Menu
blogid : 21361 postid : 1116515

ये कैसे साहित्यकार

चंद लहरें
चंद लहरें
  • 180 Posts
  • 343 Comments

साहित्यकारों को समझने के लिएसर्वप्रथम उसके द्वारा प्रणीत साहित्य शब्द को समझना अनिवार्य है।साहित्य केमूल में “सहित” की भावना होती है।“सहित” किसके?सम्पूर्णचैतन्य,सम्पूर्ण जीव जगत के सहित। व्यष्टि और समष्टि के सहित।साहित्य सदैव सार्थक भावनाओं कावहन करता है ,ऐसी भावनाएँ जो सदासमष्टिगत कळ्याण से प्रेरित हों।व्यष्टिगत और समष्टिगत मनोविश्लेषणात्मक भावनाएँ वे हो सकती हैं,क्योंकि मनोविश्लेषण विविध प्रकार के सत्य का उद्घाटन करता है।मन के भीतर छिपे सत्य का भी।और, सत्य सदा सनातन ही होता है उदात्त हो अथवा अनुदात्त।अतः वे साहित्य की श्रेणी में आती ही हैं,फिर भला वे कविताएँ हों,उपन्यास कहानियाँ,निबन्ध आलोचना या कि साहित्य की अन्य कोई विधा ,किसी भी भाषा में निबद्ध।
साहित्यकार मनीषि होता है।सुदूर ऊचाइयों पर बैठा एक ऋषि ,महर्षि,जोसमस्त जगत के अन्तः व्यापारों का सूक्ष्म निरीक्षण करता हुआ व्यापक सत्य को अपनी कला के माध्यम से उद्घाटित करता है।मूल्यहीन राजनीति का वह हिस्सा बनना पसंद नहीं करता।क्यों कि राजनीति से जुड़ा साहित्य कालजयी तबतक नहीं होता जबतक उसमे शाश्वतता का समावेश नहीं होता।काल की सीमा को पार करने की शक्ति तभी उस चिन्तन में आती है,अन्यथा वह पुराना और विगत काल का प्रतिनिधित्व करनेवाला मात्र ही रह जाता है।
यह भी सही है कि बदलतीजीवन दिशाओं और दशाऔंनेसाहित्यकारों की रचनाधर्मिता को प्रभावित किया है।वह साहित्य की रचना मात्र कला के लिए नहीं वरन जीवन के लिए करता है,करना भी चाहिए। जबतक कला में जीवन अभिव्यक्त नहीं होता,कला श्रीहीन होती है। जीवन में जीता हुआ साहित्यकार उसके उतार चढ़ावों कोसूक्ष्मदर्शी नयनों सेदेखता हुअ भी उसके कारणों और परिणामों कोएक योगी की तटस्थ दृष्टि से समझ सकता है।
अगर वह इन परिणामों से लड़ने के लिए समाज और जीवन के समक्ष खड़ा होना चाहता है तो साहित्यकार एक सैनिक भी हैजो समाज के लिएअत्यंत प्रभावी ढंग से लड़ता है।उसका आयुध विलक्षण शक्ति से युक्त साहित्य है। अगर उसे साहिल्य की अपरिमित शक्ति पर विश्वास नहीं तो साहित्यकार होने के भ्रम का त्याग कर देना चाहिए।कलम तलवार से तेज होती है,सम्पूर्ण मानवता को दृष्टि देने की ताकत भी रखती है।
हमारे देश में तो निस्संदेह-आधुनिक तात्कालिक संदर्भों में कृत्रिम अराजकता उत्पन्न की गई,जिसके मूल में भोली भाली जनता को उकसाना था ।एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करने की कोशिश थी जिसका लाभ राजनीति स्वार्थसिद्धदि के लिए ले सके। जिसका प्रभाव एक राज्य विशेष के चुनावों पर पड़ सके।वे कामयाब होकर जनता के नासमझ भटकाव पर विद्रूप की हँसी हँस भी रहे।जनता को और प्रबुद्ध होना होगा,ऐसी चालों से युक्त प्रयासों को निरस्त कर देने के लिए।.
पर वे साहित्यकार जो अपने पुरस्कारों को लौटाकर ऐसी ओछी राजनीति की मदद कर रहे हैं,क्या उनके हृदय की संकीर्णता उनके खुद के साहित्यकार होने पर व्यंग्य करती हुई नहीं दीखती।?
बड़ी बड़ी वारदातें अन्य देशों को आन्दोलित कर रही हैं ।पेरिस आतंकी हमलों से ग्रस्त है।मैं उन राजनीतिक स्थितियों में नहीं जाना चाहती ,न ही पूर्णतया उनका आकलन हीकर सकती हूँ।समझती तो बस इतना हूँ कि किसी भी देश की सम्पूर्ण जनता सरकार के सभी निर्णयों से पूरी तरह सहमत नही होती ।असंतोष तो होता ही है। तो क्या उन्हें भी वही करना चाहिये ?
शांति जहाँ भंग होती है,वहाँ आधुनिक विचारों का हिंस्रहोना एक बड़ा कारण होता है।और आधुनिक और परम्परागत विचारों में टकरावएक दूसरा कारण भी।विचारों की उग्रता कोसमाप्त करने के लिए उसकी जड़ों में जाकर कारणों का निदान करना चाहिए या एक नए महाभारत की शुरुआत, जिसमें सभी कुविचारी भस्म हो जाएँ।पर उसके बाद क्या मानवता संदेह के घेरे में नहीं आ जाएगी?
थोड़ा सा असंतोष,परिणाम स्वरूप अपने देश की सम्मानजनक संस्स्थाओं का अपमान।देश की चुनी हुई सरकार यानि अपने ही पूर्व निर्णयों का अपमान।“ओरोप”(OROP) के,पूर्व सेनानियों के पूर्ण मनोनुकूल न होने पर मेडलों को लौटा देने की कोशिश भी ऐसी ही देश को अपमानित करने की कोशिश है ।
अच्छा तो यह हो कि देश मेडल और पुरस्कार देने का सारा प्रावधान ही समाप्त कर दे।
बात मुख्यतः साहित्यकारों सेआरम्भ की गई है। इस सन्दर्भ में लगता है कि व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की हैसियत से प्रत्येक साहित्यकार को अपना विरोध जाहिर करने का हक है।पर, इसे वे मंचों केजरिये सशक्त तरीके से जाहिर करें,कलम की ताकत को आजमाएँ न कि कायरता प्रदर्शित करते हुए मात्र इन पुरस्कारों को लौटा कर, जो उनकी काबिलियत की कद्र करते हुए उन्हें दिये गए थे। इस तरह न तो वेअपनी कद्रही कर रहे वरन् खारिज कर रहे प्रतीत होते हैं।
साहित्यकारों के साहित्य सर्जन के आदर्श उद्येश्यों की महिमा से मंडित अपनेआदर्श स्वरूप की उन्हें रक्षा करनी चाहिए न कि थोथी और ओछी राजनीति के हाथों की कठपुतली बन उस स्वरूप की हत्या कर देनी चाहिए।

साहित्यकारों के प्रति सम्पूर्ण सम्मान के साथ———
आशा सहाय-21 -11 -2015—।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh