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हम आज वर्ण व्यवस्था के पक्षपाती या यों कहें कि हिमायती कदापि नहीं हो सकते क्योंकि हमारे कदम सार्वदेशिक मानवता की ओर बढ. चुके हैं।मानव धर्म की सीमाएँ राज्य और देश की सीमाओं को लाँघकर उस सार्वदेशिकता या सार्वभौमिकता की ओर बढ़ रही हैं जिसके मूल में सबसे बड़ा धर्म मानव कल्याण है ।जातियों और प्रजातियों के बन्धन अब टूटने लगे हैं।किसी भी देश या जाति पर आनेवाले संकटों, आपदाओं में सम्पूर्ण विश्व के चिन्तातुर स्वरोंसे यह बात निश्चय ही प्रमाणित होती है।मानवता मात्र के आक्रमण –निषेधभाव से ही हम आचानक विश्व समुदाय के जाति वर्ण समुदाय विहीन स्वरूप से स्वयमेव जुड़ जाते हैं।
यह विश्वजनीन चिन्ता नये मूल्यों को जन्म देती प्रतीत होती है। किसी जातिविशेष के कट्टर मूल्यों का, जो उनके धार्मिक समुदाय के कट्टर व्यवहारों में परिलक्षित होते हैं ,आज विश्व समाज निषेध करता है।मानव मूल्य अब धार्मिक मूल्यों से पृथक होते जान पड़ते हैं।धार्मिक मूल्य हमने इसलिए कहा कि,आज तक की थर्म की परिभाषा से, धर्मविशेष के वाह्याचरणों और पाखंडों को पूर्णतः पृथक नहीं किया सका है।अन्यथा, किसी भी धर्म के मूल्य तो मूलतःमानव मूल्य ही हैंजो कालगत और स्थानगत प्रभावों के कारण दीखते तो पृथक-पृथक हैं पर वे पृथक हो ही नहीं सकते।
ये मानव मूल्य समानता स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारित हो रहे हैं । काला,गोरा, ऊँचा नीचा, स्पृश्य और अस्पृश्य के भेद-भाव से अलग हटकर वह अगरइनके साथ जुड़ना चाहते हैं,तो वे समादृत होते हैं अन्यथा अनादृत।आज हम सर्वत्र मानवाधिकारों की रक्षा की बातें करते हैंऔर हमही नहीं, हर विकसित,अर्ध विकसितऔर विकासशील देश की सम्पूर्ण विश्व के प्रति यही भाव सम्पूर्ण कर्तव्यशीलता एवं निष्ठा प्रदर्शित करती है।हमारे देश की उच्चस्तरीय सच्ची आध्यात्मिकता से प्रेरित चिन्तना,इसी मानव धर्म पर विश्वास करने लगी है।देश के अन्दरूनी भागों में निवास करनेवाली पिछड़ी चिन्तना जो जातियों से जुड़ी है,वर्णों से जुड़ी है;धीरे-धीरे अज्ञानता की श्रेणी में आने लगी है।वर्णभेद और वर्गभेद अब समयानुकूल नहीं।
जहाँ तक धार्मिक सिद्धांतों में जगत् उत्पत्ति,जन्म मरण ,मुक्ति मोक्ष आदि की जो कल्पनाएँ हैं, उनकी चिन्तनाएँ सभी धर्मों में एक सी हैं।पर जब जगत को हम असत्य सिद्ध करना चाहते हैंतब भी गीता जैसे धार्मिक ग्रंथ हमें पलायन या निष्क्रियता की शिक्षा नहीं देते,हम जीवन से पलायन नहीं कर सकते,जीवन के चरम उत्कर्ष को ही जीवन की चरम सिद्धि मान लेते हैं।
इस मानव प्रधान जगत मेंमानव बुद्धि तर्करहित किसी बात को स्वीकार नहीं करती,अतः धर्म से जुड़ी निष्ठा भी तर्क बुद्धि से जुड़ी होनी चाहिए ,निर्बुद्ध या मूढ़तापूर्ण आग्रह से नहीं।सत्य को प्रकाशित करने का कार्य धर्म भी विज्ञान और तर्क आधारित दर्शन के समान ही करता है ।यह जीवन के प्रति सम्पूर्ण चेतना का परिचायक है।यह विज्ञान से पृथक नहीं बल्कि सदैव सामंजस्य रखनेवाला होता है।सत्यान्वेषण करनेवाला विज्ञान स्वभावतः ही न्याय से जुड़ा होता हैअतः धर्म भी न्याय से उतना ही जुड़ा है।वह निष्पक्ष भी होता है।उसकी निष्पक्षता को आदमी केआदिमपन,और पुरातनपन ने ढँक रखा है,जड़ता से युक्त कर रखा है।हमें उसी से निरंतर लड़ना है।
