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आरक्षण 10%!

चंद लहरें
चंद लहरें
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अति संवेदनशील मुद्दा आरक्षण देश की राजनीति का अभिन्न स्तम्भ बना हुआ है जिसके चतुर्दिक सारी राजनीतिक पार्टियाँ घूमती हैं और जिसमें दिनानुदिन वृद्धि हो सकती है, किन्तु जिसे छेड़कर अनुपयोगी सिद्ध करने का साहस किसी पार्टी में नहीं।अबतक देश की आधी जनसंख्या इसकी छत्रच्छाया में अपने को सुरक्षित और विशेषाधिकार से युक्त समझती आयी है ,उसमें अपने विकास की दिशा तलाशती है, तथा सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्त होने की कोशिश में संलग्न है।यद्यपि स्पष्ट ही विकास की यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण सीढ़ी नहीं हैऔर इसका सदैव गलत उपयोग भी होता रहा।  विद्वेष की भावना इसके कारण जन्म लेती रहीऔर समानता और समरसता स्थापित करने के उद्येश्य से दिये गये आरक्षण के प्रावधान सेही असमानता जनित भेद भाव जन्म लेता रहा ।वर्गभेद, जातिभेद, अगड़े पिछड़े की राजनीति में देश का पूरा जनसमुदाय फँसता रहा। बौद्धिक वर्ग ने इसकी कभी वकालत नहीं की।बुद्धि सदैव इसके कुपरिणामों को आईने की तरह स्पष्ट देखती रही , हाँ अम्बेदकर द्वारा निर्देशित दस वर्षों तक के आरक्षण से विरोध  इसने नहीं किया । यह तर्क सम्मत भी था।पर, राजनीतिक कुचालों में यह भी फँस कर रह गयी।आरक्षित वर्ग वोट बैंक बन गये और सत्ता प्राप्त करने की लालसा ने इसे छेड़ने की तो नही, विभिन्न प्रकार से इसे बहलाने, फुसलाने और संवर्धित करने की ही कोशिश करती रही।

यह सर्वविदित है कि अबतक दिये गये आरक्षण देश की  कार्यकुशलता और बौद्धिक क्षमता को आहत करने वाले ही सिद्ध होतेरहे हैं क्योंकि उनका आधार जाति रहा। परिणामतः प्रतियोगितात्मक चयन व्यवस्था की जरूरत नहीं समझी गयी   । देश के ऐसे क्षेत्र जहाँ प्रतियोगिता के आधार पर कार्यक्षमता और बुद्धिक्षमता काआकलन होना चाहिए,आरक्षण उसमें एक बाधा अवश्य डालता है। सबसे बड़ी समस्या तो उस असन्तोष से उत्पन्न होती है,जब उसके कारण तथाकथित अगड़े उपेक्षित हो जाते रहे हैं।, देश से पलायन करते हैं,और उन्हें सर्वाधिक प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है।आर्थिक रूप से सक्षम सवर्ण तो तब भी ऐसा कदम उठाने में सक्षम होते हैं पर आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए वह रास्ता भी खुला नहीं होता।देश वैश्विक होता जा रहा है ,अतः बाहर जाना, बसना,नौकरी करना अपराध नहीं ,पर ये सुविधाएँ सभी गैर सम्पन्न लोगों को मिले, तब तो।

प्रश्न फिर भी उठता है आरक्षण के औचित्य पर। लगता है आज की इन स्थितियों में, आरक्षण रुपी बला से सम्पूर्ण  रूप से पीछा नहीं छुड़ा सकने की परिस्थिति में इसे ही समानता का अस्त्र बना लेना ही एकमात्र उपाय है।यानि कि अवश्य ही कुछ लोगों को गरीबी केआधार पर  संस्थाओं में प्रवेश मिलना चाहिए, जबकि समृद्ध लोगों को अपनी समृद्ध  संसाधनों से स्वयं आगे बढ़ते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए।यह नियम अगड़े पिछड़े कही जाने वाली  सभी जातियों पर लागू होनी चाहिए।अभी तक अगड़ों का कोई वर्ग आरक्षण की क्षत्रच्छाया में नहीं आया था। अगड़े या सवर्णों में बौद्धिक क्षमता की कमी नहीं,  और मात्र थोड़ी सी सहायता से वे अपनी पूर्ण क्षमता की ऊँचाई तक भी पहुँच सकते हैं पर अर्थाभाव की समस्या उन्हें अच्छे संस्थानों मे प्रवेश करने से रोक  देती है।परिणामतः उनके लिए नौकरियों  में पहुँच  की कमी होती है।आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवश्यकता उन्हें इन्हीं स्थितियों से जूझने के लिए चाहिए।

