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भारतीय सभ्यता के सुदूर इतिहास वैदिक काल मे जाति का विशिष्ट परिचय वर्ण-भेद के नाम से जाना जाता रहा है।वर्ण यानि रंग रूप,वाह्य स्रंरचना आदि।दो प्रकार के रंग रूप वाले अस्तित्व में थे।काले-द्रविड़ियन और नाग समूह के लोगऔर गोरे आर्यन समूह के लोग जो भूमि और गौ की खोज में संभवतः ईसा पूर्व 1700 में यहाँ आएऔर यहाँ की पूरी तरह विकसित खेती बारी करती मोहनजोदड़ो और हड़प्पन सभ्यताओं को नष्ट करते हुए इन काले व्यक्तियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपना अनुगत भी बनाया।उनके साथ रक्त सम्बन्धभी स्थापित किये।
सामाजिक व्यवस्था में कार्यजनित सहभागिता के आधार पर उन्होंने चार वर्णों की स्थापना की—ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र।
अपने विशिष्ट गुणों के आधार पर,शिक्षक वर्ग,यज्ञादि काअनुष्ठान कराने वाले पुजारी वर्ग,और ऐसी आदेशात्मक प्रवृतियों से युक्त व्यक्ति ब्राह्मण श्रेणी में आते थे। ठीक उसी प्रकार राजन्य वर्ग,युद्धक प्रवृति के ,सैन्य वर्ग केव्यक्ति क्षत्रिय वर्ग में,और इसी प्रकार कृषि,व्यवसायी,व्यापारी और शिल्पी वर्ग के व्यक्ति वैश्य वर्ग मे गिने जाते थे।और इन तीन वर्गों की सेवा मेंरहने वाले शूद्र वर्ण के लोग माने जाते थे।धीरे धीरे यह वर्ण व्यवस्था रंग पर आधारित नहीं होकर विभिन्न कारणों से यथा कर्म और व्यवसाय की विविधता पर आधारित बहुत सारी जातियों में विभक्त हो गयी। अब ये जातियाँ जन्म पर आधारित हो गयीं ।वर्ण अभी भी चार ही थे।पर,इन सबसे भिन्न कुछ जातियाँ अस्पृश्य मानी जाने लगी जो सामाजिक मानदंडों के अनुसार घृणित कार्य करती थीं,निम्न स्तर की सेवाएँ उच्चवर्ग के लोगों को प्रदान करते थे। समाज के भीतर इनका स्थान नहीं था,वे हमेशा ही दलित थे और महात्मा गाँधी ने इन्हे ही हरिजन कहकर सम्बोधित किया था।
ब्राह्मण अभी भी प्रधान थे। वे,राजा द्वारा सम्मानित ,अदंडनीय,ज्ञानी,ब्रह्मज्ञानी श्राप देने में सक्षम माने जाते थे।वैदिक ज्ञान पर उनका एकाधिकार था।अन्य जातियों केलिए वेदाभ्यास भी वर्जित था। अपने मर्यादित जीवन से जरा भी भटकने पर उन्हें दंडित भी अधिक किया जाता था।
क्षत्रियों की विशिष्टता उनकी युद्धप्रियता में थी।उनका खान पान राजसी होता था और उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य युद्ध और युद्ध में वीरगति पाना होता था।यह उनकी सर्वश्रेष्ठ परिणति भी होती थी।
वैश्यों का आरंभिक स्वरूप वाणिज्य व्यवसाय और शिल्प कौशल से अवश्य जुड़ा था पर धीरेधीरे ये सामाजिक आर्थिक विकास की रीढ़ बन गए।ये समृब्ध वर्ग थे।अपनी व्यापारशैली और कौशल के द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति का प्रचार भारत से इतर देशों में विशेषकर दक्षिणी पूर्वी एशिया में किया।गुप्त साम्राज्य का प्रवर्तन भारत में इनके शक्तिशाली होने का सशक्त प्रमाण भी है।यह एक प्रतिष्ठित श्रेणी थी और है भी।देश की अर्थवय़स्था के लिए ये हमेशा से जिम्मेवार रही।
सबसे बड़ी समस्या ब्राह्मणों के वर्चस्व की थी जिन्होंने सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की सामान्य अशिक्षित लोगों के लिए अपने मनोनुकूल व्याख्याएँ कर दी और उनके स्वतंत्र चिंतन और तद्जनित विकास मेंबाधा उत्पन्न कर दी। किन्तु कुछ कालोपरांत बौदध काल में बहुत बड़ा परिवर्तन आया।
