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विपक्ष—अपना अपना भय

चंद लहरें
चंद लहरें
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यह आवश्यक नहीं कि 2019 के लोकसभा-चुनाव का परिणाम  भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हो।इस दल के लिए डगर इतनी आसान नहीं।लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका का महत्व होता है। वह किन सीधे अथवा नाटकीयों  ढंगों से जनमत को राजनीतिक रंगमंच पर प्रस्तुत कर सत्तासीन पार्टी को चुनौती देता है यह उसके बुद्धिकौशल पर निर्भर करता है।  इस बात से तो इन्कार नहीं ही किया जा सकता कि लोकतंत्र मे इसके शक्ति सम्पन्न रहने की बहुत आवश्यकता है। इस देश में वर्तमान परिदृश्य में बिखरा हुआ विपक्ष एक जुट होने की कोशिश करता प्रतीत हो रहा है पर अभी भी उसमे  आन्तरिक जुड़ाव की बहुत कमी है।इसके मूल में समान सिद्धान्त और समान मुद्दों का अभाव है। बस वे अपनी कल्पना की उस भयावह स्थिति के विरुद्ध एकजुट होना चाहते हैं जिसमे  मोदी के पूरे देश में बढते कदम उन्हे उनके अस्तित्व के लिये  खतरे की चेतावनी देते प्रतीत हो रहे हैं। इस कोशिश में वे नैतिकता, सिद्धान्तवादिता आदि सबों को ताक पर रख  अपशब्दों ,अनुमानित मिथ्या आरोपों तथा व्यक्तिगत आक्षेपों के सहारे सत्तासीन पार्टी को प्रभावहीन करने की कोशिशों में कोई कमी नहीं करना चाहते। कमोवेश यह हर पार्टी के चुनाव प्रचार का सच होता जा रहा है। पार्टी चाहे सत्तासीन हो या विरोधी, मर्यादा और पद का ध्यान किसी को भी नहीं होता।

 

 

 

अभी- अभी कर्णाटक के चुनाव परिणाम  के आधार पर सरकार बनाने की होड़ और जोड़ तोड़ ने इन सारी बातों को ही स्पष्ट किया है।चालाकियों द्वारा सत्ता हासिल करने की कोशिश  यहाँ  सिद्धांतहीनता की पराकाष्ठा पर पहुँचती नजर आयी जब किसी ऐसी तीसरी पार्टी से बिना किसी भूमिका के हाथ मिला लेने में दल विशेष को कोई संकोच नहीं हुआ जो एक लम्बे समय से विरोधी की भूमिका में रहा हो।अपशब्द कहते कहते अचानक अंक में भर लेने से अपशब्दों का असर सिर्फ भारतीय राजनीति में ही मिट सकता है, अन्यत्र नहीं। कर्णाटक मे ही नहीं ,फूलपुर चुनावों में भी मायावती और अखिलेश यादव का एक दूसरे को समर्थन देना  ऐसी ही मनोवृति का द्योतक है।पर इसके स्थायित्व में शंका की ही जासकती है।कर्णाटक में भी आपत्ति जनक टिप्पणियों के द्वारा विरोधी स्वर वाले दलों को बार-बार तिलमिलाहट के करीब पहुँचाया गया।किन्तु यह सिद्ध हो गया कि सत्तालोलुपता किसी भी प्रकार के अपमान को पी गठबंधन बना सकती है। जे डी एस के लिए आगे भी अपमानजनक स्थितियों की कमी नहीं होगी जब हर मुद्दे पर उसे काँग्रेस के समर्थन का मुँह जोहना ही होगा। प्रकारान्तर से यह सरकार काँग्रेस की ही है।सरकार बनाने के लिए जो जो कदम उठाए गये,विधायकों को जिस प्रकार छिपाया गया ,वस्तुतः यह स्वस्थ लोकतंत्र की गवाही नहीं देता।इन कार्यों से विरोध के सशक्त होने की गवाही नहीं मिलती।

