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समस्याएँ समझदारी की माँग करती हैं।

चंद लहरें
चंद लहरें
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बात शायद बहुत पुरानी नहीं हुई है और जब बात राष्ट्रीय समझदारी की हो तो कभी पुरानी नहीं हो सकती।समस्याएं बहुत सी हैं पर जो समस्या एकशब्द को लेकर हमारे कुछ महत्वपूर्ण नेताओं के मन में उठती है और वहभी ऱाष्ट्रीय स्तर के लोक प्रिय नेता के मनमें ,वह चौंकानेवाली अवश्य है।“हिन्दी हैं हम,वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा”मेप्रयुक्त शब्द –हिन्दी- हमारे नितान्त जागरुक   नेताओं को क्यों नहीं पच रहा यह समझ में नहीं आता।वैसे तो हिन्दी एक भाषा हैजो उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश,बिहार झारखण्डहरियाणा छत्तीसगढ,दिल्ली उत्राखण्ड,हिमाचल प्रदेश ,चण्डीगढ़ आदि में मूल भाषा के रूप में और अन्य सभी राज्यों में भी कुछ प्रतिशत लोगों के द्वारा बोली जाती है।प. बंगाल और महाराष्ट्र में भी यह क्रमशः सात और ग्यारह प्रतिशत लोगों के द्वारा बोली ही जाती है।सिन्धुनदी तट से जुड्े होने के कारण सिंधवी , स को ह उच्चरित करनेके कारण हिंदवी और वाक सरलीकरण प्रक्रिया के तहत हिंदी शब्द के रूप में परिवर्तित हो गयी,जिसे  अधिकांश  प्रदेशों में बोले समझे जाने के कारण  राजभाषा का गौरव तो प्राप्त   है ही,राष्ट्रभाषा  गौरव भी प्राप्त होना चाहिएऔर पूरे देश की सम्पर्क भाषा बन एक विदेशी भाषा अंग्रेजी की जगह लेनी चाहिए। टूटे फूटे स्वरूप में ही सही पर उसे बोलने का यत्न हर जगह होना चाहिए।इस मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के लिए आपस मे सहयोग और और एक दूसरे की भाषा को अपनाने की तत्परता दिखाने की भी आवश्यकता होनी ही चाहिये, जोएक सकारात्मक प्रयत्न के तहत सबको स्वीकार्य होना चाहिए।

जहाँ तक बात हिन्दी भाषा की है यह स्थिति कोई नयी नहीं कि,दक्षिण भारत और बंगाल उसे मानने को तैयार नहीं। उनके अनुसार क्या बाँग्ला या दक्षिण भारतीय भाषाओं को यह दर्जा दिया जाय –यह प्रश्न उनसे ही पूछा जाय अगर वे विवेकपूर्ण उत्तर दे सकें तो।या एक देश की एक राष्ट्रभाषा का सिद्धान्त ही इन राज्यों की दृष्टि से दोषपूर्ण है.? आरम्भ से यह विवाद का विषय है और हिन्दी के विरोध में सदा से आवाजें उठायी जाती रही हैं।

पर  हिन्दी शब्द का प्रयोग –हिन्दी हैं हम –में भाषा के दृष्टिकोण से नहीं किया गया।हिन्दुस्तान के सभी निवासियों को इस सम्बोधन से गौरवान्वित करने की चेष्टा की गई।किन्तु हमारी सहृदय नेता ममता बनर्जी को शायद इस सम्बोधन से ऐतराज है-क्योंकि जैसा अखबारों मे छपे समाचारों से प्रतीत हुआ कि हिन्दी शब्द के उस अर्थ से भी वे सहमत नहीं हैं।वे हिन्दी नहीं बंगाली हैं।क्या बंगाल उनकी दृष्टि से पृथक राष्ट्र है?  ऐसे विचारों को तो अलगाववादी विचारों की संज्ञा दी जा सकती है। बंगाल का यह अहंकार कि वे बाँग्लाभाषाभाषी हैं,- शेष भारत से अलग उन्हें बँगलादेशी दृष्टिकोण का पोषण करता सा प्रतीत होता है।ऐसो स्थिति में बंगाल पर बँगलादेशी और अन्य विदेशी मुस्लिमों को समय समय पर शरण देने का आरोप लगना कुछ मायने रखता सा प्रतीत होता है।शरण देना और बात है पर” हिन्दी हैं हम” में   स्वयम के हिन्दी नहीं होने की जिद पालनाऔर तत्सम्बन्धित आक्रोश व्यक्त करना एक अति महत्वाकांक्षिणी मुख्य मंत्री के लिये सर्वथा अशोभनीय सा लगता है।

