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स्थितियाँ टुकड़े टुकड़े में

चंद लहरें
चंद लहरें
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जैसे जैसे चुनाव समीप आता जा रहा है ,विपक्ष धीरे धीरे मुद्दाविहीनता में फँसता जा रहा है। परिणामतः अन्दर का आक्रोश बाहर आ रहा है। नग्नता अमर्यादित होती जा रही है।नेताओं का वह व्यक्तित्व भी उभर रहा है जिसे बड़े नाटकीय ढंग से उन्होंने छिपा रखा था।एक दूसरे पर कीचड़ उछालना तो आम बात है  अशोभन शब्दों का व्यवहार करने से भी नहीं चूक रहे।सत्ता पक्ष की हर उपलब्धि पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जा रहे हैं। इस बात से बेपरवा कि इससे देश की अन्तर्राष्ट्रीय छवि भी प्रभावित हो रही है।फारुख अब्दुल्ला ,महबूबा मुफ्ती और लोन जैसे नेताओं ने खुलकर पाकिस्तान प्रेम प्रगट करना आरंभ किया है , चुनावी जंग जीतने की यह उनकी चाल है पर वर्तमान स्थितियों में उससे देशद्रोह की गंध आती है।

आयकर विभाग के छापों से विपक्ष परेशान है। कुमारस्वामी ने इसे रियल सर्जिकल स्ट्राइक की संज्ञा दी है नेताओं के अनुसार चुनाव के समय यह नेताओं को परेशान करने के इरादे से डाले जाते हैं। वस्तुतः यह आंशिक सत्य तो है हीपर सत्तापक्ष के प्रति विपक्ष की एकजुट लड़ाई भी तो यहीं से शुरु हुई थी। वास्तविक तिलमिलाहट का कारण भी यही है।

वर्तमान स्थितियों में महा गठबंधन में सिद्धांतों को ताक पर रखफैसले लिए जा रहे हैं।केजरीवाल जो सिद्धांतों से काँग्रेस के धुर विरोधी रहे, मोदी के विरोध में उसीसे हाथ मिलाने को व्यग्र हो रहे हैं।यह हताशा की चरम सीमा प्रदर्शित कर रही है। झूठे सच्चे, मनगढ़ंत आरोपों प्रत्यारोपों की भागीदारी करना चाह रही है।वस्तुतः केजरीवाल की छवि अब एक ऐसे जिद्दी व्यक्ति की हो रही जो दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए सारे तर्कों को ताक पर रख देना चाहता है। यह ठीक है कि दिल्ली की स्थिति उसकी स्वतंत्रता के मार्ग में बाधक है पर इसके लिये उसकी केन्द्रीय स्थिति जिम्मेदार है। केजरीवाल को यह स्थिति  असह्य प्रतीत होती है। मोदी का विरोध उसे कन्हैया और वैसे अन्य अराजक व्यक्तित्वों  कोभी समर्थन देने को प्रवृत्त करता हैजो देश को कभी तोड़ने जैसी बातें भी किया करते थे।यह अलग बात है कि गठबंधन की स्थिति नहीं आ रही है।

मोदी का विजय मंत्र विकास मंत्र है किन्तु विपक्ष उन्हें आर्थिक अव्यवस्था,रोजगार विहीनता,कृषक समस्या और प्रशासकीय  अव्यवस्था जैसी स्थितियों को दिखाना चाह रहा है, जो अत्यन्त पुरानी हैऔर हल किए जाने के मोड़ पर आ पहुँची हैं।किन्तु ये मुद्दे अब ऐसे सशक्त नहीं रह गये हैं कि वह अधिक समय तक इसे ही पकड़ कर रह सके,वह अचानक उत्पन्न हुए पुलवामा अटैक और बालाकोट स्ट्राईक जैसे मुद्दों को पकड़ उनकी प्रामाणिकता जैसे मुद्दों में उलझ जनता का ध्यान उनकी अविश्वसनीयता की ओर आकृष्ट करना चाहता है।अपनी सम्पूर्ण शक्ति मोदी को मिथ्यावादी सिद्ध करने में लगाना चाह रहा है।किन्तु सामान्य जनता अब घटनाओं प्रति विश्वास खोना नहीं चाहती।विपक्ष की सारी योजनाएँ इन मोर्चो् पर विफल होती जा रही हैं।चौकीदार शब्द की प्रतिक्रिया में ‘मै भी चौकीदार  ‘ ने एक नया रूप धारण कर लिया है।विपक्ष की आलोचना की यह प्रतिक्रिया भी प्रतिकूल जाती प्रतीत हो रही है।

