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बच्चे दबाव झेल रहे हैं।

चंद लहरें
चंद लहरें
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बच्चों की समस्याएँ जिनकी चर्चा आज की आवश्यकता है, नवीन वातावरण की उपज हैं ।वे सदा की भाँति मात्र पारिवारिक,और सामाजिक नहीं रहकर अधिकांश में मनोवैज्ञानिक हो चुकी हैं ।इसका कारण भी स्पष्ट है।  आज बच्चों पर दबाव बहुत है, और उन दबावों के परिणामस्वरूप बच्चे  अप्रत्याशित व्यवहार करते हैं जिन व्वहारों को हम परम्परागत तराजू पर तौल सही और गलत करार दिया करते हैं। वस्तुतः आज बच्चे विश्व के ऐसे वातावरण में जी रहे हैंजो प्रतियोगितात्मक है। जन्म से ही उनका लालन पालन इसी वातावरण में होता है जहाँ भावनाओं की सरलता कोई मायने नहीं रखती, जहाँ उनके भविष्य की चिंताएँ तरह तरह के व्यवहारों में जुड़ जाती हैं।यह सोचने की आवश्यकता विशेषकर मध्यवर्गीय महत्वाकाँक्षी  परिवारों के संदर्भ में पड़ती है जहाँ से निकले बच्चों के व्यवहारों पर हम प्रश्न चिह्न उठाया करते हैं।आज बच्चे कभी हत्याएँ करते हैं कभी आत्म हत्याएँ। दोनो ही स्थितियाँ प्रश्नचिह्न खड़ी करती हैं । इसके अतिरिक्त एक तीसरी स्थिति घर से पलायन की उत्पन्न होती है। ये सारी स्थितियाँ एक विशेष कारण की ओर संकेत करती हैं। बच्चे आज अत्यधिक दबाव तो झेल ही रहे हैं ,वे स्वयं भी हर ओर से परफेक्ट होना चाहते हैं। सम्पूर्णतः संतुष्ट।यह परफेक्शन या परिपूर्णता वे कई दृष्टियों से चाहते हैं।

स्वयं की दृष्टि से।

समाज की दृष्टि से।

माता पिता की दृष्टि से।

ये समस्याएँ विशेष कर किशोरावस्था से सम्बन्धित मानी जाती रही हैं पर आज के परिवेश मे बाल्यावस्था अथवा किशोर पूर्व की अवस्था भी इससे अछूती नहीं है।क्योंकि बच्चों के जन्म लेने के साथ ही हम उन्हें विश्व की प्रतियोगितात्मक स्थितियों के लिए तैयार करने की सोचने लगते हैं । ढाई तीन वर्ष की अवस्था में ही उन्हें प्री- स्कूल की  श्रेणी में रख स्कूल भेज देते हैं।वहाँ बच्चे सब कुछ सीखते तो हैं पर  माँ बाप, सगे सम्बन्धियों और आसपास के सामाजिक वातावरण के स्वाभाविक स्वरूप से वे दूर हो जाते हैं। साथ ही ये सारी सामाजिक,पारिवारिक इकाइयाँ उनसे परिष्कृत व्यवहारों और एक मानक शैक्षिक उपलब्धियों की उम्मीदें रखने लगती हैं।परिणामतः उनका बचपन  हँसने खेलने के मुक्त और चिन्तन हीन वातावरणसे दूर होने लगता है और वे मानसिक दबावों की पकड़ में आ जाते हैं।ये बच्चे , किशोर,  स्वयं मे श्रेष्ठता की तलाश करने लगते हैं।वे दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरने की चाहत मेंवे इन दबावों को झेलते हुए निरंतर स्वयं की आलोचना करते हुए अधिक से अधिक उपलब्ध करने मे कभी स्वयं अथवा कभी दूसरेपर अपनी हरकतों से दबाव बनाते हैं।मैं सबसे अच्छा हूँ, मै सबसे अच्छा कहा जाऊँ। लोग मुझमें कोई दोष नहीं निकाल सके।मैं जो सोचता हूँ वह सदैव सही है। मैं हर कुछ कर सकता हूँ। माता पिता को मुझसे निराश नहीं होना चाहिए,।मेरी कोई आलोचना नहीं करे,मैं स्मार्ट दिखूँ,आदि तरह तरह के अहं से वे घिर जाते हैं।

