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समभाव धर्मों का : आवश्यकता शिक्षण की

चंद लहरें
चंद लहरें
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एक समाचारपत्र मे एक विचारक का संदेश ,कि धर्म व शिक्षास्थलों में मेल होना चाहिएःने मेरे मन मे कई प्रश्नचिह्न एवं समर्थन के कई स्वरूप खड़े कर दिए।मेरे मन ने तत्सम्बन्धित नयी दिशाएँ तलाशनी आरम्भ कर दी।आखिर वह कौन सा धर्म हो जिसके साथ शिक्षा स्थलों का मेल हो।यहाँ भारतमे तो करीब-करीब सभी धर्मों ने अपने ढंग के शिक्षास्थल खोल रखे ही हैं । इन स्धलों पर शिक्षा भी विशेष ढंग से ही दी जाती है तो क्या यह उन विचारक के उद्येश्य की पूर्ति नहीं करता?धर्म की परिभाषा क्या होनी चाहिए और क्यों ऐसा करना चाहिए? एक युग था जब धर्मनिरपेक्षता के उद्येश्य की सिद्धि हेतु विद्यालयों में विशेष धार्मिक साहित्य का पाठन प्रतिबंधित कर दिया गया । स्थिति आज भी वही है।किन्तु फिरभी यह विचारणीय विषय है।यह मानव विकास से सम्बद्ध सोच है।आज केबिखराव भरी जिंदगी में जो निरी भौतिकता समा गयी है,जिसने जीवन को इतना शुष्कऔर उपभोगवादी बना दिया है कि न उसमें आध्यात्मिकता के लिए कोई स्थान है,न जीवन सत्य समझने की कोई ललक। वे इनसे भयभीत होते हैं कि ये उनके भौतिक विकास में कही बाधक न सिद्ध हों।पर विपरीततःयह भौतिकता को सर्वत्र एक विश्व सार्थकता देने का ही प्रयत्न करते हैं।
— धर्म से अलग रहकर किसी भी मानव जाति ,समुदाय का विकास नहीं हो सकता, क्योंकि यह एक निर्देशक तत्व है जो किसी भी जाति समुदाय के व्यवहारों ,क्रियाकलापों कोएक विशेष नैतिकता के तहत दिशा निर्देश देता है।उसके आचार विचारो को भटकने से रोकता है। इस अर्थ में विश्व भर मे फैले हुए सभी धर्मों के मूल भाव में पूर्ण समानता दिखाई पड़ती है।हम हिन्दू ,मुस्लिम, इसाई, प्राचीन इरानी(अब नही) और पारसी आदिसभी धर्मों के अन्दर झाँक कर देखें तो हमे वही समान तत्व दिखायी देंगे।वे अलग हो भी कैसे सकते है। अलग होना ही कृत्रिमता को जन्म देता है । आदिकाल में मानव जाति ने जब अपने होश सम्हाले उसने जो कुछ देखा,समझा,औरझेला, जिन शक्तियों का अनुभव किया ,जिसके आगे अपने को असहाय पाया ,उन्ही की विभिन्न रूपों में अााराधना की ,उन्हीं से संघर्ष करने की ठानी और जय पराजय की स्थितियों में अपना कर्तव्य निश्चित किया ।कुछ गहराई से सोचनेवालों ने कहीं तप कहीं तर्क का सहारा ले जगत के मूल कारण और मूल तत्वों तक पहुँचने की कोशिश की।यहबहुत स्वाभाविक प्रक्रिया थी ।सम्पूर्ण विश्व में बिखरी विभिन्न रंग, नैन नक्शों,भिन्न भौगोलिक स्थितियों वाली जातियों ने इसतरह जो हासिल किया उसके अनुकूल आचरण करना ही अपना धर्म मान लिया। धर्म अर्थात् कर्तव्य।और इन सभी धर्मों के मूल में मानवता जैसी ही भावना रही। हो सकता है- आज की मानवता की परिभाषा से देशकाल सम्बन्धी विभिन्नताओं कारण कुछ भिन्नता प्रतीत हो पर मूलतःवह भिन्न नहीं है।