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व्यक्तिवाद—एक दृष्टिकोण-भारतीय संदर्भ में

चंद लहरें
चंद लहरें
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आज का जीवन जो शहरों और नगरों में समाया है-वस्तुतः भारत का वास्तविक जीवन नहीं कहा जा सकता।कोलाहल और आपाधापी से युक्त व्यक्तिगत सोचों, क्षमताओं पर आधारित इसे हम व्यक्तिवादी जीवन की संज्ञा दे सकते हैं।सड़कोंपर रिक्शों,साइकिलो और पब्लिक वाहनों केसहारे घूमते ,जीवन-यापन करते लोगों को अवश्य ही हम उपरोक्त श्रेणी में नही रखना चाहते किन्तु,शहरों ओर नगरों मे नित्य प्रतिदिन बढ़ती हुई जनसंख्या; विशेषकर उच्च मध्यवर्ग की ;इस बात का संकेत नहीं देती कि वे परिवारवाद और समाजवाद की सैद्धांतिक स्थापनाओंओर व्यावहारिक परिणतियों से उसकी अंतिम सीमाओं तक जुड़ी हैं।उनके क्रियाकलाप व्यक्तिवादी सोचों से ही प्रभावित दीखते हैं।
यह दृष्टिकोण उन्नीसवीं सदी की उस विचारधारा कापरिणाम ही दिखीई पड़ता है,जिस ने औदयोगिक विस्तारीकरण और उससे उत्पन्न वर्गभेद, बढ़ती जन आकांक्षाएँ ,प्रतियोगिता की तीव्र भावनाओं की बलिवेदी पर चढ़ती हुई सामाजिक सोच और संरचनाओं को तीव्र गति से प्रभावित किया। मध्य वर्ग जो सदैव से एक चिन्तक वर्ग रहा है,इसके परिणामों का समीप अथवा दूर से अध्ययन करता रहा,इसके कुपरिणामों से समाज को अवगत कराने के प्रयासों में आध्यात्मिक चिंतन और मानव मूल्यों की ओरध्यान आकृष्ट करने की तरह तरह की कोशिशें की । सत्साहित्य की रचनाओं से सम्पूर्ण पाश्चात्य और भारतीय साहित्य भरा पड़ा है।रोमांटिसिज्म और भारतीय छायावाद को इस संदर्भ मे देखने की कोशिश हम कर सकतेहैं।

यह व्यक्तिवादी विचारधारा पश्चिमी औद्योगीकरण की चरम क्रमागत परिणति तो है जिसने धीरे-धीरे वर्ग भेद और जन-भेद,विशिष्ट और सामान्य केरूप में समाजकी सम्पूर्ण स्वरूप को ही बदल डाला, व्यक्ति वैशिष्ट्य की अवधारणा को पनपाया।पर इसके बहुत पूर्व समाज और व्यक्ति के सम्बन्धों को .लेकर सत्रहवी शताब्दी में ही सामाजिक समझौते के सिद्धान्त ने समाज को मानव केलिए किंचित आवश्यक मानते हुए भी गौण और व्यक्ति को प्रधान माना था।कमोवेश,व्यक्ति के अंतर्निहित विशिष्टताओं के सम्पूर्ण विकास उसकी संभावनाओं का उचित परिपोषण का सिद्धान्त राष्ट्रीय सोच को एक आधार देने लगा। लोकतांत्रिक सोच ने व्यक्ति के प्राधान्य जनित इस सोच को प्रश्रय देते हुए सामाजिक हितों से इसे जोड़ना चाहा।अपने प्रौढ़ सैद्धान्तिक दृष्टिकोणों से व्यक्तिगत विशेषताओं कं प्रगटीकरण का सिद्धान्त, तत्सम्बन्धित अधिकार –बोध, व्यक्ति और राष्ट्र का हितैषी तो हो सकता है ,पर सामाजिक या सामुदायिक हितों के संदर्भ मे इसके टकराव से भी इन्कार नहीं किया जा सकता ।

