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देश की आंतरिक भावनात्मक एकता के चीथड़े- उड़ रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस ने इस बार भावनात्मक स्तर पर झकझोरने का प्रयास किया है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर व्यक्त किये गये विभिन्न विचार जो विभिन्न टीवी चैनलों के माध्यम से देश में प्रसारित किए गये, वे इस दिवस को मनाने की अपनी-अपनी विधियों में जिस प्रकार टकराहट पैदा करती सी लगीं, वह देश की भावनात्मक एकता के लिए शुभ संकेत नहीं।
कुछ नेतागण राष्ट्र से बड़ा धर्म मानते हैं और कुछ धार्मिक समुदाय स्वतंत्रता दिवस समारोहों को मनाने के राजकीय आदेशोंके विरुद्ध हैं। यह एक प्रकार के विरोध की शुरुआती स्थिति है। देश की आज की स्थिति में स्वतंत्रता दिवस कैसे मनाया जाय, इसे चर्चा का विषय बनाना दुर्भाग्य का विषय है। इतना तो सही है कि राष्ट्रगान, देशभक्तिगान, स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्षों की कथा के साथ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम विद्यालयों में होने वाली सामान्य प्रक्रिया हैं, जिसे अधिकांश विद्यालय परम्परागत ढंग से सम्पन्न करते हैं. पर लगता है कहीं इस भावना में कोई कमी स्पष्ट दृष्टिगत हुई है. परिणामतः एक विशेष समुदाय के अल्पसंख्यक विद्यालयों में विशेष सतर्कता बरती जा रही है। समस्त आयोजन के वीडियोकरण की ताकीद की गयी। सत्य ही अगर ऐसा है, तो यह स्थिति कभी उचित नहीं कही जा सकती।
यह परिपक्व प्रौढ़ प्रबुद्ध मानसिकता का कदापि परिचायक नहीं। यह आदेश मात्र अल्पसंख्यक विद्यालयों अथवा मदरसों के लिए जारी करना उनके प्रति घोर अविश्वास पैदा करना है, जो उन्हें अवश्य ही अपमानजनक प्रतीत हुआ होगा। विश्वास करने से विश्वास मिलता है, अन्यथा अविश्वास सम्बन्धों में टूट ही पैदा करता है। अगर ये ही आदेश सभी विद्यालयों के लिए जारी किए गये होते, जिनकी सभी विद्यालयों के लिए आवश्यकता थी और उसके लिए सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान की गयी होतीं, तो सबको निर्विवाद ही स्वीकार होता। देशभक्ति को पुनर्जीवित करने का यह तरीका विपरीत प्रभाव डालने वाला सिद्ध हो सकता है। यह शक की बुनियाद डालने वाली बात सिद्ध हो सकती है।
एक दूसरा विवाद जो अचानक ही उभरकर सामने आया, जिसने धर्म को राष्ट्र के ऊपर तरजीह देने की वकालत की और एसपी नेताओं का उन कथनों का समर्थन करना उनके मूल जिहादी व्यक्तित्व का परिचायक प्रतीत होता है। वे स्पष्ट ही कहते हैं कि मदरसा में राष्ट्रगान इस्लाम विरुद्ध है। उन्हें इस बात का पूर्ण एहसास है कि उन्होंने इस देश को जीता है और इस पर उनका अधिकार है। वे भारत की वर्तमान राष्ट्रीयता की गुलामी नहीं कर सकते। स्वाभिमान की यह भावना अचानक उत्पन्न नहीं, बल्कि सत्तर वर्षों में उत्तरोत्तर पुष्ट होती हुई भावना है। ये वक्तव्य मुस्लिम समाज के विद्वत्वर्ग के हैं। ये विचार हमें पुनः उस दिशा में सोचने को विवश करते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात मिली आजादी में सम्पूर्ण भारत से सम्बन्धित उनकी आकांक्षाएं क्या थीं, जिसका प्रकारान्तर से बार-बार प्रगटीकरण होता है।
हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व भूमिका, जिसमें माउंटबेटन की सशक्त भूमिका थी और जिन्होंने पाकिस्तान बनाने की एक हद तक जिद की और मो. जिन्ना को उसके लिए सहमत कर लिया का बहुत बड़ा हाथ है। आज अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हिन्दू-मुस्लिम एकता इस देश में स्वस्थ प्रशासन के द्वारा कायम की जा सकती थी। यह देश की तत्कालीन स्थितियाँ हैं, जिसने देश के इस दुर्भाग्य को जन्म दिया। अलग होने की उस भावना की ओर उन्मुख किया, जिसके तहत पृथक राज्य अस्तित्व में आया। आज भारत को आजाद हुए सत्तर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और मानसिकता में अभी तक बदलाव न आना एक चौंका देने वाला तथ्य है।
एक ओर विकास के बहुत सारे कार्यक्रम बहुत अच्छे संतोष देते हुए प्रतीत होते हैं। स्वच्छता अभियान से लेकर नारी विकास, संरक्षण, भ्रष्टाचार उन्मूलन की विचारधारा से सम्बद्ध कार्यक्रम लोकप्रिय होते गये। इन कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता निःसंदिग्ध है पर देश के अन्दरूनी धार्मिक उन्माद को जागृत करने के जैसे प्रच्छन्न प्रयत्न हो रहे हैं। फूट के बीज कहीं गहरे बोये जाते से प्रतीत होते हैं, जो टूट में परिवर्तित से हो सकते हैं।
स्वतंत्रता दिवस में अन्य देश हर्ष प्रगटीकरण के विविध तरीके अपनाते हैं। किसी विशेष आयोजन की बाध्यता इतनी नहीं होती। भारत अपने पारम्परिक तरीके को भूलना नहीं चाहता। एक ओर तो एक स्थायी भाव की तरह यह अच्छा लगता है पर लादे हुए तत्सम्बन्धित बंधनों को इतना न जकड़ दिया जाना चाहिए कि वे टूट जाएँ। हमें दृष्टिकोण परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
एक प्रसिद्ध चित्रकार ने अपने एक प्रसिद्ध चित्र को चौराहे के एक खम्भे पर चिपकाकर लोगों को उसमें खूबियां ढूढ़ने का निर्देश दिया था, कुछ दिनों बाद उसने लक्ष्य किया कि चित्र के प्रत्येक भाग में खूबियाँ ही खूबियाँ दिखायी गयी थीं। पुनःउसी चित्र की प्रतिकृति को वहीं चिपकाकर जब दोषों को चिह्नित करने का निर्देश दिया गया, तो पूरे चित्र में दोष ही दोष दिखाए गये। यह लोगों की सामान्य मानसिकता है। सभी जाति वर्ग समुदायों में हमें गुण ढूढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए, दोषों को नजरन्दाज करते हुए। आज की स्थिति में भी बुरे तत्वों को नजरन्दाज करते हुए अपनी दृष्टि को गुणान्वेषी बनानी चाहिए।
हम किसी एक ऐसी भावना को लेकर कुछ साम्प्रदायिक तत्वों के पीछे पड़े हैं, जिसके पीछे पड़े रहने का परिणाम उन्हें उभारना ही हो सकता है। स्वतंत्रता दिवस के दूसरे ही दिन यह खबर पढ़कर कि झंडा मार्च निकाले जाने पर कुछ लोगों ने पथराव किया है, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में किंचित आश्चर्य नहीं हुआ। जिस तरह की भावभूमि हमने तैयार कर दी है, उसमें यह वांछित प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। यह मानसिकता क्रुद्ध मानसिकता है, जो दबी रहने पर सहनशीलता का परिचय देती है, अन्यथा भावनाओं की नंगी सच्चाइयों का परिचय देती है।
आज स्वतंत्रता दिवस के तीसरे दिन समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ कि एक स्थानीय विद्यालय में झंडा रोहण के पश्चात राष्ट्रगान गाने से मनाकर दिया गया और छात्राओं के शिकायत करने पर जिला शिक्षा पदाधिकारी ने तत्काल प्रभाव से दंडात्मक कारवाई कर दी। स्थितियों को यहाँ तक की भयावहता तक नहीं पहुँचने देना चाहिए। दो विशिष्ट धर्म लम्बे अरसे से यहाँ रह रहे हैं, यह उन सबका राष्ट्र है। पर एक धर्म को उभारकर यहाँ लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाने का कार्य अगर वोट बैंक प्राप्त करने के लिए है, तो यह कितना लज्जाजनक है, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है और अगर यह वास्तविकता है, तो देश को बाँटने वाली मानसिकता है। इस मानसिकता से बचना ही हमारा कर्तव्य है।