वे आधुनिक युग के परफेक्शनिज्म के बहाव मे यो बहते हैं कि शैक्षिक अथवा शिक्षकेतर उपलब्धियों में ही नही ,एथलेटिक्स जैसे शारीरिक शक्ति की सम्पूर्णता के प्रदर्शन के साथ-साथ अपने चेहरे के रंग रूप हाव भाव के प्रति भी सतर्क हो जाते हैं।आज वे इन्टरनेट पर अधिक से अधिक सक्रिय हैं। उनकी प्रस्तुतियों पर मिले ‘लाइक्स’ केप्रति भी वे कफी सजग हो रहे हैं।मीडिया से उन्हें अधिक से अधिक पहचान चाहिए।ये सारी बातें इस ओर इंगित करती हैंकि उनके मातापिता की उनसे की जानेवाली सर्वोत्कृष्टता की उम्मीदें उनके लिए सबसे अधिक मायने रखती हैं।इन उम्मीदों को वे इस उम्र में अच्छी तरह समझने लगते हैं ,जबकि सभी माता पिता उनके समक्ष अपनी इन उम्मीदों की हामी नहीं भरते।

कभी कभी माता पिता का यह कहना कि उनका भविष्य उनके ही हाथों में है, वे अपना अच्छा या बुरा स्वयं ही कर सकते हैं, यह सम्पूर्ण जिम्मेवारी उनकी ही है,उनकी खुद की जिम्मेवारियों से मुक्त हो जाना मात्र  सा लगता है ।यह बच्चों और किशोरों मे उस  जिम्मेदारी का एहसास कराने में असमर्थ  तो होता ही है साथ ही विपरीत प्रभाव भी डाल सकता है।यह बात बच्चों को लज्जित करती है।वे अपनी नाकामयाबियों के लिये स्वयं को अत्यधिक दोषी ठहराने लगते है जबकि हो सकता है कि अभीप्सित कामयाबी उनकी शक्ति सीमा से परे हो।एक कुंठा पलने लगती है उनके मन में जिसपर विजय पाने के लिए झूठ बोलने से लेकर अन्य अनुशासनहीन कार्यों में वे लिप्त हो जाते हैं।

कहना तो उन्हें यह चाहिए कि उनके बच्चों के मानसिक दबावों से वे परिचित हैं और हर तरह से उनकी मदद करने को उत्सुक भी हैं। बच्चों का यह अनुभव करना आवश्यक है कि माता पिता उनकी शक्तियों से परिचित हैं और वे उनके स्पष्ट मददगार भी हैं। पैरेन्ट्स को अपने कार्यों से भी यह सिद्ध करना आवश्यक है।

किन्तु ऐसा हो सकना एक कठिन कार्य है। विशेषकर भारत जैसे देश मेंजहाँ एकसे अधिक बच्चे हर घर में हो सकते हैं,बच्चों को एक समान समझ लेने की भूल हो ही जाती है जबकि यह धारणा बिलकुल ही भ्रमात्मक होती है।किन्तुउन्हें एक समान सुविधाएँ देकर एक समान व्यवहार करना माता पिता की विवशता बन जाती है।और कभी कभी कर्तव्य से छुटकारा पाने का एक तरीका भी।किन्तु यह अपर्याप्त होता हैक्योंकि एक ही पैरेन्ट केचार बच्चे चार तरह के हो सकते हैं।चार तरह की चारित्रिक संभावनाओं से युक्त।वे माँ बाप की चारित्रिक विशेषताओं के अलावा परिवार की पिछली पीढ़ियों की विशेषतांओं से भी युक्त हो सकते हैं।वंशानुगत विशेषताएँ भिन्न भिन्न भी हो सकती हैं।उन्हीं में से कोई उद्धत, कोईशान्त ,कोई अध्ययनशील  तो कोई खिलाड़ी प्रकृति का भीहो सकता है।इन विभिन्नताओं को समझे बिना उनके भविष्य का  कोई खाका हम बुन नहीं सकते,उनकी कोई मदद नहीं कर सकते।आज के जागरुक माता पिता यों तो इस दृष्टि से सतर्क प्रतीत होते हैं और शक्ति भर उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं का ध्यान रखते हैंपर गैर जागरुक लोगों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

उद्धतता को कम करना एक समस्या होतीहै।उन्हें सामाजिक परिवेश के अनुकूल बनाने के लिएउनकी उद्धतता को कम करने का प्रयास किया जा सकता हैअथवा उनके अनुकूल जीवन दिशाओं की बड़ी सावधानी से तलाश की जा सकती है।सबसे अधिक समस्या ऐसे बच्चों अथवा किशोरों के साथ ही उत्पन्न होती है।

