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भय तो जीवन के साथ है

चंद लहरें
चंद लहरें
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चेहरे पर मास्क, हाथों में ग्लव्ज साथ में सैनिटाइजर की शीशी और कदम कदम पर दो गज की दूरी को मापती हुई दृष्टि- जो सभ्य सतर्क जागरुकता की पहचान बनी हुई है, वस्तुतः उस भय का इजहार करती है जो आज विश्व भर में फैले एक वायरस जन्य  रोग कोरोना ने पैदा कर दिया है। न अपने हाथों पर विश्वास, न अपने मुख, नाक और आँखों पर। न हवा पर, न मिट्टी पर, न बाजार की वस्तुओं पर, न दुकान और दुकानदारों पर। घर में प्रवेश करता हर व्यक्ति संदेह के घेरे में। न जाने कौन सा व्यक्ति, वस्तु संक्रमण युक्त है, न जाने किसका स्पर्श अनजाने ही हमारेजीवन के लिए चुनौती बन जाए।

 

 

 

एक अत्यधिक भयावह भावना ,जिसने मस्तिष्क को यों जकड़ रखा है कि  उसके अतिरिक्त सारी बातें ,सारे कार्यकलाप गौण  हो गये हैं । अप्रत्यक्ष रूप से सभी इस मनोरोग के शिकार  हो चुके हैं।मनोरोग कहना इसलिए भी सार्थक सा लगता है  क्योंकि बहुत दिनों से इतने लम्बे काल तक चलनेवाली इस भय की स्थिति की जकड़न को  लोगों ने महसूस नहीं किया था।  और आज इससे छूटना भी इतना आसान नहीं। अचानक प्रत्यक्ष हुआ यह भय   मनुष्य के मन की वह भावना है जो उसके साथ उसके सभ्यता के आदिम स्वरूप  के समय से ही जुड़ी है।  साथ ही जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त उसके साथ पलती रही है। संभवतः तप ,साधना और योग के द्वारा महापुरुषों, योगियों ने इससे छुटकारा पा लिया हो ,अन्यथा मानव जीवन, सभ्यता के विकास का इतिहास भी कारण रूप में पलते इससी भय का इतिहास है।

 

 

 

 

विश्व के विकास क्रम के संघर्ष क मूल का यह आदिम अध्याय है।जंगली जीवन और प्राकृतिक आपदाओं से बचे रहने रहने का भय डंगली जीव जन्तुओं का भय, भोजन नहीं प्राप्त कर सकने का भय , उनकेी सुरक्षा का भय आदि ।दैविक दैहिक भौतिक , आधिदैविक आधिभौतिक भीतियाँ  संघर्ष और प्रार्थनाओं की ओर उन्मुख करती रहीं।कभी इन्द्र की प्रार्थना , कभी अग्नि की  तो कभी अश्विनीकुमारों की , कभी वरुण की तो कभी उषःकाल की।समस्त वैदिक साहित्य इन प्रार्थनाओं से भरा पड़ा है।  तब कोई देव अथवा यों कहें कि अतीन्द्रिय शक्तियों से युक्त ज्ञानी जन उनकी प्रार्थनाओं,स्तुतियों का फल उन्हें प्दान कपते थे, श्लोकों की रचना इसी भयनिवारण हेतु ही होती थी। पर इसकी भी सीमा थी।

 

 

 

भय ने रचनात्कता का ओर प्रवृत्त किया। नुकीले पत्थरों से भाले,तीर धनुष तलवार और अब आज के युद्धक अस्त्र- शस्त्र। विकास क गाड़ी  रचनात्मकता पर ही आश्रित है। आदिम , भय साक्षी रहा है इसका। युद्ध तब भी होते थे। कबीलों ,गोठों के अन्दरऔर बाहर। मनुष्य की एक दूसरे पर विजय पाने केलिए।सिद्धान्तों के लिए भूमि के लिए , धर्म के लिए, छोटी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए।वस्तुतः ये संघर्ष अस्तित्व की रक्षा हेतु होते थे। अस्तित्व  के लिए कमजोरों पर विजय पाना आवश्यक था। अस्तित्व रक्षा का भय  मनुष्यों में सदैव रहा किन्तु उसके लिए पराक्रम प्रदर्शन का अवसर उसने कभी नहीं त्यागा। आरम्भ से ही मानव प्रकृति मे दो शक्तियाँ हावी रही हैं ।दैवी और आसुरी। ये दोनों प्रवृतियाँ सदैव एक दूसरे से भयभीत रहीं।अपनी अपनी सुरक्षा के लिए सदैव युद्ध करती रहीं,परिणामतः जय अथवा पराजय को गले लगाती रहीं।

 

 

 

 

वस्तुतः भय ही सभ्यता के विकासक्रम का जनक रहा है।भयातिरेक  के आगे नव निर्माण और नव अन्वेषण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।जीवन में भय का अभाव जीवन के आवेग को कम कर उसे शिथिल बना सकता है। नये समाज का जन्म ,नयी सभ्यताओं का उदय इस भयजन्य विवशता के परिणाम हो सकते हैं। भय से रक्षा करने की प्रवृति तत्पश्चात विकास।मनुष्यमात्र की रक्षा करने की सामूहिक प्रवृति ने विश्व स्तर पर बीमारियों से लड़ाईयाँ की। सामान्य मृत्यु दर पर विजय पायी । हर प्राकृतिक मानवकृत रोगों की काट ढूँढ़ी । अपने अपने ढंग े औषध विज्ञान का विकास किया। भले ही अन्य प्राकृतिक प्रकोपों पर यथा भूकम्प , बाढ़ आदि से जूझना उसकी नियति हो पर चिकित्सा विज्ञान मेंउसके प्रयत्न सफल होते रहे हैं।

