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हे महाकाल,
हे निराकार, साकार पुनः
तेरे ही डमरू की डम-डम
तेरे ही चरणों का नर्तन
भंगिमा सघन तेरे भ्रू की,
ब्रह्माण्ड झूमता ताल-ताल
हो तुम अकाल।
–
हे विषपायी,
सम्पूर्ण चराचर का विष पीकर,
हो तुम अदग्ध,
है वशीकृत सब कामव्याल
साकार आराधना कर तेरी
योगी मन प्राप्त करे जीवन
दृष्टि जीवन के आर-पार।
–
तुम काल रूप
तुम कालजयी
तुम कालों के भी महाकाल!
तेरे शरणों में विश्व सकल
वेदनामुक्त
मेटे त्रिकाल के त्रिविध ताप
–
हे शिव भोले !
भोले-भाले मन के भोले—
थोड़ा जल,
ओ,कुछ विल्वपत्र,
वन पुष्प और वनपुष्पमाल,
हर लेते भव के ज्वाल-जाल।
–
हे कामारि-!
कर जीवमात्र को पूर्णकाम
तुम पूर्णकाम।.
ज्योत्स्ना चंद्र की अमिय धार
छल-छल गंगा का स्नेह अपार
शीतलता से पावन करता,
हर लेता सारा मनःताप
जीवन के काल यान के भी
क्षण-क्षण के संचालक तुम ही
हेतुम त्रिनेत्र-!
–
तुमसे ही उदित तुममें ही लय
ब्रम्हाण्ड सकल के आदि अन्त
तुम हो अनन्त।
तुम शिव हो
तुम्ही सनातन हो
तुम आदि अगम अनादि भी
है ध्यान परम कठिन तेरा
पर हे भोले !
भोले मन से
भोले मन का
पुनः पुनः प्रणाम।
आशा सहाय—05—03–2016
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