्रीय और आध्यात्मिक सत्य और अहिंसा जैसे अस्त्र-शस्त्रों से.और आन्दोलनों से पुनः अपने को स्वतंत्र कर ही लिया।हो सकता है, कुछ अन्य वैश्विक परिस्थितियों ने भी सहायता की।

मेरा कथ्य तो यह हैकि हम अपने नियमों कानूनों के अन्तर्गत रहते हुए उन्ही से शासित और अनुशासित होने के सदैव से आदी हैं-अतः एक बार फिर हमने गणतंत्र की स्थापना की,।फिर बड़े प्रयत्न से अपना संविधान बनाया,और 26 जनवरी 1950 को उसे देश भर में लागू किया।संविधान की प्रस्तावना में, , संघ एवं उसकी इकाईयों ,दोनो क्षेत्रों में जनता में सम्पूर्ण प्रभुत्व न्यस्त करने के उद्येश्य से जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है,वे कुछ इस प्रकार हैं।“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए दृढ़संकल्प होकर एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित,और आत्मार्पित करते हैं।“कितनी ऊँची भावना है यह ! आत्मार्पण सबसे बड़ा आत्मानुशासन है।
आज भारत एक संघीय ढाँचे का लोकतंत्रात्मक गणराज्य है।यह प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र है।इसलोकतंत्रात्मक गणराज्य की विशेषता चुनी हुई ,संविधान के अंतर्गत शासन करनेवाली उत्तरदायी सरकार से है।विभिन्न गणों मे शासन की शक्तियाँ निहित होनेपर भी केन्द्र की शक्तियों का वर्चस्व है।हमारी स्थिति सुदृढ़ है।

प्रश्न यह उठता हैकि संविधान को आत्मार्पित करते हुए हम क्या सदैव इस देश की जनता के सर्वांगीण विकास का ध्यान रखते हैं?इस देश में प्रतिनिध्यात्मक शासन व्यवस्था है।प्रतिनिधि दलविशेष के होते हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र के स्तर पर दो बड़ी बड़ी सभाएँ हैंजिनमें हमारे द्वारा चुने हुए सदस्य संविधान के अनुसार कार्य करने की शपथ लेकर बैठते हैं। इन्हें इतना वेतन भी मिलता है कि इनके कदम अन्यथा बहके नहीं।उनकी निष्ठा मात्र और मात्र देश की जनता में हो।

इधर पिछले वर्ष का उत्तरार्ध इन्हीं प्रश्नों से घिरा रहा।तरह तरह के प्रसंगों से इनकी देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल उठते रहे।देश के बाहर मान मर्यादा की वृद्धि होती रहीऔर देश के अन्दर उसे स्खलित करने के प्रयत्न होते रहे।गणपरिषदों के सदस्यों ने मान मर्यादाओं को तार-क्षार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।ऐसा ही अगर रहा तो गणतंत्रता बेमानी होजाएगी।विभिन्नपार्टियाँअपने मतवादों को देश से ऊँचा स्थान देने लगी हैं,देशहित में लिए निर्णयों में बाधा उत्पन्न करने से नही चूक रहीं।

आपसी विद्वेष ने स्वतंत्रतापूर्व के ईतिहास मे जो नकारात्मक भूमिका निभायी; उसी प्रकार आज धर्मनिरपेक्षता को हथियार बनाकर आपसी द्वेष को बढ़ावा दिया जा रहा है।धर्मनिरपेक्षता अपना मायने खोती जा रही है।छद्म धर्म निरपेक्षता का नाट्य और अपने अपने ढंग से इसकी व्याख्याएँ हो रही हैं।और इस प्रकार सर्व जन हित तार तार हो रहा है अन्यथा विभिन्न दलों की दोरंगी प्रतिक्रियाएँ, विभिन्न स्थानों पर हुए दंगों के संदर्भ में देखने को नहीं मिलतीं।नित्य ही नवीन नाटक किये जा रहे हैं,नये नये कांडों का जन्म हो रहा है।कभी उत्तर प्रदेश कभी बिहार कभी बंगाल—यानि देश की हर उस जगह में जहाँ दो धर्म विशेष को माननेवाले लोग हैं,राजनीतिक उद्येश्यों से प्रेरित नयी नयी घटनाओं का सृजन हो रहा है।एक दूसरे की असहिष्णुता पर चर्चा होती है।प्रतीत होता है अपने देश का अखंडित रूप फिर खतरे में है।
पर, इस मामले में धैर्य की अवश्य परीक्षा हो जाती है।.अधीरता असहिष्णुता को पोषित करती है।धैर्य से विचार करने पर सब सहज हो जाता है।.यह उद्वेलनअथाह सागर के ऊपर का उद्वेलनहै जिसे हमारा प्राचीन विश्वास और हमारी उदारता से सम्बन्धित सोच की गहराई आगे नहीं बढ़ने देती।

हम अपने अंतर की गहराई में जिन भावनाओं सेपोषित हैं,वे हमें तबतक उबल कर आक्रामक नहीं बनने देतीं जबतक स्थितियाँ हमारे विचारों को चुनौती ही नही देने लगतीं।हम अपने ही बनाए नियमोंसे बँधे हैं । हम सहिष्णु हैं।हम सिद्धान्तों को आदर देते हैं,परखते हैं।हमारा ज्ञान हमारा आध्यात्म हमें स्वार्थी नहीं बनने नहीं देता,किन्तु अन्याय के विरुद्ध हम एकजुट होते हैं,हमारी इस प्रकृति की जड़ें बहुत गहरी हैं।

यह सौभाग्य का विषय हैकि हर वर्ष के आरंभ में ही गणतंत्र दिवस हमारी शासन प्रणाली,बड़े प्रयत्न से बनाए गए हमारे संविधान का स्मरण करा देताहै और नये संकल्पों की ओर उन्मुख होने को प्रवृत्त करताहै।

हम आदी हैं स्वतंत्रता से जीने के,नियमों को अपने अनुकूल बनाने और पुनःउसके अनुकूल बनने के।हमें तो स्वच्छ शासन चाहिए,मानव कल्याण चाहिए,समाज का विकास चाहिए एवम् भेदभावरहित विश्वस्तरीय समाज का निर्माण चाहिए।और,अगर ऐसा नहीं हो सका तो किसी भी शासकीय ढांचे के विरुद्ध प्रजातंत्रीय शक्ति का प्रयोग करने को हम स्वतंत्र होंगे।ऐसे गणतंत्र दिवस और अपने संविधान का हम सम्मान करते हैं।
जय गणतंत्र ।
आशा सहाय –20-01—2016—।

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