पाकिस्तान के कथनों का समर्थन सिर्फ कश्मीरी नेता ही नहीं, करीब करीब सम्पूर्ण विपक्ष कर रहा हैऔर पुलवामा अटैक और बालाकोट स्ट्राईक जैसी धटनाओं को झूठा साबित करने मेंउसका साथ दे रहाहै। पाकिस्तान कहीं दोहरी राजनीति कर भारतीय विपक्ष का भी साथ देता प्रतीत होता है ,साथ ही आतंकी कैम्पों के नष्ट हो जाने पर अप्रसन्न होने का उसे कोई कारण नजर नहीं आता क्योंकि ये आतंकी पाकिस्तान के विकास में बाधक ही हैं और वह स्वयं इन कैंपों को नष्ट भी नहीं कर सकता। अगर नहीं नष्ट हों तो वे कश्मीर को प्राप्त करने के साधन बन सकते हैं। उसके दोनों हाथों में लड्डू ही हैं।

भगोड़े विजय माल्या, नीरव मोदी आदि को भागने की छूट देने के आरोपों में कोई दम प्रतीत नहीं होता ।वे कानून की पकड़ में आ रहे हैं।उनकी सम्पत्ति जब्त हो रही है।

अब वे आपस में ही उलझ रहे प्रतीत हो रहे हैं।ममता बनर्जी को पहले भीकाँग्रेस का नेतृत्व महागठबंधन के लिए स्वीकार नहीं था ,प्रतिक्रिया स्वरूप राहुल गाँधी के द्वारा उनकी शासन व्यवस्था की तुलना प्र धान मंत्री मोदी से किए जाने पर ममता बनर्जी ने स्पष्ट ही राहुल गाँधी को एक बच्चे ,a kid  की संज्ञा से अभिहित कर राजनीति में उनकी अपरिपक्वता की ओर इशारा कर  दिया। एन सी पी ने भी इस टिप्पणी में उनका साथ दिया।

काग्रेस की राजनीति में प्रियंका गाँधी का प्रवेश और प्रगट रूप से भाई का बहन पर अत्यधिक भरोसा व्यक्त करना उनकी अपनी कमजोरी को भी प्रकांरांतर से प्रगट कर देता है।उर्मिला मातोंडकर ने भारतीय राजनीति में कदम रखते ही जिस प्रकार असहिष्णुता का राग अलापना शुरु किया वह तोते की सिखी सिखायी हुई रट सी प्रतीत हुई।ऐसे व्यक्तित्व से विवेकपूर्ण विचारों की अधिक आशा नहीं हो सकती। किन्तु यह धारणा सभी कलाकारों के सम्बन्ध में नही बनायी जा सकती।

शत्रुघ्न सिन्हा अपनेलिए व्यव्हृत बिहारी बाबू सम्बोधन और विशिष्ट अंदाज के कारण  जनप्रिय रहे पर उनकी नीतियाँ विपक्ष की भूमिका के अधिक करीब रहीं। वह इसलिए नहीं कि सत्तारूढ़ दल के सिद्धांत उन्हें नागवार प्रतीत होते हैं ,बल्कि इसलिए कि उन्होंने जिस पद सम्मान की इच्छा की थी, वह उन्हें नहीं मिला।संभवतः शत्रुघ्न सिन्हा ने सही किया और अगर वे पुनः पटना साहिब से विजयी होते हैं तो अपनी लोकप्रियता सिद्ध कर दे सकेंगे।

