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क्या करूँ –मैं माँ हूँ—जैसे किसी नेपूरे शरीर को स्टिकरों से भर दिया हो—मै माँ हूँ।मन केभीतर के विभिन्न कोनों मे से सबपर हावी होता एक कोना सतत् चमक रहा हैजैसे वह कोई प्रामाणिक स्वर्ण का हॉल मार्क हो—मैं माँ हूँ।मैं मनुष्य हूँ, मैं स्त्री हूँ।हाथ-पैरआँख कान मुँह,स्वाद की पहचान करनेवाला जीभ-सब है मुझमें।पर जब कोई सन्तान समक्ष होती हैतो नमेरे हाथ पाँव होते हैंदर्द करते हुए,नआँखें होती हैं बुझती रोशनी से सामनेवाले के व्यक्तित्व की आपादमस्तक पहचान करनेवाली ,न ही कान होते हैंसुमधुर अथवा कर्कश ध्वनियों कीप्रतिक्रिया देनेवाले,न ही रसास्वादन के लिए तत्पर जिह्वा। होता हेतो बस एक एहसास कि मैं माँ हूँ। एक भावना, जो मान अभिमान का एहसास कराती है,व्यवहार जनित सम्मान खोजती है;सन्तान के सामने तिरोभाव के लिए विवश होजाती है।
-मै माँ हूँ।—जहाँ तक दृष्टि जाती है इस बदले हुए परिवेश में भी माँओंकी स्थिति सनातन माँ की स्थिति से भिन्न नहीं हो सकती चाहे उसका निर्वाह करने के लिए कांपती ऊँगलियों के साथ भी गृह कार्य का निर्वाह करना पडे आँगन लीपने के लिए ग्रामीण स्थितियों में गोबर चुनकर लाना पड़े गीली सूखी लकड़ियों का जुगाड़ कर धूँए उगलती चूल्हे के पास बैठ दाल भात सब्जी बना बेटे बेटियों को तृप्त करने का प्रयास करना पड़े ,सारे गृहकार्य का भार बिना शिकायत किए लेनापड़े, और मेहमानों के सामने अति संतुष्ट, सौम्य आकृति के साथ घर की पुरातन मर्यादाओं की प्रतिरूप बनने को विवश ही क्यों न होना पड़े ।इनसारी भूमिकाओं मे खरी उतरती ये माँ ही तो हैं।
— पुत्र की एक पुकारमाँ s s sपर बर्फ की तरह जकड़े ,प्रस्तर बने व्यक्तित्व को जाने किस आँच में पिघलाकर दौड़ती वारी जाती मैं, माँ ही तो हूँ।
——-विगत मान-मर्यादाएँ हैं वे,—जब तेरे समक्ष तेरेबच्चे खड़े ढीठ से -प्रत्युत्तर नहीं देते थे।तेरेशब्दों कोआदेश या दिशा निर्देश मानते थे , विचलन की संभावना नहीं के बराबर होती थी।आज वे तेरे समक्ष तेरे अस्तित्व की निरंतर अवहेलना करनें में हिचकते तक नहीं।तुम्हें शायद प्रतिक्रिया देने की इजाजत भी नहीं।माँ को शायद अपने प्रति मर्यादाओं को अनुभूत करने की आवश्यकता ही नहीं।अगर तू मर्यादाओं की बातें करती है तो—तू माँ नहीं है क्या-? तू कैसी माँ है –क्या ममत्व नहीं तुममें?तेरे व्यक्तित्व के सारे दूसरे पहलू अप्रामाणिक हो जाएँगे –अगर तू मर्यादाओं के रक्षण की बात करेगी।
—आज यहमै जो माँ हूँ विगत युगों के माँओं की कल्पना करना चाहती हूँ ।मेरी माँ—तू भी तो माँ थी।क्या तेरे ममत्व में भी मैने शंका की थी?सारी सुविधाएँ सम्पूर्ण रूप से देने मे तुम सक्षम रही या नहीं रही होपर हम सब उसमें तेरे ममत्व का दर्शन कर लिया करते थे उसे तौलते नहीं थे। क्या तुम्हारी आर्थिक शारीरिक शक्ति सीमाओं को हम तब भी नही समझते थे–! । पर अपने ममत्व मे तू उसे समझने का मौका ही नही देती थीं। तेरी ममता कोप्रभु की वह कृपा समझते थेजो बड़ी मुश्किल से मिलती है।तुम्हारे लिए अवमानना का एक क्षणिक भाव भी कभी उदय नहीं हुआ।
