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राष्ट्रस्वर को विरोधहीन करना होगा

चंद लहरें
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आज भी राष्ट्रवादी स्वर इस देश को उस सम्पूर्ण स्थिति में देखना चाहता है जिसमें वह स्वतंत्रता पूर्व था। उन सारे प्रयासों की निन्दा करना चाहता है, जिसने इसे दो भागों में विभक्त करने को विवश किया। यह विभाजन भी दोनों देशों को शान्ति नहीं दे सका, क्योंकि यह किसी के मनोनुकूल नहीं था और अपने साथ बहुत सारी स्वाभाविक समस्याओं को उत्पन्न करता रहा।

महात्मा गांंधी की स्वतंत्रता पूर्व की राजनीति में दृष्टि देश की सम्पूर्णता पर ही थी। बंंट जाने का डर, देश में पल रहे दो भिन्न संस्कृतियोंं का भावनात्मक मेल नहीं हो सकने का डर तो प्रमुख था ही, साथ ही गांंधी की अध्यात्मिक विचारधारा, भगवद्गीता का दर्शन, जीवमात्र में उस ब्रह्म की अवस्थिति आदि ने उन्हें ऐसी राह पर चलने को विवश किया था कि स्वतंत्रता संग्राम के हर संगीन मोड़ पर उन्होंने हिन्दुओं से अधिक मुस्लिमों को तरजीह दी। एक भय उनके अंदर प्रविष्ट था।  उस जाति की असुरक्षा का, वे शासक जाति बनकर रह चुके थे, हिन्दुओं के मन में संभावित पलते द्वेष और परिणाम स्वरूप संघर्ष का भय तो था ही, उस अहंकार के आहत होने की आशंका भी थी जो शासक जाति के रूप में उनके अस्तित्व के साथ जुड़ा था।

 

उन्होंने अपने रीति रिवाजों, संस्कार, पहनावे ओढ़ावे को थोपा था हिन्दुस्तान पर और गुलाम मानसिकता वाले इस देश ने उसे स्वीकार किया ही था। अब इस देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त होने के बाद उन्हें हिन्दू शासन के अधीन रहना कदापि गवारा नहीं था। अतः उन्होंने इस देश से एक पृथक राष्ट्र के निर्माण का संकल्प ले लिया था। एक होकर अंग्रेजी शासन से छुटकारा पाने और देश को अविभाजित बनाए रखने हेतु मुस्लिमों को प्राथमिकता देने की उनकी विवशता थी। दर्शन और राजनीति की यह विवशता काम नहीं आयी और देश विभाजन की बलि चढ़ गया। बंटवारे की रेखा खिंची तो नदियों, खेतों, घरबार का बंटवारा भी हो गया। यह एक अविवेकपूर्ण स्थिति थी। लोगों का आक्रोश भयंकर रूप से फूट पड़ा खून की नदियांं बहीं। भारत के इतिहास में विभाजन का यह पन्ना रक्त रंजित है। क्रूरता और भयंकरता की विश्व में एक मिसाल।

 

विभाजित भागों में हिन्दु मुस्लिम की बहुलता मात्र को देखा गया था, परिणामतः दोनों ही देशों में किंचित न्याय की आशा लेकर और अपनी जमीन न छोड़ सकने की भावना को लेकर पाकिस्तान में हिंदू और हिन्दुस्तान में मुसलमान रह ही गए। भावनात्मक और सैद्धान्तिक रूप से यह एक अच्छी बात थी पर सम्पूर्ण समस्या का समाधान नहीं हो सका। धीरे धीरे स्थिति बदली। भारत एक विशाल राष्ट्र होने के नाते बसने वाले मुसलमानों को हृदय से लगाने की कोशिश करता रहा उनके अधिकारों की रक्षा का प्रयत्न करता रहा किन्तु कभी कभी धार्मिक कट्टरता भी आड़े आती रही। पाकिस्तान में हिन्दुओं और अन्य इतर धर्मों के अधिकारों  के प्रति प्रशासन जिम्मेवार नहीं हुआ । अविश्वास और घृणा की नींव  पर खड़ा राष्ट्र और उसी सिद्धान्त पर खड़े उसके रहनुमा प्रशासक कभी भारत से एक न हो सके।

 

कश्मीर दोनों ही राष्ट्र के लिए विवादास्पद विषय बन गया। एक का मुस्लिम बहुलता का दावा और दूसरे का स्थान विशेष का भारत में सम्मिलित होने का अधिकारपत्र। उसे विशेष राज्य का दर्जा कैसे और क्यों दे दिया गया, आज यह सर्व विदित है और देश भर की चर्चा का विषय है। धारा 370 को हटा दिया गया। यह इतना सरल कार्य नहीं था इतने दीर्घ काल में कितने ही लोगों, पार्टियों ने उसकी स्थिति को कितने ही तरह से भुनाने का कार्य किया था। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकियों के द्वारा और देश के खुले विचारों का लाभ उठाकर, विचारों की अभिव्यक्ति की छूट का लाभ उठाकर अलगाववादियों का एक सशक्त वर्ग विकसित हो गया था, जो कश्मीरी जनता के विचारों को प्रदूषित करता रहा। कुछ दबाव से, कुछ अशिक्षा से, कुछ धार्मिक उन्माद पैदा कर ऐसा करने में वे सफल भी होते गये।

 

देश के अन्य भाग की विचारधारा से  वे सामंजस्य नहीं बिठा पाए। भूभाग के कुछ विशेष हिस्सों में, पाकिस्तान प्रभावित कश्मीरी विचार धारा के प्रति विरोध होते हुए भी पूरी तरह वे समाप्त नहीं हो सकते थे। वे उनके विचारों का हिस्सा बनते गये थे। ऐसे में धारा 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर देने को उनके स्वाभिमान को चोट पहुंंचाने की तरह देखने और दिखाने का प्रयास किया जाना एक स्वाभाविक स्थिति थी।इन अवांछित स्थितियों से बचने के लिए विद्रोह के हिंसात्मक स्वरूप से बचने के लिए पाबंदियांं लगायी गयीं। नेताओं की एहतियातन गिरफ्तारी अथवा नजरबंदी की गयी। इन स्थियों ने विरोधी दलों को मुखर होने का अवसर दे दिया। प्रश्न यह उठता है कि इस तरह की नीति कितनी कारगर हो सकती है। क्या इससे उनके मन में पलने वाले विरोध की अग्नि बुझ जाएगी? ‘खून की नदियांं बहेंगी’ जैसे वक्तव्य का रक्तरंजित आक्रोश समाप्त हो जाएगा ? जब व्यक्ति का बड़ा स्वार्थ आहत होता है तो वह अधिक खूंंखार हो जाता है।

 

आवश्यकता तत्काल तो इनके विरोधी और उकसाने वाले प्रयत्नों को लगाम देने की थी पर अब आवश्यकता तो ऐसे सीधी भारतीय राजनीति से जुड़े नेताओं के विचार परिवर्तित करने एवं एक हद तक उनके व्यक्तिगत हितों का संरक्षण करने की है। अथवा देशद्रोह-अपराध के तहत न्याय प्रक्रिया के अन्दर लाने की है। अभिव्यक्ति का अधिकार देशद्रोही अभिव्यक्ति की अनुमति कदापि नहीं देता। हो सकता है मेरा यह दृष्टिकोण अप्रौढ़ चिन्तन का परिणाम हो पर शान्ति स्थापित करने की कोशिश की गति धीमी और दृढ़ निश्चयात्मिकता से युक्त होनी चाहिए।

 

धारा 370 संभवतः देश के कुछ दलों को या कुछ प्रमुख व्यक्तियों को अब भी सही प्रतीत होता हो। इस बहाने पाकिस्तान से उन्हें समर्थन और पोषण भी मिलता हो अतः वे भी उसके हटाए जाने के विरोध में मुखर हो गये। अब जब यह धारा हटा दी गयी है वे अपने वक्तव्यों को सही दिशा देने मे असमर्थ हो रहे हैं। वोट की राजनीति उन्हें मोदी विरोध अथवा केन्द्र सरकार के विरोध से आगे बढ़ने नहीं दे रही। सरकार के प्रत्येक कार्य का विरोध के नाम पर विरोध करना ही उन्होने अपना कर्तव्य निश्चित कर रखा है। इस बात से बेफिक्र कि उनकी बातों को कश्मीर मामले से सम्बद्ध देश अपना अस्त्र भी बना सकता है।

 

मात्र विरोध के लिए विरोध देशहित पर भारी भी पड़ सकता है, इसकी उन्हें चिन्ता नहीं और ऐसे सारे विपक्षी दलों का ऐसी संवेदनशील स्थिति में कश्मीर जाने का प्रयास करना उनके  एक स्वाभाविक सोच का परिणाम था। उन्हें लौटाने के बदले अगर जाने दिया जाता इस अनुरोध के साथ कि बड़ी मुश्किल से स्थापित की गयी शान्ति वे भंग करने की कोशिश न करें तो शायद  सही होता। निश्चय ही सरकार के वर्तमान कदम की आलोचना ही उनका उद्येश्य रहा होगा पर उनके उत्तरदायित्व के अभिज्ञान के लिये उन्हें विश्वास में लेने की भी आवश्यकता है। यह एहसास पैदा करना कि इतनी शीघ्रता से वहांं की स्थिति सामान्य नहीं हो सकती। इस बात का ज्ञान उन्हें भी है। संभावित अशान्ति का उत्तरदायित्व लेने को वे प्रस्तुत हों तो कश्मीर उनके देश का हिस्सा है। प्रवेश उनके लिए वर्जित नहीं हो सकता, आवश्यक होता। संभवतः यह उनके विरोधी स्वर को कम करने मे सहायक होता।

 

वस्तुतः यह स्पष्ट करना ही होगा कि धारा 370 को हटाया जाना मात्र मोदी, भाजपा अथवा केन्द्र सरकार की उपलब्धि नहीं बल्कि देश के सम्पूर्ण  मनोबल की उपलब्धि है। एक शक्तिशाली राष्ट्र में राष्ट्र स्वर को देशहित में विरोधहीन होना ही चाहिए।

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