पारसियों काअथवा इस्लामिक देश बनने से पहले इरान के अधिकांश निवासियों का धर्मग्रंथ जिन्देवस्ताऔर भारतीय वैदिक धर्म में गहरी समानता है।वे जरथ्रुस्ट या जोरास्टर को प्रोफेट माननेवाले थे।समय की माँग को देखते हुए उन्हों ने जीवन मूल्यों सहित नैतिकताको जीवन मे प्राधान्य दिया।किसी तत्ववाद अथवा आध्यात्मिक सिद्धान्तों की खोज में नही भटकते हुए अहुरमाज़दा के नाम से देवपूजन आरम्भ किया। अहुरमाजदा उनके एकेश्वरवाद का एकमात्र गॉड है।वेभी अग्नि के माध्यम से उस एक ब्रह्म की ही आराधना करते हैं।उन्हें आवश्यकता मात्र इस बात की थी कि एक विशेष शक्ति के प्रति वे अपनी आस्था और विश्वास को केन्द्रित कर सकें।सारे धर्मों के मूल में इसी आस्था और विश्वास की आवश्यकता ही है।वेदों और जेन्दावस्ता की भाषा में समानता तो है ही ,दोनों की दैवी शक्तियों की अवधारणा में भी समानता है।सारेआचार विचारों में भी समानता दिखती है।हमारा कठोपनिषद् भी ब्रह्म तक पहुँचने के लिए त्रिनाचिकेत,अग्निचयन अग्निऔर यज्ञ को माध्यम मानते हैं।मुस्लिम और इसाई धर्म भी इस जिन्दअवेस्ता से कहीं न कहीं प्रभावित हैं।जोरोस्ट्रियनिज्म के भी दो वेद हैं यस्न और विस्परद।यस्न केअन्तरगत दो भागों में गाथा हैं जो उनकेप्रॉफेट के मुख से निकले जाने जाते हैंठीक हमारे वेदों के समान।येगाथा संख्या में पाँच हैं।प्रथम में सामवेद की तरह केछन्द हैंदूसरी में ऋग्वेद की तरह सर्वोच्च ईश्वर के प्रति प्रार्थनाएँ।हमारे वेदान्त, कीतरह ही उनके नस्क हैं ।वेपाँचबार पूजन सूर्य की ओर अभिमुख हो कर करते हैं।उनसे प्रभावित इस्लाम भी पाँच बार नमाज पढ़ना आवश्यक मानता है।पारसियो के जीवन लक्ष्यों में जीवन शैली की पवित्रता और नैतिकता का महत्वपूर्ण स्थान है तो आर्यों ने भी जातिगत पवित्रता के रक्षण के लिए युद्धों को भी स्वीकार किया।
— भारत में द्रविड़ सभ्यता में पनपनेवाले वैष्णव,शैव शाक्त आदि भारतीय मूल हिन्दु धर्मों के साथउनका समागम हुआ।तथाकथित हिन्दूू धर्म के भीतर चिंतन के द्वारा निरंतर सुधार की प्रक्रियाएँ चलती रहीं।अवतारवादऔर पुनर्जन्म संबंधी धारणाएँ उसकी पृथक विशेषताएँ बनीं जो कालान्तर में वैदिक धर्म के सथ मिलकर एक ऐसे विशिष्ट आध्यात्मिक स्वरूप मे परिवर्तित होती गईं जिसमें ईश्वर एक है,अवतार ग्रहण करता है,कण कण में व्याप्त हैऔर जीव पुनर्जन्म का भागी है।ईश्वर के प्रति पूर्ण आध्यात्मिक समर्पण से मोक्ष की प्राप्ति होती है।हिन्दु धर्म की ये विशिष्टताएँ कमोवेश सबों को मान्य होती हैं।वेदों केसारे देव हिन्दु धर्म के देव हो गए।यज्ञों ,हवनों केमाध्यम से,अग्नि को दी गई आहुतियों केमाध्यम से अग्नि को हिन्दुओं ने भी माध्यम बनाया।मोक्षकामियों केलिए देवाराधना यज्ञाग्नि के माध्यम से हो इसका कठोपनिषद में बार बार उल्लेख है।ब्रह्म ,अहुरमाजदा सभी अग्नि के समकक्ष हैं ।ज्यूज भी अपने प्रभु को अग्निस्तम्भ के रूप में पूजते हैं।क्रिश्चियन्स भी गॉड को कॉस्मिक अग्नि मानते हैं।अग्नि ईश्वर की शक्ति काप्रतीक है,चाहे वह अपने प्रकाश के रूप में पूजित होअथवाशिखा ज्वाल के रूप में।पहली बार ज्यूज ने ही स्वर्ग नरक की भी कल्पना की। तात्पर्य यह कि वाह्याडंबरों को छोड़ दें तो अपनेमूल चिंतक स्वरूप में प्रत्येक धर्म एक दूसरे के करीब हैं।