दूसरा विवाद अपने पुराने रवैये के साथ एक संस्था आर एस एस के साथ है।सारे तथाकथित पार्टियों ने उसे अछूत संस्था का दर्जा दिया सा प्रतीत होता है । यह सत्तारूढ़ दलके प्रति अपनी खुन्नस निकालने का सबसे सशक्त माध्यम है।राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की लाठी उन्हें बंदूकों से अधिक सशक्त लगती है।किन्तु यह बात देशहित में ही है। हर मुसीबत की घड़ी में देश की सहायता करने को तत्पर यह संस्था उन्हें इसलिए अप्रिय है कि वह हिन्दुत्व को प्रश्रय देती है। कालक्रम से इस संस्था ने भी अपने स्वरूप को बदला है,उसे देशकाल के अनुरूप बनाया है। कट्टर लोग कहाँ नहीं हैं पर इस ऩिन्दनीय कट्टरता के कारण सम्पूर्ण संस्था के साथ द्वेषपूर्ण रवैया रखना कहीं से भी सही प्रतीत नहीं होता।मोहन भागवत के निमंत्रण पर  पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का उनके कार्यक्रम मे सम्मिलित होना एक बहुत अच्छा कदम था । यह कार्य उनके मर्यादा के अनुरूप था किन्तु काँग्रेस का इसपर हंगामा खड़ा करना एक गैर समझदारी का प्रदर्शन ही कहा जा सकता है।अब चौबीस अगस्त को नानापालकर स्मृति समिति केस्वर्णजयंती कार्यक्रम के अवसर पर शरीक होंगे रतन टाटा।बम्बई में टाटा मेमोरियल हास्पीटल में कैंसर पीड़ितों के लिए उनकी सेवा सहाय्य के लिये वे उपकृत हैं। यह एक बहुत अच्छा कदम होगा।यह जहाँ उनके विचारों की उदारता प्रदर्शित कर सकेगा वहीं इस संस्था की भावनाओं में अधिक उदारता का समावेश कर सकेगा। किन्तु ठीक स्थिति के विपरीत इसपर भी विवाद खड़े होने की आशंका है ही।

इस देश मे चुनावों के समीप आते ही विवादों की सृष्टि की जाती है, असन्तोष का जहर फैलाने की चेष्टा होती है और सोये हुए नाग भी फन फैलाने की कोशिश करते हैं। हर बात पर संविधान तोड़ने की आशंका व्यक्त कर दी जाती है। ये, मानो  चुनाव जीतने के  कुछ टोटके हैं जिनका सहारा विभिन्न दलों को लेना ही पड़ता है।

देश की एकता , सबके लिए समान न्याय की भावना को ठेस पहुँचाने वाला एक अन्य विवाद भी उभर कर सामने आने की कोशिश कर रहा है । मुस्लिम संगठनों ने अपनी छत्रच्छाया मुस्लिम पर्सनल लाँ के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में शरिया कोर्ट खोलने की योजना बनायी है।अगर उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जाती तो वे देश तोड़ने की धमकी देते हैं। यह एक अत्यधिक संवेदनशील विषय बन सकता है।यह भारत के नागरिक होकर भी भारतीय संविधान से विरोध करने का मामला प्रतीत होता है।वस्तुतः देश के अन्दर धर्म के नाम पर विभाजनकारी साजिश की गंध आती सी प्रतीत होती है।इधर राहुल गाँधी मुस्लिमबुद्धिजीवियों से मिल उन्हें अपनापन का संदेश देते प्रतीत हो रहे हैं ,चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए दिशा निर्देश माँगते प्रतीत होते हैं और देश के अन्दर शरिया कानून लागू करने की जिद।धर्म के नाम पर इनकी जिदें देशहित, उसकी अखंडता पर भारी पड़ सकती हैं। जनसंख्या नियंत्रण के किसी कानून का प्रतिपालन को ये बाध्य नहीं। यह खुदा की देन है जिसमें कोई बाधा स्वीकार नहीं की जाएगी। ऐसी मान्यता तो अन्य धर्मावलम्बियों की भी है पर देशहित की बलिवेदी पर इन मान्यताओं को कुर्बान कर देना श्रेयस्कर है, ऐसा वे समझने लगे हैं। इस सम्बन्ध में एक देश एक कानून का लागू होना  आवश्यक प्रतीत होता है । ऐसी स्थितियाँ एक बार पुनःसन1947 की स्थितियों की याद दिलाती सी लगती हैं या तो एक बार फिर मुगल शासन दरवाजे पर दस्तक देता सा प्रतीत होता है या फिर आजादी पूर्व की विभाजक स्थितियाँ झाँकती सी प्रतीत होती हैं।देश के सर्वोच्च  न्यायालय और सरकार द्वारा इन  अनुचित महत्वाकाक्षाओं पर लगाम लगाने की आवश्यकता है।हम सब इस बात की वकालत से करते प्रतीत होते हैं किभारत में विभिन्नता में एकता ही इसकी विशिष्टता है।unity in diversity.इस देश के विशाल अस्तित्व का यह रहस्य है।किन्तु उपरोक्त और कुछ अन्य स्थितियाँ जिस प्रकार देश के संघीय ढाँचे को चुनौती देती प्रतीत होती हैं ,लगता है सिर्फ diversity   ही न शेष रह जाए और unity के अस्तित्व का उसी में लोप न हो जाए।

