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प्रसंग जिन्ना का

चंद लहरें
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मेरेसामनॆ खुली है एक पुस्तक फ्रीडम ऐट मिडनाइट।लेखकद्वय हैं-Dominique Lapierre और,Larry Collins. तत्सामयिक एवम तत्सम्बन्धित ऐतिहासिक तथ्यों केविश्वसनीय विश्लेषक द्वय।पढ़ रही हूँ और उस हिस्से पर आकर ठिठक गयी हूँ ,जहाँ हर कोई ठिठक सकता है-वह हिस्सा है जब आजादी के साथ विभाजन की बात अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के साथ अपने अंतिम चरण में पहुँच चुकी है।माउंटबेटन आशंकित हैं कि मो जिन्ना विभाजन की अपनी सहमति मौन रहकर उसी प्रकार देंगे किनहीं ,जैसी बातचीत उनके साथ हुई थी।

 

 

जब किसी ऐतिहासिक प्रसंग का व्यक्ति स्वयम् गवाह नहीं बन सकता तो पुस्तकों की गवाही ही महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती है। यह ऐसा ही प्रसंग है और ऐसी ही गवाही जिस पर विश्वास करना या न करना हम पर ही निर्भर करता है।जिन्ना तत्काल विभाजन के प्रश्न पर सहमति इसलिए भी नहीं देने को प्रस्तुत थे कि उन्हें एक सप्ताह का समय चाहिए था। ताकि वे मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को बुला उनसे बातचीत कर सकें। उनके हिसाब से सबकुछ नियम के अंतर्गत ही होना चाहिए था।पर इस एक हफ्ते का समय माउंट बेटन देना नहीं चाहते थे।प्रश्न है – आखिरक्यो?

-क्या इसलिएकि तुरत फुरत विभाजन में बाधा आ जाती !। प्रधानमंत्री एटली घोषणाओं की प्रतीक्षा कर रहे थे!

–क्या माउंटबेटन दिल से हिन्दुस्तान का विभाजन चाहते थे ।उनका यह जाहिर करना कि वे विभाजन नहीं चाहते ,सम्पूर्णतः मिथ्या दिखावा था।?

–क्या ब्रिटिश साम्राज्य का हिन्दुस्तान से प्रस्थान का एक परिणाम यह होना ही चाहिए था? फूट डालो और राज्य करो की अनिवार्य परिणति !

अंतिम क्षणों तक वे महात्मा गाँधी से डरते रहे कि कहीं वहविभाजन के विरुद्ध आवाज न उठा दे।और उसकी सारी योजना धरी की धरी न रह जाए।अगर यह एक हफ्ते का समय माउंटबेटन ने जिन्ना को दिया होता तो संभवतः विभाजन टल जाता।हलाँकि पाकिस्तान जिन्ना का सपना बन चुका था।पर समय आड़े आ सकता था। वायसराय माउंटबेटन ने जिन्ना को प्रलोभन दिया कि वह जिन्ना का ही सपना है और यही मौका है अन्यथा सपना पूरा नहीं हो सकेगा।पृथक सत्ता का प्रलोभन। सभी तो डाँवाडोल थे। पर जिन्ना नेपुनः अपनी बात दुहरायी थी। वे कानूनविद थे और स्वभाव से कायदे आजम।