–बौद्ध धर्म में वैदिक जाति और वर्ण व्यवस्था का घोर विरोध हुआ। गौतम बुद्ध ने नयी सामाजिक परंपराएँ और प्रजातंत्रीय मानकों की स्थापना कर ब्राह्मणों या यों कहें कि उच्च त्रिवर्णों के वर्चस्व का विरोध किया और शूद्रों को उपर उठाने की पूरी कोशिश की।
गौतम बुद्ध ने इस जाति व्यवस्था की जड़ें तो हिला ही दीं,ब्राह्मणों को सही दिशा देने का भी प्रयत्न किया।अंधविश्वासों से मुक्ति,विश्व अथवा ब्रह्मांड की चमत्कारिक उत्पत्ति की जगह उसमें कार्य कारण सम्बन्ध एवं विकासवाद की अवधारणा का सम्बोध दिया।सामाजिक विचारों मेंक्रान्ति के तहत जन्म और जातिगत महानता पर प्रहार किए। योग्यता की परख जन्म से नहीं गुणों और ज्ञान से होनी चाहिए ,इस पर बल दिया।यह आरम्भ था,दलित रिनेसाँ का,जागरण का।
पर,उन्हें घोर विरोध का भी सामना करना पड़ा। ब्राह्मणवाद का विरोध करना इतना आसान भी नहीं था। बौद्ध काल के पश्चात् वैदिक मान्यताएँ पुनः शक्ति पाने लगीं और शूद्र पुनः कुचले जाने लगे।
मध्य युग मेंजाति व्यवस्था का यह स्वरूप अधिक विस्तारित हो गया।हिन्दु धर्म के साथसाथ जातिभेद को नकारनेवाला मुस्लिम समाज भी इसका शिकार हो गया।उच्च जातियों के साथ निम्न जातियाँ भी अस्तित्व में आईं। कुछ अत्यन्त निम्न कोटि की जातियाँ भी मानी गईं जो सामाजिक अवहेलना की शिकार हुईं।अछूत जैसी सामाजिक भावना इनमे भी घर कर गई थी।1901 की जनगणना के पश्चात् डॉक्टर अम्बेदकर ने इस बात को स्वीकारा था।हिन्दुओं की तरह मुस्लिम भी जातिवादिता के शिकार थे।
नट, मिरासी,जुलाहा दरजी, धोबी तो थे ही भंगियों का अस्तित्व देखा गया।उत्तर प्रदेश और पंजाब में इनका बाहुल्य था। मुगल काल में यह जाति भेद और तद्जनित असहिष्णुता अपने चरम पर थी।पीठ पर झाड़ू बाँधकरचलने को विवश करना और आभिजात्य वर्ग का घंटियाँ बजाकर चलना ,आदमी का आदमी के प्रति घृणा का भाव और तथाकथित निम्न जातियों को उनके उन्नयन से रोकने का प्रयत्न चरम तक पहुँच चुका था।
प्राचीन भारत में तब भी यह प्रथा सांस्कृतिक और सहभागिता के सिद्धांत पर आधारित थी किन्तु अब, यह सामाजिक संघर्ष का रूप लेने लगी थी।
दक्षिण भारत में वैदिक आध्यात्मिक सिदधान्तों की पुनर्स्थापना और पुनर्मूल्यांकन के लिए जिन चार सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ उनमें श्री सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखनेवाले श्री रामानन्द के रामानन्दी सम्प्रदाय ने एक बार फिर सामाजिक समरसता स्थापित करने की कोशिश की।महाकवि कबीर इन्ही रामानन्द केशिष्य थे जिन्होंने अपनी अक्खड़ शैली मे सामाजिक विषमता पर जोरदार प्रहार किया था।
‘।एक बूँद एकै मल मूतर,एक चाँम एक गूदा।
एक जोति से सब उतपनाँ, कौन बाम्हण कौन सूदा।‘
“संतन जात नपूछो निगुनियाँ।
साध बाह्मन साध छतरी,साधै जाति बनियाँ।
साधनमाँ छत्तीस कौम है,टेढ़ी तोर पुछनियाँ
साधै नार साधै धोबी,साधै जाति है बरिया।
साधनमाँ रैदास सन्त है,सुपुत्र ऋषि सो भंगियाँ।
हिन्दु तुर्क दुई दीन बने हैं कछु नही पहचनियाँ।।“ कबीर—हजारी प्रसाद।
