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मध्यम मार्ग ही समुचित होता

चंद लहरें
चंद लहरें
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अभी तक लोगों का मत यही रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने देशहित के सारे कार्य किए किन्तु जनसामान्य का दिल नहीं जीत सके।असल में भारत एक ऐसा देश रहा है जो सदैव से नायकों और महानायकों की पूजा करता आ रहा है।और जननायक अगर प्रतिष्ठित वंश से हों तो हाथ जोड़ माई बाप से उन्हें सम्बोथित करनेवाली जनता उनका मोह नहीं छोड़ पाती।नेहरु जैसे खानदानी वंश के सदस्यों पर अनायास उसकी दृष्टि टिकती है।मध्यवर्गीय जागरुक जनता  भले ही गुणों अवगुणों के आधार पर उन्हें परखे ,देशहित की ठोस शिला पर उनको जाँचें पर जनसाधारण को इतनी फुर्सत कहाँ।इंदिरा गाँधी के जिस वंश ,रूप रग और व्यक्तित्व को उसने दुर्गा माई की संज्ञा दी थी, बंगलादेश की स्वतंत्रता ,बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे साहसिक कदमों जैसे कार्यों की शैली से प्रभावित हुई थी , वह उसके सारे दोषों को नकार कर उसे क्षमा ही करती आएगीऔर राजीव संजय राहुल आदि के व्यक्तित्व पर उस परिवार के मुहर से प्रभावित ही रहेगी।

प्रियंका गाँधी, जिसने अबतक चुनावों मे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राहुल गाँधीकी मदद की , अब प्रत्यक्ष रूप से स्वयं राजनीति में उतर आई हैं।रूप रंग में इन्दिरा गाँधी की झलक के कारण उन्हें कुछ विशेष जनता का स्नेह मिलने की संभावना है और उत्तर प्रदेश के अपनेक्षेत्र के वोट खींचने में समर्थ हो सकती हैं।यहाँ की जनता भावना प्रधान है अतः इन्दिरा गाँधी की झलक वह उनमें देखना चाह सकती है।पर यह भी सत्य है कि इसका कोई जादुई परिणाम नही होने वाला।

एक भूमिका दृश्य मीडिया की भी है जो जनता को अपने निर्णयों की ओर ढकेलने का प्रयत्न करती है। उसकी निष्पक्षता संदिग्ध हो चली है।बार बार एक ही कधन को दुहराना, बार बार उसकी प्रस्तुति जो शायद चैनेल की दिन भर की व्यस्तता के लिए आवश्यक हो, जाने या अनजाने जनता को भ्रमित करती रहती है विशेषकर उसजनता को जिसके सामने न्यूज चैनेल्स तो खुले रहते हैं पर,  बुद्धि और विवेक के चैनेल्स बन्द रहते हैं।उनके भ्रामक प्रचार सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करते ही रहते हैं।अन सबों का मिला जुला असर 2019 के चुनावों पर पड़ना अवश्यंभावी है।

दिल जीतने के लिए जिन हथकंडों  को आरंभ से आजमाने की आवश्यकता थी, मोदी सरकार ने  अति आदर्शवादिता का सहारा ले उनपर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी।अब जबकि चुनाव समीप आ रहे हैं ,दस प्रतिशत सवर्ण आरक्षण जैसे मुद्दे पर उनका ध्यान गया है।मंदिर मसले का यह प्रकरण जिसके तहत गैर विवादित जमीन को लौटाने की माँग  सुप्रीम कोर्ट से की गयी है,यह अगर  इस कार्यकाल के आरंभिक वर्षों में किया जाता तो उत्तर परिणामों से जूझने में सहज सफलता मिल सकती थी । किन्तु अब समय कम है और यह सर्वविदित है कि सुप्रीम कोर्ट के तत्सम्बन्धित फैसलों को प्रभावित करने वाले तत्व  अब कुछ अन्य हथकंडे आजमा सकते हैं।

किसानों के कर्जों को माफ कर देना उनकी समस्याओं का हल नहीं, पर तत्काल दिल जीतने का साधन है।ऐसी निष्क्रियता भरे जीवन जीने के आदी कृषकों को ये समाधान प्रिय लग ही सकते हैं।अति सिद्धान्तवादिता और देशहित से सम्बन्धित दूरदृष्टि का परिचय देते हुए सभी निर्णयों को लेना  उचित तो है पर मध्यम मार्ग को अपनाना सरकार के लिए अधिक उचित होता।

पर अभी अभी पेश किए गए 2019 के अंतरिम बजट मे मोदी सरकार ने फिर जनता का हृदय जीतने की कोशिश की है। मध्मम वर्ग के नौकरीपेशा लोग इससे अवश्य संतुष्ट होंगे। टैक्स की सीलिंग पाँच लाख कर  देना,  स्टैंडर्ड डिडक्शन 40 हजार से बढ़ाकर पचास हजार कर देना,बुजुर्गों महिलाओं की जमा राशि पर मीलनेवाले व्याज पर छूट  की सीमा 40 हजार कर देना,  किसानों को , जिनके पास पाँच हेक्टर तक जमीन है ,को साल में छः हजार का सहाय्य देना ,,तीन किश्तों में उसे बैंक खाते में ही डालना, 60 वर्ष की आयु के बाद मजदूरों को 3000 रूपये का पेंशन देना आदि  इन तीनों वर्गों के हृदय को जीतने का प्रयास है।इन सबों के साथ मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा योजना भी ।. अभी बजट में घोषित ये सारी सुविधाएँ आकर्षक हैं पर चुनाव समीप होने के कारण ये आलोचना के पात्र भी हो सकती हैं। पर देर आए दुरुस्त आये  कहावत को ध्यान में रखते हुए ये धोषणाएँ असरदार हो सकती हैं। ऐसी घोषणाओं की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता थी जो विपक्ष की घोषणाओं को टक्कर दे सके। वस्तुतः कभी कभी ऐसी मध्यममार्गी सोच की आवश्यकता होती है।

ये घोषणाएँ विपक्ष की दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ आमंत्रित कर सकती हैं।प्रथमतः इन्हें चुनावी घोषणाएँ कहकर उनपर विश्वास न करने की अपील कीजा सकती है।। दूसरी अपनी रणनीति बदलते हुए कुछ और सशक्त स्वरों में मोदी हटाओ का नारा बुलन्द किया जा सकता है।राहुल गाँधी नेअन्य कोई राह न देखकर  इसे किसानों  का अपमान बताया।श्री चिदंबरम ने इसे उनके द्वारा पेश किए गये बजट की नकल बताया।

खुले दिल से की गयी इन घोषणाओं में सत्तारूढ़ पार्टी की वह विवशता भी झलकती है जो वर्तमान स्थितियों की देन हो सकती है पर इसके परिणाम अनुकूल होने चाहिए।  हो यह भी सकता है कि महागठबन्धन की राह न पकड़ विपक्ष अलग अलग स्वरों में अपना विरोध प्रगट करें।  आज ममता बनर्जी ने मोदी विरोध की नयी राह ढूँढ़ ली है । डर जितना बड़ा होता है, राजनीति में विरोध भी उतना ही बड़ा होता है।सीबीआई के भय ने उन्हें धरने पर बैठने को प्रेरित किया है और विपक्षी पार्टियों के बिखर जाने अथवा दूसरे नेतृत्व को तलाश लेने के भय ने पुनः गठबंधन को एकजुट होने का आह्वान किया है।

आशा सहाय  5–  2–2018–।

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