——-मैंने, तेरी सन्तान ने,तेरे कार्यों को आलोचनात्मक दृष्टि से कभी नहीं देखा।तूभी तो माँ थी,।दुनिया की सर्वश्रेष्ठ माँ!तुम्हारे लिए सदैव प्रणम्य मुद्रा रही हम सन्तानों की। तुम्हारी वर्जनाओं से मन अवश्य ही दुखित होता होगा कभी-कभी विद्रोह भी होता होगा पर वह मात्र रूठने की स्थिति तक हीसीमित होता होगा।मैं सुनती थी किअमुक बच्चा घर से भाग गया पर वहकोई बहुत विशेष बच्चा रहता होगा। सामान्यतः तुम्हारे रूठे बच्चों कोमनाने की कला अप्रतिम ही होती थी माँ—आज तुम्हारी वर्जनाओं का रहस्य समझ में आता है।हाँ तुमने हमें अनुशासित करने का यत्न किया।तुमने हमें जीवन मूल्य सिखाये। मर्यादाओं पर आरूढ़ रहना सिखाया।कभी –कभी मन मे विरोध भी होता था । कभी कभी किया भी, पर मर्यादाओं मे रहकर।हम तुम्हारे अनुगामी थे।
—अगर आज तू होती माँ—हम तुम्हारी सन्तान तुम्हें उतना ही चाहते? क्या हम तेरे सम्मुख कुछ अधिक उन्मुक्त नहीं होते? क्या हम तुमसे सिर्फ सम्पूर्ण अधिकारों की ही माँग नहीं करते !तुम्हारा शत प्रतिशत प्यार!क्या हम सबतुम्हारे सम्पूर्ण प्यार को अपना ही एकाधिकार नहीं समझते?शायद कह देते –मात्र तू मेरी ही माँ क्यों न रही— क्या एक सन्तान ही काफी नहीं होती—हो सकता है भीतिक सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने की तेरी अक्षमता मे आज हमारे मुख से ये बोल भी फूट जाते इस बात से बेपरवा कि तुम्हें कैसा लगेगा,प्रकृति के सारे अवदानों को कृत्रिम रिश्ते में बाँध कर जीने की सलाह दे देते ।अच्छा हुआ कि तूने आज की स्थितियोंका प्रत्यक्ष नहीं किया। आज शायद तुम्हारी वर्जनाओं को तुम्हारी संतान सह नहीं पाती।उसेअपने मार्ग की बाधा सनझ लेती। आज तुम उनका अनुगमन करती। वह तम्हें नये युग की वास्तविकताओं से परिचित कराती। तुम्हें भौतिकतावादी वास्तविकताओं के अनुरूप ढालने की कोशिश करती।
— पर, माँ तो माँ होती है न हर युग में–!!युग के व्यवहार बदल जाते हैं,अपेक्षाएँ बदल जाती हैंपर माँ का हृदय शायद नहीं बदलता।माँ का हृदय युग सापेक्ष नहीं होता,युग निरपेक्ष होता है।सन्तान का माँ के प्रति प्रेम युग की माँगों के अनुरूप होता है। तभी तो,मैं जो वृद्धावस्था मे प्रवेश कर गयी माँ हूँ निरंतर इस शंका सेआशंकित हूँकि मेरी पूरी उपयोगिता समाप्त हो जाने पर कहीं आसन्नमृत्यु वृद्धों की सेवा करनेवाले किसी आश्रम में न भेज दी जाऊँ।फिर भी मैं माँ हूँ,न।मेरे घर पर रहने सेमेरे बच्चों को होनेवाले कष्ट की कल्पना कर कहीं यह प्रस्ताव स्वीकार नकर लूँ।आशीर्वाद के हाथ उठा जीवन भर उनके सुखी रहने की कामना तब भी कर बैठूँ।मैं माँ हूँ न। मुझसे बहुत सारी अपेक्षाएँ हैं। ना कहने काअधिकार नहीं मुझे।यह अधिकार मात्र संतान को प्राप्त है।कब किस बिन्दु पर एक गिलास पानी देने के लिए वे ना कर दें,दो कौर खाना देने मे वे हिचकिचाहट प्रदर्शित कर दें—यह उनका अधिकार है।
