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सीमा लांघती हुई मर्यादा

चंद लहरें
चंद लहरें
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चुनाव की प्रक्रियाएँ अब समाप्ति की ओर बढ़ रही हैं मतदाता अपना कार्य कर रहे हैं किन्तु अभी भी अनिच्छुक मतदाता मताधिकार का प्रयोग करने की कोशिश नहीं कर रहे। मतदाताओं की अपनी परेशानियाँ हैं। कहीं तो भीषणगर्मी  ,कहीं पैदल जाने की विवशता तो कही घंटों पंक्ति में खड़े रहने की अनिच्छा।इसके साथ ही महिलाओं के गृह काज की अनिवार्यता ।कुछ पढ़े लिखे लोगों ने तो आजतक मतदाता सूची में नाम चढ़वाने की जहमत ही नहीं मोल ली।जागरुकता अभी भी इस देश में लंगड़ी सी है। इस महत्वपूर्ण कार्य से जुड़ें तो तब जब इससे कोई अविलम्ब लाभ हो। क्या लाभ?आराम से घर में रहना है, जिसे जीतना होगा, वह जीतेगा ही ।व्यक्ति व्यक्ति के मतों का व्यावहारिक महत्व उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।दूसरी ओर जागरुक लोगों के द्वारा वृद्धों औौर विकलांगों को भी पकड़ कर मतदान केन्द्रों तक लाकर  अपनी पार्टी के पक्ष मे वोट दिला दिया जाना व्यक्ति के महत्व को द्विगुणित कर प्रदर्शित करता है।

स्पष्ट ही जिस राष्ट्रीय महापर्व के लिए पूरे राष्ट्र मे शोर और हंगामा मचता रहा उसके प्रति सम्पूर्ण कर्तव्यबोध की अभी भी बहुत कमी है।यह उदासीनता आई कहाँ से -यह सोचने का विषय है। स्वच्छ मतदान न होने की अबतक चली आयी परम्परा भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। पिछले कई चुनावों मे बूथ कैपचरिंग अथवा देर से पहुँचे मतदाताओं के बदले किसीअन्य का वोट दे देना, हंगामे का डर ,पहले से भयभीत कर दिया जाना आदि  भी कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं ,अ्न्यथा पूरे देश में मतदान साठ से सत्तर प्रतिशत में क्यों झूलता रहा।बाकी के स्पष्ट तीस प्रतिशत लोग कहाँ गये?कुछ लोग अपने मतदाता क्षेत्र से बाहर भी रहते हैं। कुछ विदेशों में भी।ऐसे लोग भी समय पर मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते।इनके विषय में भी अगर चुनाव आयोग कुछ सटीक व्यवस्था कर पाए तो प्रतिशत में कुछ वृद्धि अवश्य हो।

ये सारी बातें तो मतदान हो जाने के बात दीखती हैं।पर चुनावपूर्व की सम्पूर्ण आबो हवा को देखकर ऐसा महसूस होता रहा कि देश के लोकतंत्र की गरिमा खोती चली जा रही है। प्रचारों में मर्यादाहीनता का तांडव स्पष्ट दीख रहा। कहीं मोदी विरोध, कहीं महागठबंधन विरोध तो कहीं गठबन्धन विरोध। सिद्धांतो की लड़ाई तो कहीं दिखाई नहीं पड़ी । ऐसा लगा कि व्यक्ति व्यक्ति के आपसी रिश्तों में लड़ाई हो और उसने राजनीति को अपनी ढाल बना ली हो। गरीबों की बात करना, किसानों और नौजवानों की बात करना कुछ नेताओं के मुख से तो सम्पूर्ण ढकोसला सा लगा, उसमे आत्मचिंता ही सर्वत्र दिखायी पड़ी।  सर्वत्र एक होड़ सी दिखायी पड़ रहीहै।चुनाव में होड़ तो अवश्यंभावी है पर नेताओंने इस होड़ में अपनी महत्वाकाँक्षाओं  को ही प्रकारांतर से मुखर किया। जनता की आकाँक्षाओं को अपनी तरह से ही अतः उन्होंने परिभाषित किया। खूब सुनहले स्वप्न दिखाए गये।और एक दूसरे को खूब गालियाँ दी गयीं। प्रचार का गिरता हुआ स्तर इस देश के लोकतंत्र की गरिमा को किस तरह नष्ट कर रहा है,प्रस्तुत चुनाव प्रचार उसका जीता जागता उदाहरण बना।