— इस्लाम की भावनाएँ भी सबों से मिलती जुलती हैं।उन के अनुसार धर्म के छः स्तम्भोंमें—
वेभी एकेश्वरवादी हैं।अवतारों पर विश्वास नहीं करतेपर देवदूतों पर विश्वास करते हैंजो अल्लाह के आदेशों कोउनके माननेवालों तक पहुँचाते हैं।हम अवतारों में विश्वास करते हैं । प्रकारान्तर से कहीं न कहीं समानता तो है ही।
वे अल्लाह प्रदत्त पवित्र पुस्तकों पर विश्वास करते हैं-जैसे कुरान जो मुहम्मद को दिया गया।तूरा, जो मूसा को दिया गया ।गॉस्पेल, जो जेसस को दिया गया। स्क्राल्स, जो इब्राहिम को दिया गया।कुरान कामहत्व सर्वोपरि है।
उनके अनुसार प्रथम मनुष्य आदम था।क्रिश्चियैनिटी में भी आदम और हौआ की कल्पना की गयी।प्रलय के बाद हमने भी मनु की कल्पना की।
—वे भी एक न्याय दिवस(A day of judgment) की कल्पना करते हैजब मनुष्य कृत कर्मों का हिसाब होता है।ईश्वरीय सिद्धान्तों को माननेवालों को पैराडाईज और बुरेकर्मों वाले को हेल (नरक) मिलता है।हमारे यहाँ के स्वर्ग नरक की कल्पनाऔर कर्मफल की कल्पना से यह बहुत दूर नहीं।हाँ, हम पुनर्जन्म मे विश्वास करते हैं, वे नहीं करते।उनका यह विश्वास किमानव जीवन में सबकुछ ईश्वरीय ईच्छा से घटित होता हैऔरमनुष्य अपनेजीवन में कर्मों के लिए स्वतंत्र है, हमारेविश्वासों के समकक्ष ही है।
जकात निकालना या दान करना उनके धर्म का अनिवार्य हिस्सा है। दान या जरूरतमंदों की मदद करना प्रत्येक धर्म का अनिवार्य हिस्सा है। हमारे प्राचीन धर्म की निरंतर विकास यात्रा ने हमें अनगिनत तीर्थ दिये हैं। संभवतःइस स्थिति के अभाव के फलस्वरूप उनका एकमात्र तीर्थ मक्का ही है।
— भावनाएँ कहीं अपवित्र नहीं हैं।वे एक से अधिक तीन विवाहों को मान्यता देते हैं यह मात्र मुस्लिम घर्म के उदयकाल की ही माँग नहीं थी, वैदिक काल, पूर्ववर्ती काल एवम् परवर्ती कालों में हमारे देश में पनपने वाली प्रत्येक जातिअथवा जनसमूहों में भी प्रचलित एक वैध प्रथा थी।कृष्ण की सोलह हजार रानियों की आप कैसे आलोचना करेंगे।समाज में पुरुषों और स्त्रियों की संख्यागत असमानता बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेवार हो सकती है। हो सकता है, यह असमानता बार बार होनेवाले संघर्षों ,युद्धों के कारण उत्पन्न होती हो, स्त्रियाँ अरक्षित हो जाती हों ,उनके भरण- पोषण,एवम् सम्मानित जीवन की समस्या उत्पन्न हो जाती हो।इसे ही ध्यानमें रखते हुए सभी तत्सामयिक व्यवस्थाएँ की गयी होंगी।यह कहना असंगत नहीं होगाकिइस परंपरा ने बाद मेंएक सामाजिक बुराई का स्वरूप धारण कर लिया होगा।तलाक भी उतनी ही सुगमता से दे देना तब भी उतना ही असंवेदनशील था और आज भी।पुनःशादी ,पुनःतलाक ,पुनः पूर्व पति के पास आने का प्रावधान आदिएक प्रकार का दंडविधान था। आज हम इसे अत्याचार की संज्ञा दे सकते हैं।