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न्यायालय अपनी सशक्त विशिष्ट भूमिका में है।

चंद लहरें
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देख रही हूँ,न्यायपालिका अपनी सशक्त विशिष्ट भूमिका में है।स्वतंत्र न्यायपालिका निर्भीक होकर ऐसे कदम उठा रही है जिससे राह से भटकते सामाजिक मुद्देएवं कुछ हद तक सरकारी मुद्दों का तह से विश्लेषण करते हुए भ्रम की स्थिति को दूर करने की चेष्टा की जा रही है।हमारे भारतीय सोच पर यह नैसर्गिक कृपा है कि सदैव से न्यायपालिका के न्याय पर हम ऊँगलियाँ नहीं उठाना चाहते।अगर उठाते भी हैं तो हमारे अन्दर का तर्क वितर्क उन्हें स्वयं ही नीची करने पर विवश कर देता है।यह अच्छी बात है।अपनी इसी शक्ति से उसने तीन तलाक की उस प्रथा को खत्म करने की हिम्मत कीजो समाज की मुस्लिम बहनों परलटकती तलवार सदृश सदैव सम्बन्धों को काट देने को तत्पर थी।पुरुषों को महिलाओं को किसी सहमति योग्य न समझे जाने का यह एकतरफा अधिकार उनके तथाकथित धर्म से मिलता था।यह अलग बात है किकुछ जागरुक प्रगतिशील महिलाओं नेइसका विरोध इसलिए किया था किइस बेमानी प्रथा सेवे एकबारगी अरक्षित हो जाती थीं, सड़क पर आ जाती थीं।उन्हें अपने पुनर्वास या आजीविका के लिए समय तक नहीं मिल पाता था।और मुल्लाओं ने हलाला जैसी कुप्रथा सेउन्हे और भी अपमानजनक स्थिति में ढकेलने का प्रण ले रखा था।नारी को घोर पतन की ओर उन्मुख कर रोटियाँ सेंकने कीएवम उन्हें महत्वहीन समझने समझाने की आदत धर्म की आड़ में पाली गयी थी।वे केवल भोग की सामग्री थीं सम्पूर्ण मनुष्य के रूप मे जीने की अनुमति नही मिली थी उन्हें।इस कुत्सित प्रथा का अन्तअन्य मुस्लिम देळों ने पहले ही कर दिया था पर भारत मेंनइसकके अबतक साँसे लेते रहने के पी छेसंभवतः तुष्टीकरण या सीधेसंविथान का वह प्रावधान था जिसके तहत उनके धार्मिक निर्देशों से सम्बन्धित निर्णयों पर कोईहाथ नहीं लगा सकता। पर यह मुद्दा समानता के अधिकार के तहत भी है, सुप्रीम कोर्ट ने अतः इस पर निर्णय लेने का कार्य किया।उसने एक ही झटके में इसे समाप्त कर अपनी समानता की सोच पर आधारित संवैधानिकव्यवस्था के तहत शक्तिशाली कदम का परिचय दे दिया।
कुछ ग्रामीण सोच वाली स्त्रियों को जीवन की पुरातन शैली कोछोड़ने में कष्ट होता है ,वे उसकी अभ्यस्त होती हैंअतः ये सारे परिवर्तन नागवार लगते हैं। एक खेल कीतरह प्रयोग में आनेवाली यह प्रथाएकबारगी सामाजिक स्तर पर समाप्त हो जाय,यह सोचना भूल हैक्योंकि हलाला के साथ जुड़कर यह उन्हें उनके स्तर की सुरक्षा दे सकती थीअब वे न्यायालय के आदेश को मानकर सीधे न्यायालय के दरवाजे जाने को उतनी समुत्सुक नहीं रहेंगी जितनी इस संयुक्त व्यापार के जरिये पुनः घर बसाने को।धीरे धीरे धार्मिक स्तर पर इस कानून के प्रतिपालन की बाध्यता दृष्टिगत होगी तभी वे इसका महत्व समझ पाएँगी।किन्तु खैर,उन्हे कानून का प्रश्रय मिलनेवाला है।अपनी निजता के अधिकार को वे दोनों दिशाओं में परख सकती हैं।तलाक का अधिकार दोनों को हो और लगातार तीन तलाक उसका स्वरूप नहीं हो ,सोचने, पुनर्विचार के लिए दोनोको पर्याप्त समय मिले तो सम्भवतः दोनो पक्षों के स्वाभिमान की रक्षा हो सके।सरकार को कानून बनाने का न्यायालय ने आदेश देकर उनके धर्में में हस्तक्षेप की सारी जिम्मेदारी स्वयं के उपर ले ली है।किसी दल विशेष की भूमिका पर आँच नहीं आने दी है।न्यायालय की यह तटस्थ सोच किसी की परवा नहीं कर रही,यह एक बहुत अच्छा संकेत है।
अभी निजता के अधिकार से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर देतेहुए न्यायालय ने सारेभ्रमों को दूर करते हुए उसे मौलिक अधिकार की श्रेणी मेंमानकर संविधान के दायरे मेंमानव के जन्म से जुड़े निजता के अधिकार की पुष्टि कर दी।सरकार के बहुत सारे कार्य क्रमों पर एक हल्का सा प्रभाव पड़ सकने की संभावना दिखती है।