— एक दूसरे तरह की परेशानी भारत की वर्गगत और जातिगत समस्याओं से जुड़ी है।यह उनकी सामाजिक स्वीकार्यता अथवा अस्वीकार्यता को जन्म देती है।समाज में तद्जनित समस्या की नींव अत्यधिक गहरी है और रह रहकर  बाल अथवा किशोरमन को चोट पहुँचाती है।लम्बी अवधि से चली आती इस मानसिकताका प्रभाव हर संस्था से जुड़े लोगों पर दीखती है।ये बातें तथाकथित निम्न तबके, दलित समुदाय आदि के सम्बन्ध में तो सच हैं ही पर गरीबी से युक्त किसी भी तबके के लोगों के लिए उतने ही सच है।अभी हाल में जिसकी चर्चाअखबारों में जोर शोर से हुई कि एक दलित वर्ग की छात्रा ने विद्यालय में परीक्षाशुल्क नहीं जमा कर सकने पर परीक्षा से वंचित कर दिये जाने के कारण आत्महत्या कर ली।यह कोई एक उदाहरण नहीं है ,ऐसी कई घटनाएँ होती हैं ,जो छात्र अथवा छात्राओं को आत्महत्या जैसे कदम उठाने को विवश कर देती हैं।बच्चे जब बहुत संवेदनशील होते हैं तो अपनी महत्वाकाँक्षा अथवा खुद से की गयीउम्मीदों, जो माता पिता परिवार और कुछ हद तक समाज से जुड़ी उम्मीदें भी होती है, उनको ध्वस्त होते नहीं देख सकते। उनकी स्वयं की परिपूर्णता की भावना आहत होती है परिणामतःअपने उपर पड़े हुए उपरोक्त सारी संस्थाओं के दबाव को नहीं झेल पाने के कारण ऐसा कदम उठाने को विवश होते हैं।

यह एक विरल तो नहीं पर एक आश्चर्यजनक घटना भी है क्योंकि  वर्तमान परिस्थितियों में दलितों पर किसी विद्यालय में ऐसे मानसिक दबाव बनाना गैरकानूनी होना चाहिए।यह घटना हमारे देश की उस मानसिकता का परिचायक है जो इस श्रेणी के छात्रों को समाज की मुख्यधारा में लाने को अब भी प्रयत्नशील नहीं।

पर विद्यालय अथवा महाविद्यालय के ऐसे व्यवहारों के शिकार सिर्फ इस कोटि के छात्र ही नहीं होते। सभी कोटि के छात्र कभी फीस नहीं भर पाने के कारण कभी बीमारी जैसी स्थितियों में बार बार छुट्टियाँ लेने के कारण   जब परीक्षा से वंचित कर दिये जाते हैं तो माँ बाप की अपेक्षाओं ,शिक्षकों की अपेक्षाओं तथा स्वयं की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सकने के मनोदंश की अतिशयता नहीं झेल पाने के कारण स्वयं को आत्महत्या का दंड दे देते हैं।

बाल्यावस्था और किशोरावस्था सदैव अपने को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करती है।उनमें नायकत्व की लालसा होती है।वे अपने हमउम्रो पर अपनी शक्ति का दबदबा भी बनाना चाहते हैं। वे हर कुछ करने मे सक्षम हैं ,यह भी वे जताना चाहते हैं।अभी विद्यालयों में अपने से छोटे उम्र के बच्चे की हत्या कर निश्चित रूप से विद्यालय में छुट्टी करा देने की योजना के पीछे इस मनोवैज्ञानिक कारण का सशक्त हाथ है।अपना नायकत्व सिद्ध करने और पैरेन्ट्स को अपनी कमियों से अवगत न होने देने के लिए वे ऐसे आपराधिक कार्य को अंजाम दे देते हैं। अपने से बड़ा बन जाने की ललक भी इसके पीछे है। वस्तुतः ये आज के दौर के स्वाभाविक मानसिक दबाव हैं जिन्हें झेलने और जिनसे मुक्ति पा लेने के लिए वे ऐसे कार्य कर डालते हैं। माता पिता को सदैव उन्हें आश्वस्त करते रहने की आवश्यकता होती है किवे अपने बच्चों की हर कमियो, विशेषताओं से परिचित हैं और उनकी हर स्थिति में सहायता  करने को प्रस्तुत हैं, वे किसी भी स्थिति में उनसे निराश नहीं हैं। वे उन्हें जीवन की दिशाएँ तलाशने में मददगार होंगे। और यह भी, कि जीवन अपने आदर्श मूल्यों के साथ हर स्थिति में जीने योग्य होता है।

आशा सहाय   -15—02—2018—।

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