सभी स्तरपर इन भावनाओं को परखने के उपरांत पुनःआधुनिक युग की वैश्विक सोचों तक आने की होड़ में वैज्ञानिक- अद्यतन -उपलब्धियों के जरिये निकटतम सामाजिक सोचों से दूर होते हुए लोग व्यक्तिवादी सोचों के करीब होते जा रहे हैं। तो,बड़े बड़े शहरों की भागदौड़ व्यक्तिवादी लक्ष्यों से प्रेरित लोगों की है,जनवादी सोच जो कभी कभी लक्षित होते हैं वे स्वार्थ सिद्धि से प्रेरित भी हो सकते हैं।
परिणामस्वरूप, हर व्यक्ति भौतिक,सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर अकेला होता जा रहा है।
इस अकेलेपन को दूर करने की कोई दवा उसके पास नहीं है।कोई विपरीत विचार धारा उन्हें रास भी नहीं आ सकती।
लोग अस्थिर हो उठे हैं।शिक्षार्थी से लेकर व्यवसयार्थी तक अपने हितों की पूर्ति के लिये पारिवारिक और सामाजिक सोंच को कुर्बान कर रहे हैं।विज्ञान अपनी अधुनातन उपलब्धियों और इन्टरनेट की सेवाओं से इन्हें प्रोत्साहित कर रहा है। हम इसे विकास की संज्ञा दे सकते है क्योंकि यह हमें विकसित देशों के समकक्ष लाकर खड़ा करने मे सहायक है।
पर यह भारत सम्पूर्ण भारत नहीं है।भारत की आत्मा अभी भीउन अविकसित अथवा अर्धविकसित ग्राम्य अथवा अर्धशहरी वातावरण में निवास करती है,जहाँ वे व्यक्तिवादी सोचों से न तो भाग सकते हैं और न ही पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों की अनदेखी कर सकते हैं।
अजीब दुविधा है।इस दुविधा ने जहाँ स्पष्ट चिंतन के अभाव का सृजन किया है,वही छलयुक्त भावनाओं को भी जन्म दिया है।कृत्रिम भावनाएँ जन्म ले रही हैं हर व्यक्ति उसका शिकार होता प्रतीत होता है।
एक परिवार की दो तीन पीढ़ियों में भावनात्मक संघर्ष की कहानी इन परिवर्तित मानदंडों,व्यक्तिवादी सोंच और समाजवादी सोंच के मध्य सेएक मार्ग निकालना चाहती तो है पर वह संभव नहीं होता और एक पीढ़ी का मर्म तो आहत होता ही है।पुरानी पीढ़ी को समझौते की डगर पर फूँक फूँक कर कदम रखने पड़ रहे हैं। मध्य वर्ग आज अकेला होता जा रहा है।
यह सोच वहाँ अलग है जहाँ विकास की लहरें अबतक नहीं पहुँची।भारत का एक स्वरूप वहाँभी दीखता है जहाँ अब भी अभावों संघर्षों में भी सबसे पहले पारिवारिक और सामाजिक भावनाओं को स्थान प्राप्त है ।राष्ट्रीय और वैश्विक भावनाओं से जुड़ने के लिए जिन प्रयत्नों से उन्हें जूझना होगा,उसमें पूर्ण रूप से अगर नहीं तो अंशतः असमर्थ तो हैं ही।पहली शर्त मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। उचित शिक्षा प्रप्त करना दूसरी प्राथमिकता,व्यक्तिगत क्षमताओं कासम्पूर्ण विकास तीसरी प्राथमिकता होगी।
स्वस्थ विकास तब होगा जब इस विकसित व्यक्तिगत स्वरूप को कमशः परिवार और समाज से जुड़े रखते हुए राष्ट्रीय विवेकपूर्ण सोंच से जोड़ना होगा। यह जुड़ाव मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं प्रत्युत लोकतंत्रीय अवधारना केलिए होगा।ऐसाकरने के बाद वे स्वयं विश्वजनीन सोचों से जुड़ जाएँगे।किनतु, एक सन्तुलन की सर्वत्र आवश्यकता है।
व्यक्तिवादिता को कुचल देने के लिए कभी कभी समाज के द्वारा निर्मम कदम उठा लिये जाते हैं खाप जैसी कदर्य घटनाएँ उदाहृत की जा सकती हैं। विकासशील स्थितियों और विश्वजनीन चिन्तन को देखते हुए ऐसी घटनाएँ समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
हर व्यक्ति का विकास उसके अन्तर्निहित गुणों एवं सामर्थ्य के सम्पूर्ण हद तक हो,यह राष्ट्र की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होगी।इसका निर्वहण तो तब हो सकता है जब राष्ट्र व्यक्ति व्यक्ति के पालन,पोषण,शिक्षा, चिकित्सा और सम्पूर्ण विकास की सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेने में समर्थ हो जाए।एक भी व्यक्ति अपने को निराश्रित न महसूस करे।जबतक राष्ट्र इतना समुन्नत न हो जाए यह जिम्मेदारी व्यक्ति के अपने कन्धों पर ही होगा और इसके लिए व्यक्तिवादिता कोथोड़ी कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी। अतएव, एक संतुलन की निरंतर आवश्यकता है।
हमें अपनी चिन्ताओं में सन्तुलन स्थापित करना होगा।हम कितने व्यक्तिवादी हों,कितने पारिवारिक,सामाजिक वैश्विक और राष्ट्रीय चिन्ताओं से युक्त—अपने व्यक्तित्व के विभिन्न विभागों से इन विभागों को सम्यक रूप से जोड़ना होगा तभी हम सम्पूर्ण मानव कहलाने के अधिकारी होंगे।
हम पुनः इस विषय पर सोचते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचने को विवश होते हैं कि एक संतुलन स्थापित करना होगा।

आशा सहाय 19 -6 2015–।

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