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पत्थलगड़ी———

चंद लहरें
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सुनने में यह शब्द अजीब सा लगता है,पर अपने  शाब्दिक अर्थ से जिस विशेष प्रक्रिया की ओर संकेतित करता है वह है पत्थर गाड़कर सीमांकन की प्रक्रिया।वस्तुतः समाचार पत्रों(विशेषकर दैनिक भास्कर )में प्रकाशित झारखंड से जुड़ी एक खबर ने ध्यान आकर्षित कियाकि यह प्रक्रिया कई गाँवों मे जारी है और निकट भविष्य में एक नये कलह को जन्म दे सकती है।पत्थलगड़ी  इनकी अत्यन्त प्राचीन परंपरा है जिससे गाँवो के प्रधान अपने स्वामित्व की सीमा निर्धारित करते थे और दूसरों की दखलन्दाजी सहन नहीं करते थे।किन्तु आज के युग में बिलगाव के इस प्रयास कोएक दूसरी दृष्टि से देखा जाना अपेक्षित है।

झारखंडमें फैल रही यह प्रक्रिया नक्सलियों के आतंक से कम नहीं बल्कि उनका बदला हुआ स्वरूप सा प्रतीत हो रहा है।इस क्षेत्र में फैले नक्सलियों केआतंक को दूर करने एवम उन्हें देश की मुख्यधारा में सम्मिलित करने के अथक प्रयत्न किए गए  हैं, और सरकार की मानें तो नक्सली हर तत्सम्बन्धित राज्य में समर्पण कर रहे  अथवा करना चाह रहे हैं;किन्तुवहाँ यह अन्य प्रकार का आन्दोलन जन्म ले रहा हैजो जनसमर्थन प्राप्त कर अधिक विकट हो सकता है।यह भी उसी मानसिकता से ग्रस्त है और गाँवों पर अपनी पकड़ बनाकर मनमाने ढंग से गाँवो को स्वरूप देना चाहता है।ग्रामीणों मे वैचारिक जहर घोलने की कोशिश की जा रही है कि गाँव-,गाँव के निवासियों का है वहाँ गाँव वालों का अपना राज्य चलना चाहिए।राज्य और केन्द्र सरकार की वहाँ कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।आज समाचार पत्रों के माध्यम से जो जानकारी प्राप्त हुई वह चौंकाने ही नहीं भयभीत तक करने को पर्याप्त है।इन गाँ वों ने चारो ओर बैरिकेड ,घेरा या अवरोध बनाए हैं ,जिन्हें इन्होंने पत्थलगड़ी की संज्ञा दी है। जगह जगह पर लम्बे लम्बे पत्थर लगाकरउन पर ग्राम प्रशासन की सूचनाएँ अँकित कर रहे है।इन पर ग्राम सभा सर्व शक्तिसम्पन्नता के उद्येश्य सेअपना निजी संविधान पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्रों मे लागू करने हेतुअंकित किया गया है।संविधान के अनुच्छेदों की मनमानी व्याख्या की गयी है।यथा—

संविधान अनुच्छेद—13 –(3 ) – (क)—रूढ् या प्रथा ही विधि का बलहै यानि संविधान की शक्ति है।

अनु-19—5 के तहत कोई बाहरी गैर रूढ़ि प्रथाव्यक्तियों का स्वतंत्र रूप से भ्रमण करना, ,निवास करना  ,बस जाना याघूमना फिरना भी वर्जित है।

अनु-19 -6 के अनुसार किसी बाहरी व्यक्ति के पाँचवी अनुसूचित क्षेत्र मे व्यवसाय ,कारोबार या रोजगार करने पर प्रतिबंध है।

ऐसे क्षेत्रों में—भारत का संविधान ,अनुच्छेद 244  भाग (स) पारा (5)श्र1) के तहत संसद या विधानमंडल का कोई भी कानून लागू नहीं है।