कोई भी नियम एक लम्बे काल अन्तराल में स्वयं में इतने छिद्र समेट लेता हैकि वह प्रभावहीनऔर अमर्यादित होकर समाज के लिए नितान्त अहितकर हो जाता है। उनके तलाक- विधान की विवादित स्थिति को हम इस सन्दर्भ में देखने की चेष्टा कर सकते हैं। विशेषकर, आधुनिक किसी भी धर्म के समाज में जब स्त्रियाँ खुलेपन की विशेष पक्षधर हो रही हैं,स्वावलम्बी एवम मर्यादा के प्रति जागरुक हो रहीं हैं,ऐसे नियम सामाजिक व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल हैं ही।
— कुछ बातें वाह्याडंबर के तहत आती हैं,और आज हर धर्म में निरर्थक हो गयी हैं।मानना या न मानना बौद्धिकता या अबौद्धिकता का मापदंड बनता जा रहा है।
—कुछ मान्यताएँ-सभी धर्मों केआलोच्य विषय के रूप में देखी जा रही हैं।हमने अपनी सनातन परंपराओं को नया आधार और आकार देना आरम्भ कर दिया है तर्कहीन विश्वासों परम्पराओं को हम सदा खँगालते रहने में विश्वास करते हैं।यह कहने में कोई हिचक नहीं कि हिन्दू धर्म देशकाल के अन्तर्गत सबसे अधिक परिवर्तनशील रहा।संभवहै इसके अन्दर परिस्थितियों की ग्राह्यता एवम् अनुकूलन की विशेष शक्ति रही हो।तभी तथाकथित त्रेता, सत्य ,द्वापर और आज कलियुग की मान्यताओं मे मेरी समझ के अनुसार भिन्नताएँ आ गयीं।हम आक्रामक शासनकालों में उनके प्रति भी अनुकूल होते गएऔर अपने धर्म का दामन भी नहीं छोड़ा।इस धर्म की विशिष्टताओं ने,उदारता ने सबके विशिष्ट तत्वों को जगह देना स्वीकार कर लिया। कट्टरपंथिता से विशिष्ट होकर उदारपंथिता उभरती गयी।
— आज सबसे अधिक विवाद—सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर गो हत्या, बीफ के खाद्य और अखाद्य को लेकर हो रहे हैं।अन्य धर्मों में उसका आहार कहीं भी धर्म के नाम पर प्रतिबंधित नहीं है।यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक संकट है।जिन्होंने इस प्रसंग को खड़ा किया वे नही समझना चाहते कि यह एक आत्मघाती कदम है।भैंसों ,गाय ,घोड़ों की बलि वैदिक युग में दी जाती थी।परन्तु गौओं की उपयोगिता सिद्ध होने पर यह विशेष रक्षणीय हो गयी।कामधेनु पुत्री नन्दिनी को लेकर महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र के मध्य छिड़ा घोर युद्ध उस युगकी उल्लेखनीय घटना मानी जाती है ओर श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप की संतानोत्पत्ति के लिए उसी नन्दिनी गाय की सेवा ,कृष्ण कागौ प्रेम भी कुछ ऐसे ही प्रसंग हैं जो गौ को पूज्य स्थान प्रदान करते है,उसे दैवी मान्यता देते हैं।ऐसे ओर भी कई प्रसंग हैं।पर ये प्रसंग भी इस ओर इंगित करते हैं किइन विशेष प्रसंगों के अतिरिक्त अन्य स्थितियों में खाद्य रूप में येउन युगों में भी स्वीकार्य थे।अगर अन्य धर्मों में भी ऐसा है तोआज इसकी उपयोगिता सिद्ध होने पर सभी उसे नैतिक रूप से अबध्य मानते हैं।पर, गायों की सन्तान जो बछड़े हैं, उनके विषय में क्या सोचा जाना चाहिए? पहले कृषि कार्य में सर्वत्र उनकी उपयोगिता थी ,वे बैलगाड़ियों में जोते जाते थे। आज विकास के दौर में ट्रैकटरआदि कृषियंत्रों और अन्य चौपहिया मशीनी वाहनों ने उनका स्थान लेना शुरू कर दिया है; उनकी उपयोगिता भी कम हो गयी है।हाँ गरीब कृषकों के लिए वे अब भी उनके जीवनाधार हैं।
