चंद लहरें
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उतर आईहै
साँझ बेरौनक—
श्रृगारहीन,
–
घिरगये हैं मेघ
ढँक गया आँगन
स्याह परछाइयोंओं से,
सुबह की रौनक
दुपहरिया का ताप
छूट गया सब
पीछे, पीछे, पीछे।
–
थक गयी ज्यों हवा,
निस्सीम मरु में
चलते,भटकते।
–
घिसटता है मन
बस चूल्हे तक
पकते हुए भात की भाप से
जगती है भूख बेमन,
नहीं कुछ रहा अब शेष
बस एक अकड़ा सा तन।
आशा सहाय 14—9—2015–।
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