पर मैं माँ हूँ।गलत काम करते बच्चों को नहीं देख सकती ।वर्जनाएँ छोड़ नहीं सकती। पर लगता है अपनीमहत्ता को स्थापित करते करते कहीं ज्यादा मुखर न हो जाऊँ मुझेमुँह बन्द ही रखना होगाअन्यथा कहीं यह न सुन लूँ—“अरे—तू कैसी माँ है?समझ मुझे।मै आवश्यक काम मे व्यस्त हूँ।पानी खुद ले ले।“
—-मन सिहर उठता है।कहानियोँ क्या बिल्कुल सही होती हैं—-जहाँ एक ग्लास पानी के लिएतड़प कर माएँ मत्यु कीगोद में चली जाती हैं?क्या जीवन का अवसान ऐसा भी हो सकताहै!
—– कल एक समाजसेवी अचानक एक प्रश्न कर बैठे—बताइये—गायों को कब बूचरके हाथों बेच देना चाहिए-और माँओं को कब वृद्धाश्रम में भेज देना चाहिए? आज के उपयोगितावादी समाज में यहआम प्रश्न तो हो ही सकता है।गाएँ भी तो गोमाताएँ हैं उनसे ही माँओं की तुलना कर दी तो क्या।मैंक्षण भर को सन्न रह गयी।दोनों की एक स्थिति और अंतिम परिणति!!बूचरखाना ही गोमाता और मानव माता की समान परिणति होनी चाहिये?आश्चर्य तो तब हुआ जब नागरी और ग्रामीण दोनों स्तर पर यह सोच सारेसमाज की तार्किक सोच हो रही है।
— खैर! जरा पीछे जाकर झाँकूँ ।मेरी माँ—!तुम्हारी माँ कैसी थीं!उनका ममत्व कैसा था !–आज के जैसाही!—उन्होंने तुम्हें क्या सिखाया था—क्या उन्होंने ही तुम्हें सामाजिक बंधनों में इतना जकड़ डाला था कितू कभी जली, कभी मरी,आहत स्वाभिमान को मन ही मन पीती रही,विद्रोह नहीं किया? उनके पास राहें नहीं थीं ।वेतो स्कूल भी नहीं गईं थी कभी– शायद । सामाजिक मर्यादाके बंधनों प्रताड़नाओं को कभी खुशी कभी नाखुशी सेचुपचाप सह ली—और घर की दीवारों के अन्दर मरने के लिए सन्तान का मुँह जोहती रहीं । कुसन्तान की बात छोड़ दो क्या सुसन्तान ने उनकी मर्यादाओं का रक्षण किया था ?क्या उन्होंने घर की दीवारौं से कभी विद्रोह किया था ?नहीं किया न!क्यों कि वे भी माँ ही तो थीं। सन्तान मोह में सब कुछ लुटाने को तैयार।मातृत्व पोषण के अतरिक्त उनके पास शायद अन्य कार्यों का अभाव था। सम्पन्नता उनकी मर्यादाओं का रक्षण करलेती थी।विपन्नता में गोबर सने हाथों का महत्व शायद सन्तान समझ लेती थी।चूल्हे फूँकती लाल आँखों काकष्ट उनकी संतान या तुम मेरी माँ– समझती थीं।दौड़कर घड़े से ढालकर एक ग्लास पानी तो अवश्य तुम देती होंगी।अशक्यता की स्थिति में तुमने सेवा भी की होगी।पता नहीं, अतीत केभीतर के युगों की यह एक सुमधुर कल्पना है या वास्तविकता या कि भ्रम मात्र।
— पर, कभी कभी ऐसा लगता है कि हर युग में,अपनी विलग विलग परिस्थितियों में माँओं औरसन्तानों की भूमिका एक ही रही होगी।हमें यही सोचकर सन्तोष करना होगा और अपनी माँ की भूमिका की पवित्रता से कभी इन्कार नहीं।एक माँ की सनातन सोच से माँ इतर नहीं हो सकती।