आदेशानुसारः ग्राम सभा  (दैनिक भास्कर से उद्धृत)

प्रश्न है कि क्या वे बाकी समाज से अपने को पृथक रखना चाहते हैं?गाँव के चारो ओर के बैरिकेडिंग की चौबीस घंटे निगरानी की जा रही है।सरकार से प्रशासन पुलिस बल को  हटाने की माँग की जा रही है।प्राप्त जानकारी के अनुसार भारत के संविधान की पाँचवी अनुसूचीअसम मेघालय ,त्रिपुरा मिजोरम को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में अनुसूसूचित जातियों के प्रशासन व नियंत्रण के बारे में प्रावधान करता है,जिसमें कार्यपालिका शक्ति का विस्तारअनुसूची केपारा 2 के तहत किया गया है।

उपरोक्त पत्थलगड़ी का प्रयास भारतीय संविधान को तोड़मरोड़ कर ग्रामीणों को बरगलाए जाने का प्रयास है।आदिवासी बहुल क्षेत्रों के ग्रामीण किसी भी सशक्त सरकार विरोधी उस प्रयास के झांसे में आ जाते हैंजो  जल जंगल जमीन जैसी वस्तुओं पर उनकी पारंपरिक अधिकार उनके पारंपरिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक और भाषायी अस्तित्व संरक्षण की बात कर उन्हें संघर्ष के मार्ग पर ढकेलना चाहती है

वस्तुतःऐसे प्रयासों की आड़ मे बुद्धिजीवियोंअथवा वैसे पार्टियों की सोच काम करती है जो नक्सलवाद जैसी सोच को भी बढ़ावा दिया था।यह  ठीक उसतरह की सोच तो नहीं किन्तु अलगाववाद जैसी सोच का प्रतिफलन है। माना जाता है कि इन क्षेत्रों में अधिकांशतः अफीम की खेती होती है,यह खेती उनकी सुरक्षित आय का साधन बन जाय यह भी एक प्रमुख मंशा हो सकती है।

पशुओं आदि की बलिपर लगायए जाने वाले रोकों का भी यहप्रत्यक्ष विरोध प्रतीत होता है । आदिवासियों की पूजा विधियोंमें बलि की प्रधानता होती है।संविधान की पाँचवी अनुसूची की अवधारणा ही इनकी जीवनशैली की गहराइयों  से जुड़ी है।उस जीवन शैली का त्याग ये कदापि नहीं करना चाहते। अन्य ऐसे राज्य भी जिनके कई जिले अनुसूचित क्षेत्रमे आतेहैं,सामान्य कानून व्यवस्था को लागू करने की अनुमति नहीं देते । वहाँ कानून की सारी शक्तियाँ ग्राम सभा को दी गयी हैं।यद्यपि पेसा के तहत कानून बनाकर इन शक्तियों को खत्म करएक अधिनियम बनाकर पंचायत चुनाव करा दिए गये।पर ये अपनी पूर्व स्थिति को भूलना नहीं चाहते।

एक अन्य  दृष्टि से देखें तो उनका यह विरोध कुछ मायनों में हमारी नीतियों का ही प्रतिफलन है।इन अनुसूचित  क्षेत्रों के निवासियों की आवश्यकताओं , रोजगार,उचित शिक्षा दीक्षा  औरर उनमें रुचि उत्पन्न करने की जितनी चेष्टा होनी चाहिए ,उसका अभाव प्रत्येक सरकार में दीखता है।अतः ऐसे क्षेत्र  इन समस्याओं का समाधान अपने जीवन को अलग थलग कर अपने ढंग से करना चाहते हैं।  ग्राम सभा अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए बाहरी व्यक्तियों को बिना अनुमति प्रवेश नही करने देते। पाठशालाओं में   बच्चों को पढ़ने से रोक दिया गया है।अगर सरकार उन्हें शत प्रतिशत नौकरी नहीं  दे सकती तो वे इन संस्थानों को अपने ढंग का एडुकेशन सेंटर बनाएँगे।