चुनाव लोकसभा केलिए है। मत जनता के द्वारा प्रगट किए जानेहैं। अंतिम प्रक्रिया मतदान की है प्रचार तो एक तैयारी मात्र है जिसमे हर पार्टी ,हर उम्मीदवार  जनता के साथ संवाद स्थापित कर अपनी उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालता है , अन्य प्रत्याशियों  की नाकामियों की ओर इंगित करता है।इसमे व्यक्तिगत क्रोध के लिए तो अवकाश ही नहीं होना चाहिए।पर अभी जो दीख रहा है उसमें व्यक्तिगत आक्रोश झलक रहा है। गाली गलौज ,थप्पड़ मारने जैसी बातें घोर निराशा को अभिव्यक्त करती हैं। भाषा की शालीनता ताक पर रख दी गयी है।पार्टी चाहे जो हो , माता पिता और उन सबों के अतीत को उभारकर जो आक्रोश पैदा करने की चेष्टा की जा रही है वह हर पार्टी के निज के लिए भी हानिकर है,उसकी चारित्रिक छवि को भी हानि पहुँचा रहा है। अब जनता जागरुक हो चुकी है, वह ऐसी बातों को मर्यादाहीनता की श्रेणी में रखती है।जो घटनाएँ घटित हो चुकीं, चाहे वे देश के लोकप्रिय नेताओं के कारण ही क्यों न घटित हुई । काल का लम्बा अन्तराल आ चुका है।उन धटनाओंऔर नीतियों  का प्रतिफल अवश्य हम भुगतते हैं और उसे सुधारने के लिए नये सिरे से प्रयत्न करते हैं स्थितियों को अनुकूल बनाने की कोशिश करते हैं, यह हमारा आज का कर्म होता है। पर बीती उन घटनाओं को बार बार याद दिलाकर सिर्फ आक्रोश और वैमनस्य का माहौल ही पैदा होता है, समस्या का समाधान नहीं मिलता। हाँ, जनता का एक वर्ग उनसे परिचित अवश्य होता है, उसमें जागरुकता आती है।

हर घटना के पीछे कार्य कारण सम्बन्ध होता है।स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात की मानसिकता ,साथ ही बँटवारे की विभीषिका ने मन में जो भय की स्थिति पैदा कर दी थी उसनेअप्रत्यक्ष रूप से कश्मीर समस्या को जन्म दिया।नेहरू  राजनीतिज्ञ तो थे पर उनमें उस दृढ़ मनोबल की कमी थी जो कश्मीर सम्बन्धी अचानक आई समस्या के सही ढंग से हल करने के लिए आवश्यक था। उनके उद्येश्य  पर शक नहीं किया जा सकता था।आज स्थिति भिन्न है।भारत का केन्द्र अभी सशक्त है  अतः अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को विश्वास में लेकर वह सशक्त कदम उठा सकता है ,भूल सुधार की कोशिश भी कर सकता है।तात्पर्य यह कि हर अतीत की स्थितियों में बिना ठीक से झाँके दोषारोपण करना उचित नहीं।किन्तु कभी कभी अतीत किसी ऐसी भयावह धटना का स्मरण करा देता है, जिसे रोका जा सकता था,और जाबूझकर नहीं रोका गया तो उद्येश्य की अपवित्रता के कारण वह अपराध की श्रेणी में आ सकता है। प्रचार के दौरान ऐसी धटनाओं की ओर इं गित करना स्वाभाविक होता है।फिर भी मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

पर प्रचार के माध्यम से हम घटनाओं का सच कम और झूठ अधिक परोसते हैं परिणातः जनता दिग्भ्रमित भी होती है।अतीत केमाध्यम से वर्तमान को गाली देना कहाँ तक उचित है, विवेक दृष्टि से देखने पर इसे  सहज ही समझा जा सकता है।इसपर रोक कौन लगाए।अभी चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तत्सम्बन्धित भूमिका बढ़ गयी है।चुनाव आयोग भी जागरुक हो चुका है उसे पवनपुत्र की तरह अपनी शक्तियों का एहसास हो गया है जो नेताओं पर ऐसे मर्यादाहीन प्रचारों को रोकने के लिए उनके प्रचारों पर एक निश्चित अवधि का बैन लगा दे रहा है। अभी तक तो निष्पक्षता ही दीखती है पर विपक्ष ने आरम्भ से ही इसे कट घरेमें खड़ा किया है।ई वी एम और वी वी पैट की विश्वसनीयता का प्रश्न उठाकर इसकी विश्वसनीयता पर शंका व्यक्त की है। मीडिया प्रचारों में प्रत्यक्ष  हिस्सा ले रही है।  स्थितियों को अपने अनुकूल प्रस्तुत करने में वह भी असंयमित हो निष्पक्षता खो बैठी है।  मुद्दा विहीनता में चुनावों का इतना लम्बा खिंच जाना भी गाली गलौज के भरपूर अवसर दे रहा है। चुनाव का यह स्वरूप लोकतंत्र के आंतरिक भद्देपन को प्रदर्शित करता है जहाँ नेताओं की जंगली प्रवृतियँ अपने नग्न स्वरूप में उजागर हो रही हैं। इतने बड़े लोकतंत्र में जो  विश्व मे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में लगा है, सीमा खोती हुई यह मर्यादाहीनता  निकृष्टता की किस कोटि में ला खड़ा करेगा ,कहा नहीं जा सकता।

 

आशा सहाय

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