मन हीइस स्थिति को पूरे देश ने ,समझा पर, पर जातीय भेद भाव ,जातीय ईर्ष्या एवं अपने अपने वोटबैंक को बनाए रखने की दृष्टि से किसी नेआगे बढ़ने का साहस नहीं किया।

अभी वर्तमान सरकार ने यह साहस भरा कदम उठाकर समरसता स्थापित करने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया है।यह बिल दोनो सदनों से पास होकर राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त कर चुका है। अब यह कानून रूप में सर्वप्रथम गुजरात में लागू हो चुका है।तात्पर्य यह कि राज्यों में प्रभावी  होने का सिलसिला आरम्भ हो चुका है।

समरसता स्थापित करने की  पवित्र चेष्टा हो अथवा नहीं,  चुनाव को दृष्टिपथ में रखकर किया गया ही महत्वपूर्ण प्रयास क्यों न हो, पर यह समरसता की दिशा मे स्वयमेव ही आगे बढ़ता कदम सिद्ध होगा।सर्वप्रथम तो इस वर्गविशेष को आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ मिलने पर अपने आप  एस टी, एस सी ,ओ बी सी आदि के साथ मनोमालिन्य की कमी होगी,ऐसी आशा की जाती है।

द्वितीयतः आर्थिक आधार पर किया गया यह आरक्षण आरक्षित अन्यवर्गों के आरक्षण पर प्रच्छन्न रूप से प्रभाव डालने में समर्थ होगा।अगरउस वर्ग के लोग सक्षम हो चुके हों, और गरीबी रेखा से पूर्णतः बाहर आ चुके हों,तो , आरक्षण कोटि की उनकी अनिवार्यता भी समाप्त हो सकती है ,जिसके लिये यह प्रेरक सिद्ध हो सकता है। यों भी पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण देते जाना बिना आर्थिक आधार के गलत है।सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण भी किसी न किसी तरह आर्थिक स्थिति पर निर्भर होना चाहिए। सामजिक उत्थान और आर्थिक उत्थान किसी न किसी तरह एक दूसरे से जुड़े सिद्ध होते हैं।

इस  देश की जाति वर्ण ,धर्म और भाषा सम्बन्धी विविधताओं को देखकर यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि उन सबका उन्नयन आरक्षण से नहीं बल्कि शिक्षा से सम्भव होगा , अतः प्रत्येक पिछडे समुदाय के लिए शिक्षा मे आरक्षण तो अभी देना ही होगा पर एक स्तर के बाद प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लेने की  उनके लिए अनिवार्यता होनी चाहिए ताकि अपनी आरक्षित स्थिति का वे गलत फायदा उठा कर देश और समाज को प्रतिभा से वंचित न कर सकें।

इस 10 प्रतिशतआरक्षण का विरोध भी होना ही है  कुछ बुद्धिजीवी इसे भविष्य में सम्भावित संघर्ष का जन्मदाता मान सकते हैं। आन्तरिक स्थीति के  अराजक होने का भय भी दिखा सकते हैं पर यह भी विरोध प्रदर्शन करने की चाल होगी और व्यर्थ ही एक विशेष वर्ग को गलत ढंग से सोचने को प्रेरित करना होगा।पर सभी धर्मों को मिले आर्थिक आधार पर10 प्रतिशत आरक्षण शायद     इस कल्पित भय को कम करने में समर्थ हो।

कुछ लोगों ने उच्चतम न्यायालय के द्वार खटखटाए हैं। स्वाभाविक रूप से लोग न्यायालय की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक होंगे। चाहे जो हो पर समरसता स्थापित करने की दिशा मेंयह एक सार्थक और महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा ,ऐसी आशा है।

 

आशा सहाय 15–1–2019

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