पिछले वर्ष अगस्त में भी प्रवेश नहीं करने  देने की कारवाई के दौरान ,आई एएस आई पी एस , ग्यारह गजटेड अफसरों और करीब तीन सौ जवानों को खूँटी में बधक बना लिया था। उन्हें लिखित अनुमति माँगनी पड़ी थी।  इस बात को तत्काल गहराई से लेने से  कुछ सही प्रभाव पड़ा होता।

लगता है बिखराव की राह पर देश चल पड़ा है। यहाँ समानांतर सरकार की स्थिति देशके अन्दर ही पनप रही है।इस तरहकी मानसिकता तो तब उत्पन्न होती है जब केन्द्र अथवा राज्य के प्रशासन से उनकी महत्वाकाँक्षाएँ पूरी नहीं होतीं,या उनके अथवा लोगों के पारंपरिक क्रियाकलापों में जबरन हस्तक्षेप किया जाता हो, और उनका अपना रहन सहन बाधित होता हो।यों झारखण्ड मै विद्रोह की  यह भावना सदैव रही है।समयपाकर उग्र रूप धारण करने को प्रस्तुत भी रहती है।इनके अनुसार ये सदैव उपेक्षा के शिकार हैंअतः ग्राम सभाओं और ग्राम प्रधानों के माध्यम से गाँव सशक्तिकरण की आड़में सरकारी व्यवस्थाओं का विरोध कर रहे हैं।कुछ असन्तुष्ट गुटों की अप्रत्यक्ष सहायता भी इन्हें मिलती ही है।

एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है यह । आज दिनांक 22-2-18 के खबरों के अनुसार पिछले वर्ष अगस्त की घटना को पुनः दुहराया गया है। खूँटी में हीअफीमकी खेती नष्ट करने हेतु गये पुलिस और सी आर पीएफ की टीम को ग्राम वासी हथियारों के साथ लैस होबंधक बना लिया और संविधान विरोधी हरकत के आरोप में गिरफ्तार ग्राम प्रधान को छोड़ने तथा फिर कभी गिरफ्ता र न करने के एस पी एवम डीसी से लिखित आश्वासन भी लिया। यह कैसी विवशता है और प्रशासन का इस तरह लाचार होना भी संदेहास्पद प्रतीत होता है। इतना भय कहीं और उच्च स्तर के अधिकारियों ,अथवा राज्य और केन्द्र प्रशासन, सरकार को लाचार कर देने का बहाना तो नहीं।  इस प्रश्न के साथ भी जो उपाय नजर आते हैं वे  इनके आक्रामक रुख को नर्म बनाने की प्रयत्नशीलता के अलावा और कुछ नहीं हो सकते।

अलगाव के इसजहर को ,संविधान विरोधी कृत्यों के समाधान की दिशा में तुरत प्रयत्नशील होने की आवश्यकता तो है ही। इन्हें आगे बढ़ने से रोकने की आवश्यकता तो है हीसाथ हीउसके मूल की पारंपरिक सोच की सुरक्षा का भाव है उसपर ध्यान देने की आवश्यकता है।उनके पारंपरिक विधि विधान ,रीति रिवाज अगर राष्ट्र के लिए हानिकारक नहीं हैं तो उसकी सुरक्षा का आश्वासन और नयी दिशा देने की भी आवश्यकता है।

दंडात्मक कारवाईयाँ की जा रही हैं। उकसाने वाले तत्वों की पहचान कर गिरफ्तारियाँ जारी हैं ,पर इस विद्रोहात्मक स्थिति पर काबू पाने के लिए यही पर्याप्त नहीं उनकी आवाजों को सुनकर संगत राह की तलाश भी करनी पड़ेगी।

आशा सहाय  21—2—2018  ।

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