— इस विषय में –तर्कसंगत विचारों के अभाव में-नित्य इस गोवध की आड़ में कुछ कट्टरपंथियों और कुछ नकली गोरक्षकों के द्वारा संघर्ष छेड़े जाररहे हैं और घसीटे जा रहे हैं वे दलितभी जिनका जीवनाधार ही पशु चर्म था।मृत गायों का इनके द्वारा चर्म निकालना भी इन्हें धर्म- प्रतिकूल दिखता हैतो आज जीवन रक्षा के लिए नेत्र ,हृदय दान आदि समाज हित कार्य में ये कैसे अपनी भागीदारी निभा सकते हैं!यह मात्र एक राजनीतिक आत्मघाती स्थिति हो सकती है।वृद्ध गायों की शरणस्थली में नित्य सेवा के पश्चात् भीजब वे मृत्यु को प्राप्त होंगी तो क्या होना चाहिए –यह भी सुनिश्चित करना अनिवार्य है।
— धर्म को लेकर चलने वाले प्रसंग में संभवतः पर्याप्त विषयान्तर केपश्चात मूल विषय पर लौटते हुए आज के इस प्रसंग को उस मूल भाव से जोड़कर देखा जाना चाहिएजो दया क्षमा अहिंसाआदि के द्वारा प्रत्येक धर्म को एक दूसरे से जोड़ते हैं।जितने भी विवादित विषय हैं वे या तो साम्राज्य स्थापित करने,विस्तारित करने,जाति धर्म उत्थान के नाम पर शोषण करने जैसी अपवित्र ,अनैतिक भावनाओं के इर्द गिर्द घूमते हैं।
—हिन्दुस्तान के कुछ अन्य धर्म जो जनजीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं उनमे एक है जैन धर्म जिसके आदि संस्थापक ऋषभदेव एवं अंतिम माने जानेवाले चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर माने जाते हैं।इस धर्म के वैदिक काल से भी प्राचीन होने का विद्वत्जन प्रमाण देते है। सत्य अहिंसा अस्तेय ब्रह्मचर्य ओर –अपरिग्रह इन मूल ऩेतिक सामाजिक मूल्यों के साथ यह धर्म वेदिक जीवन प्रणाली के ही समकक्ष है।वैदिकआध्यात्मिक विचारधारा से भिन्नता इतनी ही है कि वह ब्रह्माण्ड कोसर्वोपरि मानते हुए उसका अचल अस्तित्व स्वीकार करता है। उसका किसी धर्म से कोई विरोध नहीं। अहिंसा की पराकाष्ठा केतहत किसी को मानसिक कष्ट पहुँचाने को भी वह हिंसा ही मानता है। दशलक्षणअथवा पर्युषण पर्व मे आत्म शुद्धि का प्रयत्नकरने का विधान है। उपवास,तप,इन्द्रिय संयम आदि प्रक्रियाओं का अवलंबन लेने का विधान है।कियेगएअपराधों कोस्वीकार करभी मन को शुद्ध किया जाता है।ये सारी बातें मानवता से अत्यधिक जुड़ी हैं ।महात्मा गाँधी इस धर्म से अत्यधिक प्रभावित थे और अपने जीवन में इन्हीं मूलभूत सिद्धान्तों का अवलंबन भी किया था।
— सिख धर्म तो हिन्दू धर्म में व्याप्त असमानताएँ ओर तथाकथित कुरीतियों अंधविश्वासों आदि केऩिवारण हेतु हीप्रथम गुरु नानकदेव द्वारा प्रवर्तित हुआ था।मूर्ति पूजा का विरोध,ब्राह्मणवाद, अवतार वाद,पैगम्बरवाद का विरोध इसकी पृथक विशेषताएँ हैं अवश्य,किन्तु वे भी परमात्मा को घटघटवासी मानते है।वेएकेश्वरवादी हैंऔर निरंकार अकाल ऊँकार को ही ईश्वर मानते हैं।किसी धर्म के मूल भाव से इस सिद्धान्त का विरोध तो हो ही नहीं सकता। नामदेव परमानन्ददास,,संत रेदास और कबीरकी वाणियों का संग्रह उनकी पोथियों में है यह इस बात को संकेतित करता हैकि धर्म के मूल में तत्कालीन जनजीवन का चिंतन ही था।