तात्पर्य यह कि जुड़ते बिखरते दलों का यह गठबंधन निराशा हताशा ,अपमान बोध और स्वार्थ सिद्धि न होने के कारण ही राजनीति पटल पर उभर रहा है ।उसने जिन मुद्दों को पकड़ रखा है ,वस्तुतः वे अतीत के मुद्दे हैं। अपने मतभेदों के कारण  यह अभी से बिखरा भी दीखता है। मुद्दों का शक्तिशाली न होना उसकी सबसे बड़ी समस्या है।

किन्तु यह ढीला ढाला गठबंधन भी ,और टुकड़े टुकड़े की कगार पर आकर भी कुछ ऐसा हासिल कर ले सकता है जो सत्तारूढ़ दल की निश्चिंतता पर हावी हो जाय। जनदृष्टि से यह क्या कम है कि उनमें एक जागरुकता आयी है।,  उन सिद्धांतों और क्रियाकलापों   से एक प्रच्छन्न भय के प्रतिक्रियास्वरूप अगर भ्रष्टता का त्याग करजनता के कल्याण की बात तहेदिल से सोच सके,जिसकी समस्याओं को बार बार उठाकर वर्तमान सरकार को अपदस्थ करना चाहते हैं, तो यह वर्तमान नेतृत्व की उपलब्धि ही कही जाएगी।मरा मरा कहकर अगर राम राम जप लिया जा सकता है तो विपक्ष अगरराष्ट्रहित की बात सोच कुछ और आगे बढ् जाने की सोचे और उसे क्रियान्वित भी कर डाले तो यह एक अच्छी बात होगी।

गरीबों के लिए बेसिक इनकम की योजना 12 हजार से कम मासिक आमदनी वालों को 12 हजार पूरे कर देने का लोकलुभावन वादा एक ऐसी ही योजना के तहत किया जाना ऐसा ही प्रयत्न है। विश्व में यह कोई नयी योजना नहीं बहुत सारे देशों में आर्थिक समानता लाने के उद्येश्य से ऐसी योजना सशर्त लागू की गयी है, जैसे बच्चों को स्कूल भेजना अथवा सामुदायिक विकास कार्यों में हिस्सा लेना आदि।यह एक जटिल प्रक्रियाहै और सत्य ही चाँद लाकर देने जैसा है जैसा कि नीति आयोग ने कहा।किन्तु यह सद्विचार भी जनता को अकर्मण्य बनानेके लिये काफी होगा और सर्वप्रथम तो जनता इसे अविश्वास की दृष्टि से ही देखेगी।

धर्मनिरपेक्षता की रट लगा कर हिन्दु धर्म और संस्कृति की अवहेलना करनेवाले दल आज मंदिरों और मस्जिदों में नतमस्तक हो रहे हैं। अगर धर्म और विभिन्न भारतीय संस्कृतियों के लिए सम्मान इस प्रकार भी पैदा हो सके तोभारत के भविष्य की एक सुन्दर कल्पना ही होगी।

मन में उठती हुई शंका तो यह है कि मोदी के विरुद्ध यह अभियान अगर किसी सार्थक मुकाम तक पहुँचता है तो कहना कठिन है कि इस देश के लिए कितना लाभप्रद होगा।जनता को कितना और किस क्षेत्र में सुकून दे सकेगा।किन योजनाओं को जानबूझकर ताक पर रख दिया जाएगा ।

अगर पुनः त्रिशंकु सरकार बनती है जैसा कुछ विचारकों का मत है,तो स्थिति अत्यंत भयप्रद होगी । देश मिनिमम प्रोग्राम के झूले मे झूलता रहेगा।अभी अभी जागरुक हुई जनता कहीं उस मनःस्थिति में न चली जाए–कोउ नृप होंहिं हमें का हानी ।

हम आशान्वित हों कि ऐसा न हो।

 

आशा सहाय 1–4–2019

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