—-बढ़ती सन्तान से उसकी समझ औरसम्मोहकी दूरी युग की दूरी भी तो हो सकती है।मुझे यह समझ लेना चाहिए । आखिर मैं माँ ही हूँ न-।
—- चिन्तन का एक दूसरा पहलूमुझे सन्तानों की उन भावनाओं में झाँकनें को विवश करती हैजिनका सम्पूर्ण रूप से पोषण नहीं हो पाता था और जिनको अभिव्यक्त करने का अधिकार भी तुम नहीं देती थीं,उससे तुम्हारे अधिकार चोटिल हो सकते थे।गृह व्यवस्थाओं पर ,पारिवारिक एकता पर असर पड़ सकता था।तुम्हारी दृष्टि से बुजुर्गों का मान भंग हो सकता था।अतः तुम्हारी बातों को मानने के सिवा बाल मन के पास चारा भी क्या था।बह स्वतंत्रता जो मैं,तुम्हारी संतान पाना चाहती थी ,जिसे मैं स्वच्छंदता की संज्ञा देती हूँ, तुम नहीं देती थीं।पाँव बँधे होते थे, दिशाएँ निश्चित होती थीं।कदम गिने होते थे आगे कुछ नहीं होता था।अपनी उपलब्धियों से पहले तुम ही उनकी उपलब्धियों और अनुपलब्धियों का हिसाब रख लेती थीं।तुम्हारे लिए प्रेम का महत्व तो बहुत था पर उसे प्रदर्शित करना आवश्यक नहीं था विशेषकर बच्चों के प्रति।मर्यादा का स्थान प्रेम से कहीं ऊँचा होता था ।याद है,विदेश जाने के अवसरों को मुझे त्यागना पड़ा था,इसलिए कि मेरे बुजुर्गों को मेरे इस अप्रत्याशित कदम पर आपत्ति हो सकती थी।पर आज ऐसा नहीं है माँ।मुझे सोचना पड़ता है कि सन्तान की इच्छाएँ अधूरी न रह जाएँ।स्वच्छंदता की सीमा नछूए तो अच्छा पर,पूर्ण स्वतंत्रता उन्हें प्राप्त हो।उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो।
— आज, मैने देखा है,–माँओं की वर्तमान पीढी, बच्चों को उनके भविष्य के उच्चतम शिखरतक पहुँचाने को तत्पर अपनी सारी सोच और सुविधाएँ लगा देती हैं।परिवार या समाज के दूसरे सदस्यों की वर्जनाओं की परवा नहीं करतीं।अपनी ममता को उनके भविष्य के आड़े नहीं आने देतीं।अपनेअधिकारों को भी उनके आड़े नहीं आने देतीं।वे कल की सफल और आज की सक्षम माँएँ होंगी।किन्तु फिर दृष्टि जाती है वर्तमान युग की उस तथाकथित व्यावहारिक सोच की ओरजब सन्तान माँ से तर्क वितर्क करते हुए यह भूल जाती हैकि इस वैचारिक स्थिति तक,इन उपलब्धियों तक उसे पहुँचाने में उनकी माँओं की क्या भूमिका रही थी।कहीं स्वार्थपूर्ण अतिभौतिकवादी सोच उन्हे विकास में बाधा मान गोरक्षण गृह की तर्ज पर किसी ओल्ड एज होम का दरवाजा न दिखा दे। आज की परिस्थितियों में एक बार माँओं को यह भय सताता ही होगा। क्या जानें ,आज की माँए उसे सहज स्वीकार कर लेंगी या नहीं।करना पड़ेगा शायद। भौतिकवादी सोच की बुनियाद भी तो उन्हींने डाली है
— सिक्के के दोनो पहलुओं को देखकर ऐसा लगता है–,समझौता तो मुझे ही करना पड़ेगा।क्योंकि मै माँ हूँ।—-
आशासहाय 4-05—2016—।
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