बोद्ध धर्म जो ब्राह्मणवाद के विरोध में उत्पन्नहुआ और जिसने जीवन मे दुख की सतत् उपस्थिति,उसके कारण की स्थिति एवं निवारणार्थ तरह तरह के यम नियम संयमादि सत्य अहिसा आदि आचरणों पर बल दिया, लौकिकता से काफी विमुखता और बाद में तंत्रमंत्रादि प्रयोगों के कारण भारत के बहुत बड़े वर्गों के द्वारा अंगीकृत नहीं हो सका पर समानता जनितविचारों और दलित उद्धारक विचारों के कारण भारतीय समाज मे पुनः अपना स्थान बना ही रहा है। किसी भी धर्म के बहुत अन्दर तक नहीं जाकर अगर उसके मानवोपयोगी व्यावहारिक पक्षको देखते हैं तो कोई भी धर्म मानवता का विरोध करता प्रतीत नहीं होता।वे मनुष्य कॆ लिए जो कर्म निर्धारित करते हैं ,वेसब एक समान ही हैं। हिन्दु समाज का उदारवादी मानस इन सब का विरोध कर ही नहीं सकता।
–तब फिर?—
–आवश्यकता इस बात की हैकि सभी धर्मों के विश्वासों का धर्मावलम्बी स्वयं विश्लेषण करें।आधुनिक संदर्भों में उसकी समीक्षा करें।रूढ़िवादिता का परित्याग कर समयानुसार उसमें सुधार करेंअन्यथा धर्म भी जमे हुए जल की तरह बदबूदार होने लगेगा।आज धर्म से सम्बन्धित विवादोंने जितने विवादों और परिणाम स्वरूप आतंकों को जन्म दिया है वे इन्हीं विश्वासोंको सार्वकालिक और सार्वदेशिक मान लेने के परिणाम हैं।किसी भी धर्म का व्यावहारिक पक्ष देश और काल से जुड़ा होता है। उसी में होनेवाले परिवर्तनों के साथधर्म के व्यावहारिक पक्ष भी बदलने चाहिए,तभी उसमें ताजगी भी रहेगीअन्यथा वह वाह्याडंबर का स्वरूप ग्रहण करने लगेगा।अतः उन्हें अपने अन्दर ही सुधारों की आवश्यकता महसूस होनी चाहिए।
— हिन्दू धर्म धार्मिक विद्वत्जनों द्वारा सुधारों को प्रश्रय देता हुआ व्यावहारिक पक्षों में परिवर्तनशील और उदार बनता गयापरिणामतःउसमेंगहरा स्थायित्व हैओर दूसरों को सहन करने की क्षमता है।.कट्टरवादिता जब इस पक्ष पर प्रहार करती हैतो स्वयं धर्म की ही हानि होती है।देश के सर्व धर्म समभाव जैसे लोकताँत्रिक धर्म निरपेक्ष छवि की हानि तो होती ही है। ऐसा कुछ अनिष्टकर न हो इसके लिए कौन और किस तरह प्रवृत्त होयह एक महत्प्रश्न है औरइसके लिए गम्भीरता से सोचना होगा।
–हाँ, यह कार्य युवा पीढ़ी ही करेगी। उनमें स्वस्थ बदलाव के प्रति आग्रह होता है। युवा पीढ़ी और आनेवाली पीढ़ियों को इसके लिए शिक्षित और प्रेरित करना होगा।सभी धर्मों के मूलभूतसिदधान्तों से उन्हें अवगत कराना होगा।मानवतावादी सभी तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित कराना होगा।यह कार्य सर्व धर्म समभाव को शिक्षा से जोड़ने से ही संभव होगा ।सभी धर्मों को समझने की कोशिश और उनमे एकरूपता खोजने का प्रयत्न शिक्षा जगत को ही करना होगा। एकमात्र यही समाधान है।—–

आशा सहाय—5-9-2016—।

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