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मनुष्य जब संघर्ष की भट्टी में स्वयं को तपाता है तभी वह कुंदन बन कर उभरता है. ओमप्रकाश क्षत्रिय जी ने भी जीवन की चुनौतियों का सामना करके ही स्वयं को लेखन के क्षेत्र में प्रतिस्थापित किया है.
26 जनवरी 1965 को मध्यप्रदेश के भानपुरा जिले में आपका जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ. पिता श्री केशवराम परमानंद क्षत्रिय ग्वालियर रियासत में सिपाही थे. माता सुशीलाबाई क्षत्रिय एक धार्मिक विचारों की महिला थीं. बचपन से ही आपका जीवन संघर्षमय रहा. स्वयं को शिक्षित करने के लिए आपने किसी भी वैध काम को करने में संकोच नहीं किया. यहीं से कर्मठता आपके चरित्र का अभिन्न हिस्सा बन गई.
लेखन में आपकी रुचि बचपन से ही थी. छोटी उम्र से ही आपकी रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं. अपनी हर प्रकाशित रचना को काट कर आप संग्रहित कर लेते थे. एक बार पिता ने उन्हें रद्दी कागज़ जान कर बेंच दिया. जब ओमप्रकाश जी ने बताया “बाबूजी वो मेरी रचनाएं थी.” तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहा “तो क्या हुआ और लिख लेना.”
ओमप्रकाश जी ने बिना साहस खोए पुनः सृजन आरंभ कर दिया. 1984 में आपने हायर सेकेंड्री की परीक्षा गणित विषय के साथ प्रथम श्रेणि में उत्तीर्ण की. कई इंजीनियरिंग कॉलेज से बुलावा आया किंतु आर्थिक तंगी के कारण आप दाखिला ना ले सके. आपने नौकरी के लिए आवेदन किया. चार जगह फार्म भरे. पहला नियुक्ति पत्र शिक्षा विभाग से आया. आप शिक्षक बन गए. लेकिन लेखन में आगे बढ़ने की चाह थी. आप कहानी लेखन महा विद्यालय अम्बाला छावनी से लेख रचना का कोर्स करने लगे. आगे पढ़ने की भी चाह थी. अतः स्वाध्याय के तहत बीएससी पढ़ने लगे. मगर अंतिम वर्ष में विभागीय अनुमति नहीं मिल पाने के कारण उसे पूरा नहीं कर सके. बीएससी पूरा ना करने पर आपने हिंदी, इंग्लिश तथा संस्कृत
में बीए किया. इसके बाद हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीतिशास्त्र एवं समाजशास्त्र
विषयों से एमए किया. पत्राचार द्वार पत्रकारिता का कोर्स किया.
इसके साथ लेखन भी जारी रहा. इस क्षेत्र में आपके गुरु महाराज कृष्ण जैन जी थे. वह कहानी महा लेखन महा विद्यालय नामक संस्था के संस्थापक थे. अपने गुरू के सुझाव पर आपने अपना लेख सरिता में प्रकाशन हेतु भेजा. इसके अतिरिक्त अन्य लेख भी विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजे जो छप गए. इसके अतिरिक्त
चम्पक, पराग, बालभारती, समझ झरोखा, लोटपोट आदि बच्चों की पत्रिकाओं में कहानियां कविताएं आदि भी छपीं.
गुरुजी के आदेश पर आपने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं जिसे तारिका प्रकाशन अम्बाला छावनी ने अपने व्यय पर छापा. यह पुस्तक शीघ्रता से बिक गई.
एक ही वर्ष में कुछ ही महीनों के अंतराल में माता पिता के देहांत के कारण आपको गहरा धक्का लगा. लेखन के प्रति आपके मन में अरुचि आ गई. इसके कारण लेखन का कार्य कुछ समय तक स्थगित रहा. एक बार फिर आपके दिवंगत गुरू के एक पुराने पत्र ने इन्हें इस अवसाद से निकलने में सहायता की. इसके बाद से आपका लेखन अबाध्य रूप से चलता रहा. आपने कई कहानियां, लघुकथाएं, लेख, कविताएं लिखी. जो समय समय पर देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपती रहीं.
समाज की विसंगतियों को आप सदैव चुनौतियां प्रस्तुत करते रहे. चाहे व्यक्तिगत जीवन में विजातीय विवाह पर उठा विरोध हो या लेखन के क्षेत्र में पुरानी अतार्किक व्यवस्था पर कुठाराघात हो. यही कारण है कि आपके कई लेख जिनमें आपने कई पुराने विश्वासों पर चोट की को स्वीकृत करने के बाद भी प्रकाशित नहीं किया गया. किंतु आप बिना किसी समझौते के अपने अनुसार लिखते रहे. लेखन में आपका क्षेत्र सदैव विस्तृत रहा. आपने साहित्य धर्म एवं आध्यात्म सभी को अपने लेखों में स्थान दिया. सरस सलिल नामक पत्रिका में एक समय सीमा में आपके सेक्स पर लिखे हुए करीब ३५ लेख छपे.
अपनी शर्तों से समझौता ना करने के कारण कई बार आप पुरस्कारों से वंचित रहे. किंतु लेखन के लिए आपको कई प्रमाणपत्र व सम्मानपत्र मिले है.
लेखन के अतिरिक्त आपको पढ़ने का बहुत शौक है. सामाजिक घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता आपको लेखन के लिए विषय प्रदान करती है.
ओमप्रकाश जी अपने लेखन से समाज को नई दिशा दिखा रहे हैं.
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