मध्य काल की यह एक जबर्दस्त उपलब्धि थी।परइन उपदेशों का जनसाधारण पर विशेष असर नहीं था कमोवेश इन्ही स्थितियों मेंउलझते हुए देश को अंग्रेजों का सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता पूर्व की स्थितियाँ इस दिशा में कोई उत्साहवर्धक नहीं थी।
जमीन्दारी प्रथा ने कम शोषण नहीं किया था ।सारी पिछड़ी जातियाँ शोषित वर्ग की हिस्सा हो गई थीं।स्वतंत्रता पूर्व की ब्रिटिश विशेषज्ञों की जनगणना के अनुसार ब्राह्मणों का वर्चस्व बढ़ा हुआ था।ऊँचे ऊँचे पदों पर अधिकांशतः वे ही पदस्थापित थे। यह स्थिति उन्नीसवीं सदी के अन्त तक रही।उन्होंने कुछ भला नहीं किया।उनके द्वारा की गई जनगणना मे लोगों ने उच्चतर जातियों मे सम्मिलित होने की होड़ पैदा कर दी ताकि वे अच्छी नौकरियाँ प्राप्त कर सकें।उन्होने ऊँची और नीची जातियों के मध्य की खाई और चौड़ी कर दी,साथ ही उनमें वैमनस्य की भावना भी भर दी।
कालक्रम से दक्षिण भारत में ब्राह्मणों का वर्चस्व समाप्त हो रहा था पर उत्तर भारत में उनका प्रतिशत अधिक था,वे स्वतंत्रता आन्दोलन में अधिक से अधिक हिस्सा भी ले रहे थे,अतः उन्हें वर्चस्व भी प्राप्त था।अब मुख्यतःसंघर्ष ब्राहमण और ब्राह्मणेतरजातियों ,औरपुनःअगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच था।अब जातियों के नये समीकरण राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए होने लगे । इसी स्थिति ने आज तक की सारी समस्याएँ पैदा की ।
स्वतंत्रता पूर्व केगाँधी जी के नेतृत्व मेचले सामाजिक सुधारों और रचनात्मक कार्यक्रमों से सम्बन्धित आन्दोलनों ने इस दिशा में समाज को झकझोरने का कार्य किया।अछूतोद्धार उनका प्रमुख और प्रिय कार्यक्रम था, सामाजिक समानता के तहत उठाए गए इस कदम से चाहे अथवा अनचाहे समस्त बौद्धिक वर्ग को सहमत होना पड़ा। और अन्ततःस्वतंत्रता पश्चात् भीमराव अम्बेदकर केनेतृत्व में बने भारतीय संविधान ने समाज से अस्पृश्यता को समाप्त कर उन्हे समानता का अधिकार दे दिया। यह देश की बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
सबसे बड़ी समस्या,आज जाति के नाम परआरक्षण की नीति ने पैदा की।संविधान निर्माताओं ने जो अवधि निर्धारित की थी उसकी अवहेलना कर,विभिन्न जातियों के उत्थान के नाम परआरक्षण के नये कोटे निर्धारित करना,समय सीमा को बढ़ाते जाना देश के सम्यक विकास के साथ खिलवाड़ करने के समान है। इस नीति के कारण पिछड़ी दलित जातियों का उत्थान राजनीति का बड़ मुद्दा बनता गया।कालांतर में इन पिछड़ी, दलित जातियों को वोट बैंक के रूप मे विभिन्न पार्टियोने इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया।सच पूछिए तो समस्या का आरम्भ भी यहीं से होता है।
दलितों केउत्थान के लिए प्रयासरत होना ,उस हेतु विभिन्न पार्टियों द्वारा आकर्षक कार्यक्रम बनाना जँचता है परजातिवादिता के नाम पर उच्चजाति और निम्न जाति का विभाजन करपक्षपात प्रदर्शित करना देश के विकास के लिए अत्यंत घातक है।एक ब्राह्मण उम्मीदवार का यह उम्मीद करना कि सम्पूर्ण ब्राह्मण मत उसे ही मिलें ,ठीक उसी प्रकार,एक दलित द्वारा अथवा दूसरी जातियों द्वारा भी ऐसी ही आशा करना,तात्कालिक नहीं भी हो,पर दूरगामी निकृष्ट कोटि के परिणाम अवश्य ही देंसकते हैं। और इसी आधार पर वास्तविक मत गणना के पूर्व ही संभाव्य मतों की गिनती कर निश्चिन्त होजाना देश की एकता के लिए कितनेप्रकार के संकट उत्पन्न करसकते हैं,,हम शायद इसकी कल्पना भी नही कर सकते।