 

विरोध मुद्दों का होना चाहिएऔर मुद्दों को सशक्त एवम वास्तविकताओं से जुड़ा होना चाहिए।आज विपक्ष के पास जो मुद्दे हैं वेअब कमजोर पड़ते दीखते हैं।दलित ,किसान जैसे मुद्दे सार्वकालिक मुद्दे हैं।  इनके लिए निरंतर प्रयत्न किए जा रहे हैं दलितों के प्रति अन्याय अथवा अवमानना पर सख्त कदम लिए ही जा रहे हैं। नोटबंदी और जी एस टी जैसे मुद्दे धीरे धीरेविश्व नजरिया देखते हुए प्रभावहीन हो रहे हैं प्रबुद्ध वर्ग को ये दूरगामी परिणाम देने वाले दिख रहे हैं हलाँकि एक वर्ग को अभी भी इनसे विरोध है।एक मुद्दा बेरोजगारी का है।यह ज्वलंत मुद्दा है।शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या निश्चय ही इस ओर ध्यान आकर्षित करती है।कोईभी आकर्षक कार्यक्रम इस समस्या का सम्पूर्ण हल नहीं दे सकता।देश को बाँटने की कोशिश ,लोकतंत्र की हत्या जैसे मुद्दे सामान्य जनता पर प्रभाव डालने में असमर्थ है क्योंकि इसे वे सही सही समझ नहीं पाते और समझाने की कोशिश करने वाली संस्थाओं का स्वार्थ उन्हें दिखने लगता है।

 

एक मुद्दा विशेष धर्म की ओर झुकाव का है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में बार  बार इस मुद्दे को उछाल कर वस्तुतः धार्मिक भेदभाव को ही जन्म दिया जाता है।हिन्दुस्तान की आत्मा जिस मर्यादित धर्म अथवा जीवनशैली में बसती है,उसकी ओर झुकाव कोई अपराध नहीं है। यह किसी को जबरन जनेऊ में नही बाँधती,मंदिरों मे प्रवेश के लिए बाध्य नहीं करती । यहएकमर्यादित जीवनशैली है ,जो कभी शिव ,कभी विष्णु कभी शक्ति की शक्तियों पर विश्वास प्रगट किया करती है। एक ही विराट सत्ता के विभिन्न स्वरूपों को स्वीकार कर सबकी आराधना करती है, सबके प्रति भक्तिऔर श्रद्धा प्रकट करती है।आचरण की शुद्धता पर बल देती है।वैश्विक मापदंडों को अपने में समाहित करव्यक्ति व्यक्ति का कल्याण बिना भेद भाव के करती है।अगर ऐसे धर्म के प्रति श्रद्धा रखी जाती है तो कुछ बुरा नहीं।  सभी धर्मों  का आदर करने वाला यह धर्म अपने को संस्कारित भी करता है। बुरे और अतिवादी दृष्टिकोणों की कहीं कमी नहीं होती । उससे सावधान रहने की हर जगह और हर समय आवश्यकता होती ही है।अतःऐसे मुद्दे भी प्रभावहीन होते जाएँगे। चुनावों के समय अगर इन्हें कृत्रिम रूप से उछाल दिया जाता है तो यह अवश्य ही मन में शंका उत्पन्न करता है। इनपर आधारित दंगों का कराया जाना एक आसान सा काम हो गया है। निम्नस्तरीय हथकंडों का सहारा ले तो कुछ भी किया जा सकता है पर मध्यवर्गीय प्रबुद्ध वर्ग इनका सच जान जान चुका है अतः विशेष रूप से आन्दोलित नहीं होता।किन्तु भारतीय समाज पर अभी भी अशिक्षित वर्ग एवं मानसिकता का वर्चस्व है अतः ये उनपर असरकारी हो जाते हैं।

 