क्या जिन्ना का सपना आरम्भ से पाकिस्तान था या यह परिस्थितियों की उपज थी। यह एक विवाद ग्रस्त विषय हो सकता है।क्योंकि आरम्भ से जिन्ना भी गाँधी के कद के नेता थे उन्हीं सिद्धांतों पर कमोवेश विश्वास करने वालै। राजनीति मे उनका प्रवेश1896 में ही हो चुका था। वे भी कांग्रेस के सदस्य के रूप में आरम्भ से दे श मे सुराज चाहते थे ।किन्तु देश के एक साम्प्रदायिक वर्ग मुसलमानों के प्रति काँग्रेसके उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण उन्होंने उसके हितों का ख्याल रखते हुए मुस्लिम लीग की अध्यक्षता स्वीकार की थी।1920 में गाँधी जी की नीतियों के विरुद्ध उन्हे चेतावनी भी दी थी कि यह हिन्दु मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देंगी, पर कोई अनुकूल परिणाम न मिलने परकाँग्रेस के साथ कई वार्ताएँ विफल होने के बाद   1933 के बाद उन्होंने यह तय किया कि भारत में मुसलमानों के हितों की रक्षा नहीं हो सकेगी  अतः उन्हें अलग राष्ट्र मिलना चाहिये। द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत ने यहीं जन्म लिया।1940 के लाहौर अधिवेशन में यह सार्वजनिक हो गयाऔर लियाकत अली ने इसे पाकिस्तान नाम से नवाज दिया।भारत विभाजन की माँग जोर पकड़ने लगी।

 

 

स्वराज्य की माँग जब जोर पकड़ने लगी तो अवश्य ही जिन्ना एक अलग राष्ट्र के रूप मे पाकिस्तान के प्रधान के रूप स्वयम् को देखा होगा।यह लोभ संवरण करने योग्य तो नहीं ही था।निर्णय के अंतिम क्षणों मेंउनकी हिचकिचाहट अब भी उनके अन्तर्विवेक की गवाही दे रही थी।वे इस निर्णय काभार मुस्लिम लीग के सदस्यों पर डालना चाहते थे।पर माउंटबेटन  ने इसे स्वीकार नहीं किया।

पुस्तक के अनुसार विभाजन का सारा श्रेय मो जिन्ना को नहीं दिया जा सकता।उनकी सहमति के पूर्व जवाहरलाल नेहरू और श्री वल्लभबाई पटेल से तत्सम्बन्धित वार्ता हो चुकी थी और विभाजन से उनका कोई विरोध प्रदर्शित नहीं हुआ था।महात्मा गाँधी निर्णय के इन क्षणों में मौजूद नहीं थे।महात्मा गाँधी के पास एक अवसर था जब वे माउंटबेटन से मिलकर इसका विरोध कर सकते थे परवह दिन सोमवार का था –मौन व्रत का दिन।उस मौन को  वे अनिवार्य कारणों से भंग कर सकते थे। माउंटबेटन भयभीत थे कि इस छोटे से कद काठी के व्यक्ति के आह्वान पर अखंड भारत के पक्ष मेंसारा देश खड़ा हो जा सकता था।पर महत्मा गाँधी ने तब अपनी शक्ति प्रदर्शित नहीं की और लिखित रूप में यह अभिव्यक्त कर कि मौन भंग करने का कोई ठोस कारण उन्हें नहीं दीखता क्योंकि माउंटबेटन उनकी बातों को सुनने का कोई आग्रह नहीं रखते। वे वापस  आ गये।प्रकान्तर से नेहरू और अन्य विशिष्ट राजनीतिज्ञों की योजनाओं के प्रति यह उनका हिचकिचाहट भरा समर्थन ही था।

स्थितियाँ ऐसी थीं कि विभाजन के कारणस्वरूप न जिन्ना पर दोषारोपण किया जा सकता था और न गाँधी पर। जिन्ना के समान ही देश के  प्रधानमंत्री बनने का सपना नेहरू का भी था ।इस अवसर की प्राप्ति के लिएउन्हें विभाजन के कठोर प्रस्ताव पर सहमति देनी आवश्यक थी।जिन्ना का कद नेहरू से बड़ा हो ही सकता थाऔर संभव था कि अविभाजित भारत में प्रधानमंत्रित्व की उनकी दावेदारी बनती।

निर्णय के अंतिम क्षणों मेंमाउंटबेटन ऩे यह घोषित किया किविभाजन के सन्दर्भ में उनकी बातचीत नेहरू पटेल और सिख प्रतिनिधि से हो चुकी है।अब जिन्ना की बारीहै जिनसे भी माउंटबेटन की बातचीत हो चुकी है। यह एक नाटकीय प्रसंगथा। जैसा कि जिन्ना को उन्होंने हिदायत दी थी कि वे अगर बोलकर सहमति नहीं दें तो कम से कम सिर को सहमति की मुद्रा में झुका दें।जिन्ना ने अत्यन्त हल्का सा सिर झुकाया जो उनकी अनिश्चयता का परिचायक भी हो सकता था।