 

 

 

 

हमने बदलते युगों की जीवनशैलियों की बदलाव के विषय में जाना ही है। हर युग एक गम्भीर हादसे के बाद ही बदला है, उसके पौरातात्विक प्रमाण उपलब्ध होते ही रहे है।  हर युग के पश्चात मानव जाति के लिए एक सकारात्मक नयी सभ्यता सामने आती है।पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि नई तरह की चुनौतियाँ भय का सृजन नहीं करतीं। मानव ने अब अपनी चतुर्दिक की उच्चतम  कल्पनाओ कोसाकार करने के लिए मानो प्राचीन देवों का स्थान ग्रहण कर लिया है। सारी ऊँचाईयाँ उसके पैरों तले या उसकी मुट्ठी में हैं।जिस प्रकृति ने उसे इतना भयभीत किया था ,उसपर विजय प्राप्त करने हेतु युद्ध करते हुए  उन ऊँचाईयों को छूते जाने का प्रयत्न वह  लगातार करता ही जा रहा है कि अप्रत्याशित रूप से प्रकृति ने एक छोटी सी बाधा उत्पन्न कर पुनः जीवन के लिए ही भयभीत कर दिया ।

 

 

 

 

यह कोरोना के नये स्वरूप का नयाअवतार है जिसने पूरे विश्व को बुरी तरह झकझोर दिया । मृत्यु का ऐसा तांडव किया इसने कि प्रत्येक व्यक्ति को लगा कि कोरोना मृत्युदंड लिए उसके घर के दरवाजे पर ही खड़ा है।  भय से पुनः सम्पूर्ण रूप से आक्रांत मानव उसके साथ लड़ने को पूरी तरह से तत्पर हो गया। युद्ध जारी है। आज की स्थितियों ने मानव की पूरी जीवनशैली ही बदल दी है।एक नया चिंतन , नये प्रयोग ,स्वयमेव अंगीकृत नयी वर्जनाएँ। अगर यह सोच स्थायी हो गयी तो पूरा युग स्वयमेव बदल जाएगा।

 

 

 

 

तात्पर्य यह कि भय के अस्तित्व को जीवन से नकार नहीं सकते। यह विकास का बहुत बड़ा कारक तत्व है।वह सतत् है। उसका सातत्त्य ही विकास -रथ के पहिए की धुरी है।भय के पश्चात ही उसपर विजय प्राप्त करने की चेष्टाएँ कुछ नया  कर गुजरती हैं। कुछ नयी प्रैरणाएँ भी मिलती हैं जो मानव कल्याण से जुड़ी होती हैं।कोरोना ने कुछ ऐसा ही किया है। सोचने की पूरी दिशा एकाएक बदल गयी।अधिक से अधिक स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा हमें मिली। स्व नियंत्रण,मितव्ययिता, प्रकृति को न्यूनतम छेड़नेकी भावना ,आदि की भावना मानव सभ्यता के स्वर्णिम सामाजिक, प्राकृतिक जीवन में लौटने की प्रेरणा देता सा प्रतीत होता है।अपनी कुछ गलत आदतों को सुधार लेने का अवसर प्राप्त हुआ है । काश हम इस पर अमल कर सकें।स्व रोजगार , स्वावलम्बन आदि को अगर चीन भारत तनाव की प्रतिक्रिया के रूप में न देखें तो  शुद्ध प्राकृतिक जीवन की ओर बढ़ने के रूप में ईमानदार तरीके से इसे सहज स्लीकार कर सकते हैं।यह विकास का नया चरण होगा, नये चिन्तन के  साथ। यह ह्रास तो कदापि नहीं होगा। विश्व की आर्थिक प्रतियोगिता मे हम भले पीछे हो जाएँ किन्तु विश्व को मानव केन्द्रित बनाने में अवश्य सफल हो सकते हैं।

 

 

 

 

पर शायद हम मानव  की उन प्रतिक्रियाओं को अनदेखी कर रहे हैं जिसके तहत इस कोरोना भय से निबटने के लिए वैक्सीन तैयार करने की प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल करने में वह जुट गया है।मानव हार नहीं सकता। वह इस भय पर विजय प्राप्त कर ही लेगा। पर कबतक?क्या तोई दूसरा भय –किसी युद्ध का, किसी अन्य रोग का , किसी प्रिय के वियोग का, किसी भी कारण असुरक्षित हो जाने का , जरूरतों की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहनेवाली यह दुनिया क्या पुनः किसी भय का शिकार नहीं होगी?यह तो जीवन के साथ ही चलनेवाला है व्यक्तिगत स्तर हो या सामाजिक या कि राष्ट्रीय– ,विकास के इस जनक भय को हमें साथ ही लेकर चलनाहै।  हमें भय से सिकुड़ना नहीं वरन उसमे नई दिशा की तलाश करनी है।फिर फिर प्रलय से उबरना और नयी शैली की दुनिया रचनी है।भय को परास्त करने के लिए नयी जीवनशैली को नहीं अपनाना , पुरानी जीवनशैली मे ही जीते रहने की ज़िद करना  , भय के विकराल  कारणों को आमंत्रित करना होगा अतः भय को परास्त करने के लिये इसके द्वारा निर्देशित पथ पर चलना ही श्रेयस्कर है।

आशा सहाय

20-7-2020

 

 

 

 

डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।

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