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चुनाव पश्चात के कुछ व्यक्तित्व

चंद लहरें
चंद लहरें
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केन्द्र में  नयी सरकार बन चुकी है।प्रगट नीतियाँ निर्धारित हो चुकी हैं.।पर पराजय की हताशा से विपक्ष उबर नहीं पा रहा है। प्रतिक्रियाएँ तरह तरह का वेश धारण करअभिव्यक्त हो रही हैं। ऐसी हताशा में मोदी के मानवीय स्वरों का उन्हें कोई अर्थ नहीं दीखता। –सबका साथ सबका विकास के साथ जुड़ा सबका विश्वास  या विपक्ष का संख्या में कम होना उनके महत्व को कम नहीं करता –आदि उनके लिए कोई मायने नहीं रखता।वे स्तंभित हैं,और उन कारणों की खोज में हैं जो पहले से ही स्पष्ट हैं।सारे गठबन्धनों की गाँठे अचानक खुल गयीं और एक दूसरे की  ओर अविश्वास की दृष्टि उठने लगी है। हार का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ा जाने लगा है।  यह अत्यंत स्वाभाविक परिणति है।

अवसरवादिता का दूसरा दौर आरम्भ हो गया।बीएसपी का एस पी से मोहभंग होगया। अवसरवादिता का कुपरिणाम सामने आते ही पुराने रिश्तों की खटास जीवित हो गयी

वस्तुतः लोग अपनी आदतों से लाचार होते हैं।कोई पराजय उन्हें आचार विचार की सीख नहीं दे सकती।ममता का राम द्वेष अभी भी चरम सीमा पर है।बस इसलिये कि उन्हें हिन्दू विचारधारा ,जीवन शैली ,राम का बीजेपी के मन्दिर एजेंडे से जुड़ा होना अप्रिय है।धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की वे व्याख्या करते हुए जयबंगला अथवा  जय हिन्द  को  स्वीकार कर सकती हैं। जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता की बात है उसके सही अर्थ तक वे शायद जानबूझकर नहीं पहुँचना चाहतीं ।पर, शायद सच ही धर्म दूसरों को दिखाने के लिए नहीं ,मात्र स्वयं को उससे जोड़ने के लिए है। साथ ही दूसरे धर्मों का सम्मान करने के लिए भी है।लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता का पाठ मात्र सत्तासीन और विपक्ष के नेताओं को ही नहीं पढ़ना है यह जनसामान्य के लिए भी उतना ही आवश्यक है।बंगाल में जयश्री राम के नारे लगाना ,विशेषकर मुख्य मंत्री के  सामने और मुख्यमंत्री का अपने पद और गरिमा का ध्यान रखे बिना ही भड़क जाना चिढ़ने चिढ़ाने के खेल सा ही प्रतीत होता रहा।,पश्चिम बंगाल की कुव्यवस्था के कई स्वरूप हैं। इस एक स्वरूप को उभारने का तो निश्चय ही राजनीतिक उद्येश्य है। उसके लिए राम औरहनुमान को आश्रय बना लेना इसी सोद्येश्यता का परिचायक है।   हत्याओं के मूल कारणो को समझे बिना कैसे कहा जा सकता है कि वे किसके द्वारा  उकसाए  जाने के परिणाम स्वरूप होते रहे हैं।अनाचार और अत्याचार का विरोध भी उन्हीं हथकंडों सेकिया जाना कभी जायज नहीं माना जा सकता।,किन्तु राजनीति में कुछ भी गलत नहीं।कुटिल प्रयासों से लेकर गाली गलौज तक,नाटकीय भूमिकाओं से लेकर,सच्चाई के वादों तक सब जायज हैं।पश्चिम बंगाल में मिली  बी जे पी की अप्रत्याशित सफलता ने उसे आशान्वित कर दिया हैऔर किसी भी विध अशान्ति को माध्यम बना सरकार को एक और झटका दे उसे कमजोर सिद्ध करना चाहती है।पर ममता बनर्जी अभी भी अपने संकल्पों में कमजोर नहीं है।वह बंगाल को खोने को किसी प्रकार तैयार नहीं है।अन्य सभी नेताओं से बढ़कर उसनेअपने को सिद्ध किया है ।जयहिन्दऔर जय बाँगला वहसह सकती है पर जय श्री राम  नहीं। यह उसे घोर हिन्दुत्व की साजिश सी प्रतीत होती है और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में बाधा।अपनी नेतृत्व क्षमता को चुनाव पूर्व मोदी विरोधी वक्तव्य देकरउसने प्रमाणित किया है ।अतः उसे चुनाव पश्चात् नये गठबंधन की आशा हो सकती है।विशेषकर तब, जब काग्रेस की छवि दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है और उसमें नेतृत्व का संकट गहरा होता जा रहा है।