यह एक सच्चाई है कि सभी धर्म आश्चर्यजनक रूप से एक दूसरे के समान हैं।क्या ईसाई,क्या ईस्लाम !,हिन्दू, बौद्ध, यहूदी सभीईश्वरीय सत्ता को किसी नकिसी स्वरूप मेंस्वीकारते हैं और विश्व मेंउसकी ही सम्पूर्ण और सर्वत्र स्थिति को,जर्रे जर्रे में उसी के प्रतिभास कोभी स्वीकारते हैं।इस अनुभव से भी परे सत्ता को ही सभी ने परम तत्व मानते हुए उसे मानवात्माके भीतर ही स्वीकार किया है।सभी ने इस मानवात्मा को अशाश्वतता से शाश्वतता की ओर उन्मुख भी माना है।
फिर, हमारे धर्म में तो संकीर्णता के लिए स्थान ही नहीं है।वसुधैव कुटुम्बकम का समर्धक यह धर्म सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना भी करता है तो सारे जातीय आचार विचार ,पृथकता जनित उन्माद का यहीं अवसान हो जाता है।कहाँ वर्ग भेद औरकहाँ वर्ण भेद!आर्यों की वर्ण व्यवस्था तो समाज के सुचारु संचालन और उसके मूल लक्ष्य आध्यात्मिक उन्नयन का एक साधन मात्र था।
यह विभाजन भी कर्म के आधार पर था ,जन्म के नहीं।यह तो मनुष्य की अविवेकी सत्ता ने उसे जन्म आधृत बना दिया।आज भी कुछ लोग सेवा धर्म अपनाते हैं,कुछ शासकीय,कुछ वाणिज्य एवं व्यापार तथा कुछ समाज कोशिक्षित करने का कार्य करते हैं।वस्तुतः यह भी वर्ग-विभाजन हो सकता है।उन्नयित दृष्टि से जैसे ही हमइस विभाजन पर विचार करते हैं,हम पाते हैं कि तथाकथित जाति व्यवस्था में इन वर्गोंमें प्रवेशजन्य कोई अवरोध नहीं है।होना भी नहीं चाहिए।धर्मविशेष भी इस व्यवस्था में बाधक नहीं हो सकता। बिना इसके राष्ट्र और समाज का समुचित विकास हो ही नहीं सकता।
आज हम कह सकते हैं कि व्यापारी के घर में कुशल व्यापारी,इंजीनियर के घर में कुशल इंजीनियर,और डॉक्टर के घर में कुशल डॉक्टर हो सकते हैं पर ऐसा जन्म गत विशेषता से बहुत कम किन्तु कौशल औरवातावरण सेज्यादा संभव हो सकता है।
आज भीवह वर्णव्यवस्था जीवित है जो कर्म आधारित हैऔर जिसके पक्षपाती हमारे पुरखे आर्य भी थे। सच पूछिए ,तो आज सम्पूर्ण विश्व का मध्यम वर्ग और बुर्जुआ या बौद्धिक वर्ग अपने आप में ही विभिन्न वर्णों के व्यक्तित्व को समाहित करता है।कभी वह चिन्तन ,प्रगाढ़ चिन्तन,ब्रह्म-चिन्तन में ब्राह्मण,बल पराक्रम प्रदर्शन में क्षत्रिय,व्यापारादि कर्मों में लिप्त रहने पर वैश्य,एक गृह केसम्पूर्ण सेवा कार्यों को करने को विवश होने के कारणशूद्र वर्ण केधर्म का निर्वहण करता है।इस चतुर्मुखी व्यक्तित्व को अंगीकार करने को वे विवश हैं।ऐसी स्थितिमें वाह्य सामाजिक वर्ण व्यवस्था उसके लिए कोई मायने नहीं रखती।
वर्ण व्यवस्था अथवा वर्ग व्यवस्था के पुरातन स्वरूप को भूल जाना हीआज के भारतीय समाज केविकास का प्रमाण होना चाहिए।यही सामाजिक समरसता का एकमात्र मापदंड होना चाहिए।स्मरण रखना चाहिए तो सिर्फ उस वर्गभेद को,जो आर्थिक दृष्टि सेसदैव समाज को दो भागों में बाँटता आ रहा है।अमीर और गरीब ,सम्पन्न और विपन्न,शिक्षित और अशिक्षित ।
इस वर्गभेद को मिटाना इतना आसान तो नहीं है क्योंकि इसके पीछे योग्यताभेद कारणस्वरूप कार्य करता है।फिर भी इस भेद को मिटाने के लिए अधिक सेअधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता होगी।आर्थिक सम्पन्नता के आलोक में ऊँच नीच,सवर्णता ओरअवर्णता का अस्तित्व अपने आप गौण हो जाता है।प्रधान रह जाती है तो बस,आदिमकाल से संपूज्य सम्पन्नता।
आज कर्म और व्यवसाय के आधार पर चलती हुई वर्ण व्यवस्था को हम स्वीकृति देते हैं और मानव धर्म के आधार पर सबके संरक्षण की,सुरक्षा की और मूल मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर सम्पूर्ण विश्व के प्रयासो को पूर्ण समर्थन भी।
इति—
आशा सहाय–।
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