हम अपनी सारी सूचनाएँ पब्लिक करने को विवश नहीं हैं। आधार, पैन कार्ड,क्रेडिट कार्ड नही लीक कर सकते।नौ जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला दिया।और निष्कर्षतः लोगों ने माना कि सरकार आधारकार्ड का बहुत हद तक गलत इस्तेमाल कर रही है।आईने की तरह निजता के अधिकार को साफ कर लोगों को राहत दीजो अपने खान पान जीवन शैलीपर सरकारी शिकंजे सी महसूस कर रहे थे।और बहुत सारे वे लोग जो इस अधिकार की आड़ में अपने सामाजिक कुकृत्यों को छुपाना चाह रहे थे।सामाजिकबुराइयाँ,होमोसेक्सुएलिटि(विवादित )वेश्यागामिता परगामिता,शराब सेवन आदि जीवन शैली के अन्तर्गत आने के पश्चात भीमेरी दृष्टि में कानून के द्वारा प्रतिबंधित करने योग्य तो हैं ही।धारा 377पर पुनर्विचा र की आशंका व्यक्त की जा रही है पर स्वस्थ सामाजिक मानसिकता के निर्माण के लिए इसका उच्छेदन कभी स्वीकार्य नही होना चाहिए।
निजता के अधिकारोंकी टकराहट जब देशहित से होती है तोसकुछ मामलों में मध्यम मार्ग का अनुसरण करना हीपड़ सकता है।अभी तो यह पारिभाषित करना भी आवश्यक है किनिजता कहाँ तक अप्रकाश्य हो और कहाँ तक प्रकाश्य।हमारे जीने के तरीके अलग अलग हैं लक्ष्य भी अलग अलग हैं।जबतक समाज को हमारी प्राईवेसी से कोई नुकसान न पहुँचे ,यह हमारा अपना अधिकार है , दूसरे अथवा दूसरों के मौलिक अधिकारों सेइसकी विशेष टकराहट होने परकुछ निजता का विसर्जन तो हमारेकर्तव्यबोध के अन्तर्गत आता है।
निश्चय हीं हम निजता पर संभावित आक्रमण से सम्बन्धित सभीकदमों का स्वागत नहीं कर सकतेऔर न ही पारदर्शिता के उस हद की वकालत कर सकते हैंजहाँ हम कठपुतली हो जाएँ,मानवीय संवेदनाविहीन चलते फिरते मात्र एक नागरिक बन कर रह जाएँ।.इन सबों से पहले हम एक व्यक्ति हैं, भावनाओं के उतार चढ़ाव को भोगने वाले एक व्यक्ति,जिसकी कुछ निजताएँ हो सकती हैं जो अप्रकाश्य वे रखना चाह सकते हैं।.पर किसी तरह का भ्रष्टाचार ,
चाहे वह राजनीतिक आर्थिक या सामाजिक हो ,निजता के अधिकार के तहत रक्षणीय नहीं हो सकता।आधारकार्ड को लेकरहर जगह घूमते रहना ,बायोमीट्रिक प्रणाली से अपनी पहचान देनाअभी हमें अच्छा नहीं लगता क्योंकि यह हमारी लचर आदतों में शुमार नही है।पर राष्ट्र की सुरक्षा सम्बन्धी वाह्य एवं आन्तरिक पहरेदारी,जालसाजी से छुटकारा पाने हेतु और गरीबों तक निर्बाध सहायता पहुँचाने हेतु आवश्यक हो तो विरोध करना बहुत उचित नहीं जान पड़ता।
भारतीय न्यायपालिका के द्वारा उठाया गया यह तीसरा कदम इस मायने में विशिष्ट लगता है जहाँ राम रहीम जैसे साधुवेश में देश विदेश की जनता को गुमराह करने वाले भ्रष्टाचारी को अपने सम्पूर्ण शक्ति प्रदर्शनके पश्चात भी निर्भीकता से दोषी ठहराया। लोकप्रियता को देखते हुए सम्पूर्ण एहतियाती कदम उठाने का राज्य सरकार को निर्देश दिया,किसी भी तरहके बल प्रयोग की छूट दी । एकत्र भीड़ पर संशयात्मक दृष्टि डालते हुए राज्य सरकार की लानत मलामत की, उसे राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित बताया और सम्पूर्ण भावी स्थितियों पर सतर्क निगाहें रख सजा सुनाने के लिए जेल तक स्वयं जाने का निश्चय किया। इस तरह जनहित पर चौकस निगाहें रख सम्पूर्ण घेराबंदी कर अपनी सम्पूर्ण कार्यवाही को अंजाम देने वाला न्यायालय देश और उसके संविधान का अप्रतिम रक्षक प्रतीत हो रहाहै। उसकी निष्पक्षता के हम कायल तो हैं ही, उसकी सम्पूर्ण दृष्टि उसे देश का शक्तिशाली प्रहरी बनाता है।राज्य आतंकी परिणामों को रोकने में क्यों अक्षम सिद्ध हुआ यह अलग विचारणीय विषय है।, पर अभी अभी के उसके समस्त निर्भीक फैसलों और कार्रवाइयों से इतना तो अवश्य प्रतीत होता है कि न्यायालय अपनी विशिष्ट यथार्थ भूमिका में है।
आशा सहाय 28 – 8 -2017

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