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मुद्दा आरक्षण केविरोध का

चंद लहरें
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दिनांक 10-4-18 का भारत बंद।

यह एक अवश्यंभावी प्रतिक्रिया थी।इसका प्रभाव कितना रहा,अधिक या कम  इसकी विवेचना करने की आवश्यकता तो नहीं पर इस प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी। इस बंद का आह्वान किसी दल ने नहीं किया, न ही किसी ने समर्थन ही दिया,बस सोशल मीडिया के द्वारा  इसबंद का आह्वान किया गया। कोई दल इसका समर्थन करता भी तो कैसे!—अपना दलित वोट बैंक खोने को कौन तैयार होता!दलितों के आरक्षण का विरोध करने की शक्ति तो दूर की बात है इसकी कल्पित संभावना को लेकर ही आरोप- प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हो जाता है।

यह आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है  जिसपर मात्र एक बार चर्चा करना पर्याप्त नहीं, इसे बार बार खोल कर रखने की आवश्यकता है।.वस्तुतः यह एक लाइलाज कोढ़  बन चुका है जो देश के विकास को अवरुद्ध करने में पूर्णतः सक्षम है। दलितों के मसीहा श्री अम्बेदकर ने इन श्रेणियों केलोगों को आरक्षण का सहारा दे उन्हें विकास का रास्ता दिखाने की बात की थी । दस वर्षों में वे विकास की सीढ़ी पर स्वयमेव चढने लगेंगे यह उनकी कल्पना थी । यहाँ तक तो सही ही था । सदियों से दबे कुचले व्यक्तित्वों को इतना सहारा देना आवश्यक था पर आज सत्तर वर्षों के पश्चात भी अपनी योग्यता के बल पर ये अपने पैरों पर नहीं खड़े हो सके तो यह आश्चर्य की बात होनी चाहिए।वस्तुतः इस सहारे ने उन्हे सहारा लेने का अभ्यस्त बना दिया है। अब आदतन वे इस सहारे के बिना नहीं चल सकते ,पर देश के लिए यह कितना हानिकर है इसे वे समझना नहीं चाहते। यह एक ऐसा मुद्दा है कि इसे समझाने मे सबों को लाभ के बजाए हानि ही दीखती है।

उनके लिए मुख्य मुद्दा समानता का है। समानता के लिए आर्थिक समानता एक जरिया है  किन्तु इस जरिया को वे अपना जीवनोद्येश्य बना लेंगे तो समानता पीछे छूटती चली जाएगी और जन्म लेगा जातिभेद जो सामाजिक समानता का सबसे बड़ा शत्रु है। यह आरक्षण उनके सामाजिक समानता के अधिकार को अब पीछे ढकेलता दृष्टिगत होता है।   अगर वे समानता चाहते हैं तो उन्हें आरक्षण से इन्कार करना चाहिए । आरक्षण स्वीकार करना तो स्वयं को समाज के उन्नत वर्गों से अलग थलग रखने की प्रक्रिया है।यह तो एक स्वार्थपरक नीति कही जाएगी।

वस्तुतः दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति हर जगह एक समान नहीं है।विशेष कर दलित कही जाने वाली जातियों पर ध्यानदेने की अधिक आवश्यकता है क्योंकि अभी हाल में उनके विद्रोह के स्वर पड़े पैमाने पर बंदजनित आन्दोलन के स्वरूप में मुखर हुए हैं।ये दलित हर जगह उतने दलित नहीं रह गये। वे भी अच्छे पदों पर पदासीन हैं और इस रूप में समानता का उपभोग करते हैं ।सामाजिक मान सम्मान प्राप्त करते हैं। हाँ जहाँ,वे अभी भी शिक्षा से दूर हैंवहाँ आगे बढ़ने में बाधा है। इस सम्बन्ध में सरकारों ने प्रयत्न किए हैं।  अनिवार्य शिक्षा के तहत किये गये सारी योजनाओं  से वे भी तो जुड़े हैं। साईकिलें, पाठ्यपुस्तकें ,मध्याह्न भोजन और ड्रेसेजजैसी सुविधाएँ स्काँलरशिप देने जैसी योजनाएँ क्या इनके लिए नहीं हैं?हैं। किन्तु उनमें सीखने की ललक का अभाव है।प्रतियोगिता और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा काअभाव है।सीखना तो इन्हें ही है। चाहे एकेडेमिक क्षेत्र में या व्यवसायजनित क्षेत्रों मे यह प्रयत्न तो इन्हें ही करने हैं।घर से तमाम सुविधाएँ दे निकाल कर उन्हे विद्यालय महाविद्यालयतक पहुँचा देना सरकार और तत्सम्बन्धित सारी संस्थाओं का कर्तव्य होना चाहिए पर आरक्षित कर उनकी बौद्धिक क्षमताओं को कुंठित कर देना कदापि उचित नहीं है।

आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए एक पीढ़ी को आरक्षण प्रदान करनातो सही है परएक ही परिवार की  पीढ़ी दर पीढ़ी  इसकी सुविधा भोगे ,यहबेमानी है। लँगड़े को लकड़ी की टाँग देना उचित है पर हर किसी को लकड़ी की टाँग देकर उसी पर चलने को कह देना कितना तर्कसंगत और कितना हास्यास्पद है इसका आकलन तो सभी कर सकते हैं।