और विभाजन हो गया।विभाजन के कारक तत्व के रूप में हिन्दुस्तान की उस हिन्दु विचारधारा को जिसने मुस्लिमों के प्रति अलगाव की भावना पाल रखी थी,को हमक्यों न दोषी मान लें!।गाँधी जी के विशुद्ध हिन्दुत्व से जुड़े विचारों संस्कारों सेगहरा जुड़ाव- जब जन जन को मिलकर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी थी,!। क्यों न मान लें कि अकारण हिन्दुओं ने उनमे शंका और दुराव की भावना पनपने दी!।यह एहसास होने दिया कि वे हिन्दुस्तान मे विदेशी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं  !और तब मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व जिन्ना के द्वारा।और तब अलग राष्ट्र की कल्पना – यह एक स्वाभाविक विकासक्रम  था। आज। भी देश के सीमांतों पर अवहेलना के फलस्वरूप ऐसी लड़ाईयाँ या इनके समकक्ष आवाजें उठती हैं पर  अब हम सतर्क हो गये  हैं।

 

 

हम इतिहास के उस  प्रसंग के भीतर अगर नहीं भी पैठें तो भी देश की स्वतंत्रता के क्रम में जिन्ना की सहभागिता को ध्यान में रखते हुएउन्हें वह महत्व अवश्य दिया जाना चाहिए जो ए.एम यू में तत्सामयिक स्टूडेन्ट्स यूनियन की ओर से टँगे फोटो से सम्बद्ध है। इसे हटा देने का विचार इतिहास को नकार देनेजैसा ही है।क्या पाकिस्तान  स्वतंत्रता के लिए लड़ी लड़ाई में गाँधी की भूमिका को नकार दे सकता है?तत्सम्बन्धित प्रमाणों को वहाँ से समाप्त करदेगा। ?हमें राष्ट्र के तत्सामयिक सभी नेताओं की कद्र करनी चाहिए।फोटो को हटा देना एक घृणात्मक रवैया है।इस प्रकार यह देश में मिटते हुए साम्प्रदायिक भेदभाव कोपुनर्जीवित करने के समान है।कभी कभी लगता है कि यह कुछ भी चुनावी हथकंडा तो नहीं।आज के राजनीतिक  माहौल  में सबकुछ संभव है।

क्या जरूरत है गड़े मुर्दे उखाड़ने की।विकास का अर्थ विगत को भूल आगे की ओर देखना है।लाख कोशिश कर विदेशियों के पड़े कदमों को हम देश की विकास यात्रा से दूर नहीं कर सकते।.विश्व पटल की  आधुनिकतम  उपलब्धियों के आधार पर नव भारत का निर्माण करते जाना ही देश की विभिन्न पार्टियों और युवाशक्ति का लक्ष्य होना चाहिए।बदले की भावना असहिष्णुता का परिचायक है , आज देश के सामजिक राष्ट्रीय परिवेश को इसकी आवश्यकता नहीं।विगत आदर्शों मेसे ही नए आदर्शों को ढूंढ़ लेना है ।दलितों को गले लगाएँ विभिन्न जरियों से। मुस्लिम समुदाय का हित देखें विस्तृत नजरिये से ,आदिवासियों का विकास करें विशिष्ट नजरिये से

अभाविप जैसी संस्थाओं को नये नजरिये का पोषक होना है तभी वे देश का कल्याण कर सकेंगे। आज देशभक्ति की परिभाषा बदल गयी है। देश को मानसिक रूढ़ियों से मुक्त कर मानव मात्र के लिए न्याय का मार्ग प्रशस्त करना होगा तभी क्रमशः शान्ति और विकास का मार्ग भी प्रशस्त होगा।

 

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