यह मुद्दाविहीनता भी तिलमिलाहट का कारण है।बेमेल समझौते इसी के परिणाम हैं।यह उन्हे सिर्फ एक ही मुद्दे की ओर मोड़ना चाह रही है, वह है येन केन प्रकारेण अगले लोक सभा चुनावों मे भाजपा और मोदी को रोक देना।यह भी कोई बहुत बड़ी बात नहींअगर सभी विपक्षी दल किसी एक नेता का नेतृत्व स्वीकार करें।किन्तु इस महत्वाकाँक्षा के लिए कई नेता सिर उठाते नजर आ रहे हैं।आरंभ से ही उनके मध्य तूतूमैंमैं होरही है।यह उन्हें संगठित होने से अवश्य रोकेगी।

 

सत्तालोलुपता का सवाक्  प्रदर्शन राहुल गाँधी कर चुके हैं।मायावती, शरद पवार ,ममता बनर्जी सभी राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं।वे सब राष्ट्र नेतृत्व का दावा करते हुए से प्रतीत होते हैं।ममता बनर्जी की भंगिमा कर्णाटक  शपथ ग्रहण समारोह में यही आशय प्रगट करती सी जान पड़ी।उन्हें वर्चस्व चाहिए,ऐसा प्रतीत हुआ।राहुल गाँधी को नेतृत्व प्रदान कर देना शायद इन्हें रास नहीं आए।यद्यपि राहुल गाँधी मे अब राजनीतिक समझ विकसित प्रतीत होती है पर काँग्रेस की डूबती नैया को सम्हालने लायक कद शायद अभी नहीं हो।वैसे वे युवा शक्ति को आकर्षित कर ही सकते हैं।अपने विरोधी पार्टी जे डी एस को जिस प्रकार अपने खेमें में उन्होंने ले लिया यह ध्यान देने योग्य है।,समर्थन देकर मुख्यमंत्रित्व का प्रस्ताव तुरत ही देना उनकी राजनीतिक चपलता का परिचायक सा लगा। कुमारस्वामी ऐसे ही प्रस्तावों की बाट भी जोह रहे थे। यह एक सफल राजनीतिक चाल हुई पर जनता पर इसका कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा कहना कठिन है।भाजपा के चुनाव पूर्व के दलित प्रेम को देखते हुए उपमुख्यमंत्री पद के लिए दलित नेता का चुनाव कर लेना भी राजनीतिक परिपक्व समझ का ही परिचायक है।पर भारत जैसे देश में ,राहुल गाँधी का नेतृत्व सभी स्वीकार कर लेंगे,ऐसा संभव नहीं दिखता।

 

 

 

अभी का विरोध मात्र एक भय है।देश हित से जुड़ा यह भय नहीं दिखता। प्रत्येक दल के नेताओं कोअपना राजनीतिक अस्तित्व संकट में जान पड़ता है।सबके अपने अपने स्वार्थ हैं।गुण और अवगुण सभी पार्टियों में हैं, पर भ्रष्टाचार उन्मूलन की ओर सशक्त प्रयास के संकल्प का  सबमें अभाव दिखता है। इसे फूलने और फलने से किसी ने नहीं रोका। वर्तमान सरकार के इसओर प्रदर्शित सख्त रवैयों और कारवाईयोंकीलहर से सभीआशंकित हैं।

 

मोदी से डरकर सबका एकजुट होना  वस्तुतः सबकी शक्तिहीनता का ही प्रमाण है।शक्ति संयुक्त होने के लिए एक छतरी के नीचे आना आवश्यक है। नये सिरे से अपने अपने सिद्धांतो को एक संयुक्त स्वरूप दे राष्ट्र को अगर द्विदलीय व्यवस्था देने का यत्न करें तो विरोध कारगर हो सकता है।नेतृत्व तब भी बड़ा मुद्दा होगा जिसे लोकतांत्रिक रीति से सुलझाया जा सकता है।तत्काल  अपशब्दों की छत्रच्छाया में जीते हुए दलों के मनों का मिलने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता।सबकी अपनी डफली और अपने राग हैं।

 

 

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