अस्पृश्यता को समाप्त कर भारतीय संविधान ने सबको आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक समानता का अधिकार दिया है, फिर इस सामाजिक समानता को तोड़ कर मात्र राजनीतिक हथकंडों के रूप में विभिन्न जातियों का उपयोग करना सर्वथा अनुचित है।जितना दोष उपर्युक्त लाभ के लिए उनका उपयोग करनेवाले दलों का होता है उतना ही दोष उपयोग में आने वाली जनता का भी होता है। यह अभ्यास भारत के पहले मतदान की प्रक्रिया से ही चला आ रहा है,परिणामतःय़ोग्य व्यक्तियों के निर्वाचित होने पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है।
जातिवादिता एक समस्या से अधिक सामाजिक अपराध है।इसे भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अबतक समाप्त हो जाना चाहिए था,पर लगता हैराजनेताओं ने इसे चुनाव की सशक्त अन्तर्धारा के रूप में सुरक्षित रखना चाहा है।
निस्संदेह यह विचारणीय है किपिछड़ी और दलित जातियों के उत्थान केलिए ठोस और साहसिक कदम उठाने तो चाहिए पर वह देशमें प्रतिभाओं का हनन करनेवला भी नहीं होना चाहिए
जीवन की तमाम आवश्यक सुविधाएँ उन्हें प्रदान करें पर चुनाव का घटिया हथियार न बनाएँ।
आज की स्थितियों मेंजातिवादी दृष्टिकोण वाले घोर अतिवादी समुदायों,राज्यों की अतिवादिता के विरुद्ध क्रान्तिकारी कदमों की आवश्यकता है। हमें यह भुला देना चाहिए कि देश मे कितनी जातियाँ हैं और जातियों में कितने लोग।हम एक वैश्विक विचारधारा वाले युग में साँसें ले रहे हैं,जहाँ विभिन्न जातियों कीअपेक्षा मानव और मानवेतर जीवों की गणना होनी चाहिए।
हमारे देश मेशिक्षा का प्रतिशतऔर स्तर दोनो मे तीव्र गति से वृद्धि हो रही है प्रबुदधवर्ग विस्तार पा रहा है। निम्न वर्ग के लोग भी अटपटी भाषा में ही सही,पर,बातें समझने और समझाने लगे हैं ऐसी स्थिति में उनहें बहलाना अब अधिक दिनों तक संभव नहीं होगा।इन जातियों को अब सामाजिक और आर्थिक विशिष्ट पहचान भी मिल चुकी है,जिसे हम पिछड़ा वर्ग कहते हैं,वेभी सम्पूर्ण रूप से पिछड़े नहीं हैं ,सामाजिक और आर्थिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़कर एक सम्मान जनक मुकामें भी हासिल की है।उन्हें पिछड़ा कहना उनका अपमान करना होगा।
आवश्यकता इस बात कीहै कि हम अब आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या पर पूर्ण ध्यान दें।आर्थिक पिछड़ेपन सेउन्हें ही क्यों, हर जाति को निकालने की पूरी कोशिश होनी चाहिए ।पर, पिछड़ी जातियोंको इस स्थिति से उबारने के लिए उन्हें भरपूर अवसर प्रदान करना चाहिए। यह अवसर उन्हें दान ,और अनुदान केरूप मे नहीं बल्कि जीवन प्रतियोगिता में हिस्सा लेने केविविध अवसरों केमाध्यम से मिलना चाहिए ताकि वे मानसिक रूप से भी साथ-साथ विकसित हो सकें और समाज के सुदृढ़ स्तम्भ बन सकें। अभिशप्त जातिवादितासे मुक्ति आज की सामाजिक एवं राजनीतिक आवश्यकता है,हमइसेकदापि विस्मृत न करें ,यह समय की भी आवश्यकता है।
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