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होता हूँ मैं आगबबूला
क्रोधित मैं पर
उन्हें देख डर जाता हूँ
होती हैं उनकी निगाहें
सख्त बड़ी
उनकी खामोशी होती हैं मारक
फीके होते हैं वे बड़े अस्त्र शस्त्र बन्दूकें और कटारें
मेरा क्रोध पकता तो है अन्दर!
लाल लाल ज्वालाओं सा-
भभकता भी है
उबलता भी है
क्या क्या न कहूँ
अतिशयोक्तियाँ नहीं – क्रूर सच है
पर,
बाहर मैं दाँत निपोड़ता,
हाथ जोड़ताहूँ
दयनीय भाव से
जैसे,
नहीं नहीं !
कैसे नाराज हो सकता हूँ
भला मैं तुमसे!
मेरे माई बाप!!
कल तुम्ही तो दोगे मुझे पैसे
आटा नून लाऊँगा
बचाकर दो पैसे
दारू भी,
खालिस देसी मैले से कुल्हड़ में
समेटकर घुटनों पर मैली फटी धोती
भूल जाऊँगा तुम्हें
बेंत कीचोटेंभी
कोनेमें चुपचाप घुटक लूँगा सब
मेरे माई बाप
परसों ले लोगे तुम्हीं सब
मेरे घर द्वार।
कलतुमने पूछा था मुझसे
मुझ किसान गरीब मजदूर से
मुस्कुराके
कैसे होतुम?
तुम्हारे बाल बच्चे?
और-और तुम्हारी वह पत्नी सुघड़?
मैं सहम गया था
तुम्हारी खिली मुस्कुराहट में
देखा जो लोभ–
सौदा करने आए थे तुम
कल मेरी पत्नी नहीं जाएगी तुम्हारे द्वार
सुनो,
नहीं जाएगा
।मेरा पुत्र भी नहीं।
सोचा तो है,
पर ,
,मै कुछ नहीं कर पाऊँगा
मै क्रोधित तो हूँ ,
आगबबूला।
पर सहम जाता हूँ –
तुम्हारी चुप निगाहें देखकर।
पर,सहम जाता हूँ।।
आशा सहाय
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