मैं मूल भावना की ओर मुड़कर कहने का साहस करती हूँ कि राष्ट्र से बड़ा कोई धर्म को मानता है, तो यह उनका स्वतंत्र चिंतन है। उस पर लगाम कैसे लगाया जा सकता है? दुनिया के अधिकाँश देश इस चिंतन को स्वीकार करते हैं। इसी भावभूमि की उनकी जीवन शैली है। यह मानने देने में बाधा ही क्या है, जब तक उससे राष्ट्रधर्म बाधित नहीं होता हो। राष्ट्र धर्म का बाधित होना भी उसकी परिभाषा पर निर्भर करता है। यह सिर्फ राष्ट्रगान तक सीमित नहीं है। इसे उदार होने की जरूरत है, तभी सभी को इस पर चलने की प्रेरणा मिलेगी।
हम एक और पाकिस्तान नहीं चाहते, तो कुछ लोगों के इस दबे स्वर को उभारना और उघाड़ना क्यों चाहते हैं? हमने भी क्या अपने धर्म से प्यार करना नहीं चाहा है, उसको विश्व में फैलाने की कोशिश नहीं की है? धर्मांतरण का मुद्दा भी व्यक्ति के विचार स्वातंत्र्य से जुड़ा है। हाथों में बेड़ियाँ पहनाकर किसी को एक धर्म के कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते। विचार स्वातंत्र्य सभी धर्मों को समझने का अवसर देता है। यह बिल्कुल निजी मामला है, इस पर लाठी उठा लेना कितना असंगत और ओछा कदम है, इसे सहज समझा जा सकता है।
अगर रोजी-रोटी से, रोजगार से, चिकित्सा से, विचार स्वातंत्र्य और विकास से उस गरीब तबके को हमने संतुष्ट कर दिया होता, तो शायद ईसाई धर्म यहाँ इतना विकास नहीं पाता। क्या यह हमारा दोष नहीं? जाति के मुद्दों पर किये गये अत्याचारों और हमें हमारे पारंपरिक विश्वासों से जिद की हद तक जुड़े रहने के कारण क्या बौद्ध धर्म में धर्माँतरण को हम रोक सके? झाँकना हमें अपने अंदर है। अपने दोषों को चुन-चुनकर निकालना है। उदारवादी दृष्टिकोण ही प्रभविष्णु होता है, हम सब पर तभी विजय पा सकते हैं, लाठी डंडे से नहीं। जब तक हमारा धर्म इतना आकर्षक नहीं होगा कि उसमें प्रश्रय लेने से किसी को कोई हिचक न हो, हमें खो देने का ज्यादा भय है, पाने की उम्मीद कम।
उपर्युक्त कथनों का यह मतलब नहीं कि सच्चे राष्ट्रद्रोही जो वेश बदलकर हमारे समाज में घुसे हुए हैं और विदेशी शक्तियों के हाथ का खिलौना बनकर देश में संकटकाल उपस्थित करने को प्रयत्नशील हैं, उन्हें पहचाने की कोशिश हम छोड़ दें। ऐसे चेहरों को बड़ी सावधानी और बिना हो-हल्ला किए ही पहचानना है, ताकि उनके द्वारा फैलाये गये जहर से प्रभावित व्यक्ति को असलियत का पता चले और देश व्यर्थ के विवादों से बचे।
टीवी चैनल कुछ ज्यादा ही इन जहरीले व्यक्तित्वों के मन का जहर प्रगट करवाने का कार्य कर रहे हैं। चूँकि हर व्यक्ति इसे देखता है, मन में जहरीली भावनाओं का बड़ी तेजी से प्रसार होता है। जहर का बीजारोपण करने वाले ऐसे साक्षात्कारों से बचने की कोशिश होनी चाहिए। जहर निकल जाए और वातावरण में न घुले, ऐसे प्रयत्न ही श्रेयस्कर हैं। हमारे सही प्रयत्न ही मनोनुकूल परिणाम दे सकते हैं, अतः आत्मनिरीक्षण की सख्त आवश्यकता है।
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