चंद लहरें
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मेघ अब हैं टिपटिपाते
जल चुका है
जर्रा जर्रा
हवा भी है
धधक रही
बन गया अन्तस मरु है
तरस खाते, व्यंग्य करते
मेघ अब हैं टिपटिपाते
प्यास है
मिटती नहीं है
भींगता अब मन नहीं है
दहक रहे तरु
लहक रही है
शुष्क होकर
हर इक परत
जमीं की
काजल का काला
मन लेकर
आ गये मेघ
अब हैं हँसी उड़ाते
दो दो बूँदें उड़ा हवा में
मेघ अब हैं टिपटिपाले
सौ सौ घट जो
ढुलक रहे नित
शून्य होकर प्राण रस से
सागर का भी सूख गया मन
नहीं उबला जो
करुण वाष्प से
देर हो गयी
करुणा को उसके
सूखी धरती तक आते आते
मेघ अब हैं टिपटिपाते।
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