राहुल गाँधी की अपरिपक्वता खुलकर सामने आगयी है।अपने बचकाने गाली गलौज जैसे बचकाने  प्रयासों से चुनाव जीतना चाहा ।यद्यपि इस दौरान अपने नायकत्व के काफी सबूत भी दिये ,फिर भी चूक हो गयी।वे अपने खास नेताओं को समझ नहीं सके , जो पार्टी से अधिक अपने पुत्रों और सम्बन्धियों को जिताने को अधिक प्रयत्नशील थे।अपने सलाहकारों की सद्बुद्धि, कुबुद्धि अथा उदासीनता को सही सही  समझे बिना ही आक्रामक होते गयेऔर इतनी बड़ी पार्टी को गलत नायकत्व दे दिया।हार के पश्चात जैसा  कि स्वाभाविक था  अन्दरुनी विवादों  में वे फँस गये। नायकत्व का विरोध ,वंशवादिता का विरोधआदि मुद्दों ने तत्काल पदत्याग की ओर प्रेरित किया। संभवतः यह उस आत्मानुशीलन का प्रभाव था, जिसे वे पहले कर नहीं सके।पर उनके अभाव में कँग्रेस शायद अपनी ऐतिहासिक पहचान ही न खो दे।सबसे बड़ा संकट यही हैजो काँग्रेस होने देना नहीं चाहती। पार्टियों मे बड़प्पन का दावा खत्म हो जायगा और नेता गण पूर्णतः असुरक्षित महसूस करने लगेंगे। नेहरू गाँधी की छाया अबतक उन्हें आश्वस्त करती रही है।अतः काँग्रेस के लिए सर्वमान्य नेता ढूँद़ना ही टेढ़ी खीरहै।वस्तुतः काँग्रेस को पसन्द करने वाली जनता भी उसके खानदानी स्वरूप पर ही लट्टू और नतमस्तक रहती है ।अतः राहुल गाँधी को इरादा वापस लेने की पुरजोर वकालत की जा रही है।पर अगर उन्होंने सही जनता की नब्ज पहचानी है तो वे अपने फैसले पर अडिग रह सकते हैं।पर कभी कभी लगता हैकि यह सब कहीं सर्वमान्यता की खोज का बहाना तो नहीं।पर फिर कौन ।यह प्रश्न तो है ही।पार्टी में बड़े चेहरे और नेतृत्व की कमी नहींपर संभवतः दाग धब्बों ने किसी को नहीं छोड़ा है।साथ ही बिखरती टूटती पार्टी का संगठनात्मक भार लेने को कोई प्रस्तुत नहीं।

राहुल की यह जिद इस बात की प्रत्यभिज्ञा परभी आधारित हो सकती है कि अध्यक्ष पद के लिए अबकाँग्रेस को गैर गाँधी व्यक्तित्व की ही आवश्यकता है।संभवतः यह सुपरिणामों को जन्म दे।अगर ऐसा हो तोवस्तुतः काँग्रेस को इस मोहभंग की आवश्यकता है।

तीसरा बहुचर्चित नवनायक  नितीश कुमार का पुराना व्यक्तित्व पुनः उभर कर सामने आ गया है। जिस चतुराई से उन्होंने राजद का पल्ला छोड़ अपनी सत्ता को राजग के साथ सुरक्षित किया, वह विवाद का विषय भी बना।इस बात का पूर्वानुमान तो उन्हें था ही , फिर भी वे हिचके नहीं और भ्रष्टाचार विरोधी अपनी छवि स्थापित करने की चेष्टा की। राजनीति में सब जायज है अतः यह भी जायज मान लिया गया,ठीक उसी तरह वे अपने अगले कदमों को सुनिश्चित करने में लगे हैं।बिहार का विकास  नितीश कुमार के विचारों की एक दिशा हो सकती है ,पर उनकीआँखों में पलते सपने भी आकार ग्रहण करना चाहते हैंअतः उससे अधिक अपने को राष्ट्रीय फलक पर पूर्ण प्रभावशाली नेताके रूप में प्रतिस्थापित करने को वे इच्छुक हैं।नितीश कुमार अवश्य सिद्धांतवादी हैं।बिहार को विशेष  राज्य का दर्जा देने की माँग उन्होंने नहीं छोड़ी है। वेधारा 370 की समाप्ति का विरोध करेंगे।इन सबों का औचित्य उनके लिए बस यही है किइस तरह वे अपनी पैठ विपक्ष में बनाकर रख सकें।तीन तलाक के विरुद्ध बननेवाले कानून में वे सहायता नहीं करेंगे,ताकि मुस्लिम मतदाताओं को वे अपने वश में रख सकें । इन सब उद्येश्यों के लिये एन डी ए की सरकारमें मिलनेवाले एक मंत्रिपद को अस्वीकार कर अवसर पा सरकार से मर्यादित दूरी बनाने में वे सफल रहे।सरकार में रहने पर सरकार की हाँ में हाँ मिलीने को वे विवश होते।कहने को तो यह आनुपातिक प्रतिनिधित्व न मिलने की जिद हो सकती है,पर मूल मे उस उद्येश्य के सन्निहित होने से इनकार नहीं किया जा सकता।वे एनडी ए छोड़ने की भूल कदापि नहीं कर सकते।पर अवसरग्राहिता उनमें है।वे ममता बनर्जी का नेतृत्व कभी स्वीकार नहीं करेंगे।उन्होंने उनके राज्य की अराजकता का उन्हें हवाला दिया है।इस तरह वे एऩ डी ए के साथ रहकर भी विपक्ष के लिए आकर्षण का केन्द्र बने रहना चाहते हैं।

अभी बिहार में विशेषकर मुजफ्फरपुर मे एक विशेष प्रकार के इन्फ्लूएंजा से करीब 150 बच्चों की मौत हुयी है।इसे चमकी रोग की संज्ञा दी गयी है। वस्तुतः यह प्रशासन की अदूरदर्शिता का परिणाम है।मुख्यमंत्री भी प्रश्नों के घेरे में है।

नितीश कुमार प्रत्यक्षतःस्वयं को सशक्त प्रदर्शित करना चाहते हैं।बिहार में मिली जीत का सम्पूर्ण श्रेय स्वयं ले लेना चाहते हैं।परइस विजय केपीछे मोदी लहर है इसे वे समझना नहीं चाहते।पर एक बात सत्य है कि मौका मिलते ही अगर विरोधी गठबंधन का नेतृत्व इनके हाथ में आ जाय तो विपक्ष के नेतृत्व कासंकट दूर हो जाएगा।

आशा सहाय

 

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