वस्तुतः इस आरक्षण रोग के कारण हमारे देश मे पदस्थापित डॉक्टर इंजीनियर और अन्य क्षेत्रों के पदाधिकारी द्वितीयश्रेणी की सेवा प्रदान करते हैंक्यों कि अनारक्षित बुद्धिजीवी वर्ग आज विदेशों में प्रथम श्रेणी की सेवा देने को विवश हैं।हर व्यक्ति अपनी बुद्धि का सम्मान चाहता है,चाहे यह जहाँ मिले।घर, देश से दूर जा रहने को विवश लोगों के मन में इस आरक्षण के प्रति आक्रोश न उत्पन्न हो कैसे।

इस रोग के कारण देश जातिवाद के दलदल में फँसता ही जा रहाहै । यह जहर सामाजिक समानता के सिद्धान्त को जहरीला बनाता जा रहाहै।कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि सवर्ण उनहें वह बराबरी का सम्मान प्रदान करेंजिसकी उन्हें तीव्र चाहत है।तब तो उन्हें दलितकह कर पुकारना ही तर्कसंगत प्रतीत होता है क्यों कि इसी मे उनकालाभ और अगड़ी जातियों के थोड़े बहुत स्वाभिमान की रक्षा होती प्रतीत होती है।

यह खाई दिनोदिन चौड़ी होती जा रही है।जबतक यह आरक्षण इस देश से विदा नहीं लेता, देश के गुणात्मक स्तर का ह्रास होते जाना संभव है।

आरक्षण नहीं—क्योंकि यह शब्दएक बाध्यता का परिचायक हैजिसकी आड़ मेंजरूरतमंद और गैर जरूरतमंद सभी आरक्षित हो जाते हैं,अतः इस शब्द को हटाकर आर्थिक रूप से जरूरतमंद लोगों को ,चाहे वे किसी भी जाति और संप्रदाय के हों ,मदद करने का प्रावधान होना चाहिए।यह  गुरुतर दायित्व राज्यों का हो  जो ऐसे प्रार्थियों की सही पहचान कर सके।

आरक्षण के दुष्प्रभाव की एक अप्रिय झलक 2 ता – को बुलाए भारत बंद में देखने को मिली  जिसमे निहित उद्येश्यों को समझा जा सकता है। वे इतने सशक्त हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी आदेश  जिसमे उनके विरुद्ध कदम उठानेवाले अथवा उन्हें सताने वाले कर्मचारियों की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगायी गयी थी,के विरुद्ध इतना बड़ा बंद बुला सके और उसका हिंसक रूप भी प्रगट किया। हो सकता है ,  वेउकसाए गये,उनमे गुंडातत्व भी जुड़ गये हों पर कुल मिलाकर प्रदर्शन सशक्त था। वे इतने सशक्त हो चुके हैं तो उन्हें न आरक्षण की आवश्यकता है न दलित कहे जाने की।उन्हें अपने को दलित कहने की मानसिकता से उबरना होगा अन्यथा सवर्णों का आक्रोश भी बढ़ ही सकता है।

आवश्यकता है ,आरक्षण केमुद्दे परसम्पूर्ण देश के जाग्रत होने की, पुनर्विचार करने की।सर्वसम्मति से अथवा संविधान सम्मत तरीके से ही उसे समाप्त कर देनेकी।ऐसा नहीं कि आरक्षित वर्गों का विकास समाज नहीं सोचता। उनकी स्वच्छता, निरोगिता और जीवन यापन की तमाम सुविधासम्पन्नता की कामना पूरादेशकरता है।आर्थिक असमानता उनकी दीनता के मूल में है परअपनी योग्ता प्दर्शित कर वे आगे बढ़ें तभी यह सम्मानजनक होगा। शिक्षा की सम्पूर्णता उन्हें चाहिए ही।एक विचारक ने एक समाचारपत्र में जो उद्धृत की जाने वाली बातें लिखीं वह यों है—“दलित और सवर्ण समाज के भेद को समाप्त करने के लिएसिर्फ कानून के सहारे बैठे रहना काफी नहीं है।उसके लिए एक ऐसा जनआंदोलन चाहिएजो करोड़ों लोगों सेजातीय उपनाम हटवाए,अन्तरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन दे,जातीय आरक्षण का विरोध करेऔर समतामूलक समाज का निर्माण करे।“ जातीय उपनामों को हटानाऔर जातीय आरक्षण का विरोध करना—इन दो विषयों से सम्बद्ध आंदोलन तो होने ही चाहिए।अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन भी देना होगा।जनगणना मे जाति का उल्लेख कहीं नहीं हो।समय लग सकता है पर असंभव कुछ भी नहीं।इन सबों मे बाधास्वरूप वे सत्तालोलुप पार्टियाँ हैं जो जातियों पर ही वोटों को मापती हैं । देश का कोई भी कानून इन्हे इस दुष्प्रयास से रोक नही सकता।

यह भी सच है कि तथाकथित दलितों के प्रति नौकरी देने वाली संस्थाओं का रवैया ठीक नहीं होता।वे उनके दुर्व्यवहार के शिकार हो जाते हैं।इस मानसिकता को दूर करने की आवश्यकता है।नौकरी में योग्यता निर्धारक तत्व हो जाति नहीं।इसके लिए दलितों को ही सर्वप्रथम कदमम उठाने होंगे।उन्हे ही स्वयं के दलित होने से इन्कार करना होगा।यह स्वर भी अब सुनने में आ रहा है। निश्चय ही यह एक अच्छी शुरुआत होगी।

 

आशा सहाय 12—4—2018–।

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