कश्मीर अलग राज्यीय झंडे की माँग करता रहा है और अब कर्णाटकने भी अपने अलग झंडे की माँग करनी शुरू कर दी है। लाख दबा देने के पश्चात भी यह उनकी आवाज तो है ही।एक देश एक झंडा एकत्व का प्रतीक है।पर हम इस प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति से भी खिलवाड़ करना चाहते हैं।

ये सब तो सामूहिक स्थितियाँ हैं पर अभिव्यक्ति की आजादी के तहत कोई कुछ भी बोलने से नहीं चूकता। या तो इस देश की बौद्धिकता शीर्ष पर पहुँच गयी है और उसमे विस्फोटक तत्वों का समावेश हो गया है तभी गाहे बगाहे लोग ,या नेतागण  अशोभन बयान देकर भी मुस्कुराते रहते हैं।  अभी अभी देश के भविष्य की कल्पना में “हिन्दु पाकिस्तान” की बात आती है जिस कल्पना को वे सार्वजनिक भी करते हैं। यह एक ऐसी कल्पना है जो अपनी सम्पूर्ण व्याख्या खोजती है।  ये कल्पनाएँ समाज में विष वपन करेंगी—इस जिम्मेदारी से वे किस प्रकार भाग सकते हैं?भारत कभी पाकिस्तान नहीं बन सकता। इसका नजरिया सदैव उदारवादी रहा है और रहेगा।सभी वर्गों समुदायों और धर्मों का समान रूप से पोषण को यह प्रतिबद्ध है। अतः ऐसे वक्तव्य एक भय भरे अप्रौढ़ चिंतन के ही परिणाम हो सकते हैं।

संविधान के लगातार संशोधन काँग्रेस के शासन काल में हुए। हमारा संविधान लचीला भी है । संशोधनों के लिये उसमें जगह है तभी संशोधन हुए और कुछेक को छोड़कर सभी को देशहित मे भारतीय जनता ने स्वीकार किया ,उसे अपनाया । भारतीय जनता उदारमना है। एकाध खामियाँ अगर संशोधनों में दीखती भी हैं तो कालक्रम में दूर हो जाने की आशा में उसे नजर अंदाज भी करती है।तब नया संविधान लिखा जाने का डर विपक्ष को क्यों सताने लगा है ,समझ में नहीं आता।वस्तुतः भय उन विकास कार्यों से है जिसकी ओर पिछली सरकारों ने इमानदारी से ध्यान नहीं दिया।

धटनाएँ बड़ी तेजी से करवटें बदल रही हैं। राहुल गाँधी केद्वारा स्वयम को मुसलमानों का नेता कह डालना  बिल्कुल अप्रौढ़ तथा महबूबा मुफ्ती का पी.डी.पी.मे टूट के लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेवार ठहरा देना तथा इस संदर्भ मे कई सलाउद्दीन के पैदा हो जाने की धमकी दे देना अवश्य ही आतंक समर्थित दृष्टिकोण सा प्रतीत होता है।

वस्तुतः यदोनों नेताओं का मन्तव्य ऐसा नहीं हो सकता पर ऐसे नासमझ, गैर जिम्मेदाराना वक्तव्यों से घोर निराशा होती है। इस देश को अभी भी समस्याओं के समाधान के लिए समझदारी की आवश्कता है।

 

आशा सहाय  14-7—2018–।

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