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परंपराएं रक्षणीय भी होती हैं

चंद लहरें
चंद लहरें
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अभी हाल में भारतीय समुदाय ने कई प्रकार से परम्पराओं के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिये है। परम्पराओं को लेकर पूरे देश में अक्सर संघर्ष का माहौल बन जाया करता है और आधुनिक होते भारत मेंं यह एक विचारणीय विषय भी कि हम परम्पराओं का क्या करें- कितना छोड़ें और कितना ढोएं। वस्तुतः यह सोचने का विषय है।

ऐसा लगता है किपरंपराओं का विरोध तबतक उचित नहींजबतक वे राष्ट्र जीवन को नकारात्मक ढंग से प्रभावित नहीं करते हों। मात्र अपनी आधुनिकता के रक्षण के लिए परम्पराओं का तिरस्कार कर देना सदैव उचित प्रतीत नहीं होता। कभी कभी कुछ देशी अथवा विदेशी परम्पराओं, नैतिकता और आधुनिकता की लहरों में टकराहट हो जाती है तब जनेच्छा और नैतिकता में शक्तिपरीक्षण की स्थितियां सामने आ जाती हैं। उदाहरण के लिए विश्व में संक्रामक होती जा रही वैलेंटाइन डे की परम्परा। परिणामतः बहुत सारी सभ्यताओं में इस संदर्भ में की गयी आलोचनाएं आधुनिकता विरोधी प्रतीत होती हैं। यह एक आधुनिक लहर जो पश्चिमी सभ्यता की देन हैऔर लोगों ले लव से सम्बन्धित इमोशन्स के मुक्त प्रदर्शन का जरिया बन जाती है।

भारत में इसका विरोध अधिक नहीं हो सकता क्योंकि भारत धार्मिक कट्टरता में विश्वास नहीं रखता या कम से कम सिद्धांततः नहीं रखना चाहता। किन्तु  इस परम्परा के तहत मात्र उपहारों का आदान प्नदान ही नहीं व्यवहारों मे भावनाओं की नग्नता का और अत्यधिक उच्छृंखलताओं का समावेश होता जा रहा है। अनैतिक कार्यों को प्रश्रय मिल जा रहा है जिसके विरूद्ध यह देश निरंतर संघर्ष में लगा है। अतः इन अनैतिक स्थितियों की रोकथाम की व्यवस्था तो अनिवार्य है ही। मूलतः जहां की यहपरम्परा है, वहां लव और सेक्स एक दूसरे के पर्याय से बन कर रह गए हैं। अतः वहाँ के व्यवहारों को अनैतिक और उच्छृंखल कोटि में नहीं रखा जाता किन्तु भारत इस व्याख्या के लिए कभी भी तैयार नहीं है। वर्तमान संदर्भ में यह उदाहृत किया जाने योग्य प्रसंग है ।

किन्तु हम देश के अन्दर की कुछ विषयेतर परम्पराओं की चर्चा करना चाह रहे हैं जिसके संरक्षण के प्रति जातियां सचेत हैं और सुधारों के नाम पर उन्हें समाप्त करने की चेष्टाओं में विश्वास नहीं रखतीं। अभी देश के कुछ राज्य अपने खान पान, पूजा पाठ तथा रीति रिवाजों को लेकर काफी चौकन्ने हैं और केन्द्र अथवा राज्य प्रशासन की उसमे दखलन्दाजी नहीं चाहते। कुछ अन्य आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों की आड़ में वेसशस्त्र विरोध तक करने को आमादा हैं, हमें उनके दृष्टिकोण से सोचने की आवश्यकता है। अभी अभी झारखंड प्रदेश के कुछ आदिवासी बहुल ग्रामों की ओर  ध्यान आकृष्ट हो रहा है जिन्होंने एक आन्दोलन छेड़ रखा है जो अधिक मुखर होता हुआ है, क्योंकि विकास की वे किरणें उन तक नहीं पहुंची, साथ ही आ धुनिकता के नाम पर उनकी रूढ़ियों और पम्पराओं को निर्रथक सिद्ध करने की साजिश रची जा रही है।

इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक विविधता ही आज इस देश की पहचान बन चुकी है। यही इसका आकर्षण भी है और आंतरिक अशांति का कारण भी। अगर संघीय ढांचे को बनाए रखना है और संघर्षों से बचाकर देश को आगे बढ़ाना है तो इसे सम्पूर्णतः आधुनिक अथवा सम्पूर्णतः परंपरागत बनाने का कोई भी प्रयत्न छोड़ना ही होगा। देश की जैविक विविधता की सुरक्षा,उपयोगी जीव जन्तुओं की सुरक्षा से सम्बन्धित कानून कारगर हो सकते हैं बशर्ते.सभी राज्य और समुदाय राजी हों।

आदिवासियों के रहन सहन जीवन शैली पर विचार करना यह कहना इसलिए उचित जान पड़ता है कि परंपरागत ढंग से ये नशा करने के आदी हैं। नशा उन्मूलन के तहत हम इनकी इस आदत पर प्रहार करना चाहते हैं पर घर घर शराब बनाए जाने वाली मनोवृति, जिसे अपनी जीवनी शक्ति का सहारा मान लिया है, उससे छुटकारा पाना इतना आसान नहीं है। यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी और तभी संभव होगा जब अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करने के लिये आवश्यक पोषक तत्व अन्य माध्यमों से उन्हें प्राप्त हो जाए। ये अधिकांशतः कुपोषण के शिकार हैं। मोटा खाना और घरेलु शराब इनके जीवनाधार हैं। छिपे छिपे कई जगह अफीम उगाए जाते हैं जिसके लिए अवश्य ही अफीम माफिया का संरक्षण इन्हें प्राप्त होता होगा।

गर इनकी मौलिक आवश्यकताएं और युवाओं की महत्वाकांक्षाएं सरकारी अथवा  गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयत्नों से पूरी होती हैं तो इनके जीवन को नयी दिशा दी जा सकती है। जहां तक परम्पराओं का प्रश्न है वह उनके आत्मसम्मान से जुड़ा है।यह उनकी जातिगत विशेषताओं  के संरक्षण और उनके विशिष्ट सोचों से सम्बन्धित हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोणों का अल्प अभाव होते हुए भी वे निन्दनीय नहीं हैं। उनके पारंपरिक दृष्टिकोणों को हमें ही समझने की जरूरत है। वे प्रकृतिपूजक हैं और उनकी रीतियां और रिवाज भी उसी से जुड़ी हैं।  हो सकता है उनपर आदिम काल का प्रभाव कुछ ज्यादा हो परवे उसे लेकर चलना चाहते हैं तब भी, जब शायद उनका वास्तविक अर्थ और प्रयोजन वे भूल चुके हों। भारत के प्रत्येक राज्य के निवासियों की अपनी परम्पराएँ हैं इसी, प्रकार इनकी भी हैं।अगर सब रक्षणीय हैं तो ये भी।

उनकी परम्पराओं में बुरी आत्माओं को भगाने के लिए झाड़फूंक तंत्र-मंत्र के प्रयोग को अंधविश्वास का दर्जा दे उसे निम्न श्रेणी का करार दिया जाता है पर सम्पूर्णतः ऐसा नहीं है। तंत्र-मंत्र आध्यात्मिक सोचों से जुड़ा हुआ है। यह साधना से जुड़ी शक्ति है। हां जब इसके साधनात्मक आधार की समाप्ति हो जाती हैतो यह मात्र अंधविश्वास बनकर रह जाता है।अपनी हर भारतीय सोच की पाश्चात्य सोच से तुलना कर उसे हेय करार देना उचित नहीं।पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान के अंध बहाव में बहे हुए हम भारतीयों को अब अपनी प्राचीन वैद्यस चिकित्सा प्रणाली की ओर मुड़ने की आवश्यकता महसूस हो रही है। मंत्रों के साथ यज्ञ में हम भी आहुतियाँ देते हैं। आवाहन ,विसर्जन,जप,आदि पूजन की विधियों में मंत्रों का उपयोग करते हैं।

अतः पुनः कहने की आवश्यकता महसूस होती है कि उनके रीति रिवाज, उनके अलौकिक रिश्ते, जादू टोनों का मर्म हम समझें। पहाड़ी अंचलों की उनकी सहूलियतों से अलग कर स्वयं से तुलना न करें। उनकी कलाओं की पहचान उनके परम्परागत विचारों से करें और उसमें उनके विकास के चरणों को ढूंढें।उनकी संस्कृति उनकी विशेष सोच पर आधारित है। उनकी परम्पराओं में उसे ढूंढें तभी हम उन्हें आधुनिक विचारधाराओं से जोड़ सकेंगे।

आशा सहाय  1—3-2018   ।

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