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कहते है हर हर गंगे, करते है उसको गंदे

सुप्रभात
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मनुष्य समझता है कि मनुष्य को सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है। उसे यह नही पता होता है कि सम्मान का भूखा पशु – पक्षी, नदियॉ – वादियॉ भी होती है। मनुष्य का सम्मान हमें तुरंत समझ में आता है, पर प्रकृति के सम्मान से हमारी जीवन शक्ति बढ़ जाती है और हम लंबी आयु लेकर जीवन जीते है। हमारे हर तरफ खुशियॉ और हरियाली छा जाती है।
देश की प्रमुख पवित्र नदी ‘‘गंगा, यमुना‘‘ जिस मात्रा में प्रदूषित है, क्या उसे देख कर कभी ये अनुभव हुआ होगा, कि ये वही मानव है जो अपने पाप धोने की खातिर इनमें डुबकी लगाने से नहीं चूकता है। दिल्ली की ‘‘यमुना‘‘ तो जैसे उस शहर की एक ‘‘नाला‘‘ बन कर रह गई हो। ‘‘कानपुर की गंगा‘‘ या ‘‘इलाहाबाद में रासूलाबाद घाट की गंगा‘‘ का ही दृश्य देखिये,,,,, शास्त्रों में इनका जो महत्व दिया गया है उस महत्व और इनकी ये हालत से क्या इनके सम्मान को ठेस नहीं लगती होगी।
सरकारें तो कहती है कि हमारी पार्टी में डुबकी लगाईयें हम आपके पाप को ‘‘धो‘‘ देंगेें, इस काम के लिये सरकारों का मुॅह देखना पाप है। सफाई अभियान के लिये आज जरूरत है लोगों में ‘‘जागरूकता‘‘ की, इससे जनता द्धारा ‘‘कारसेवा‘‘ से अपनी गंगा मैया की सफाई करके इनका आर्शीवाद लेने की । एक ‘‘कुम्भ‘‘ ऐसा भी लगना चाहिये, जिसमें इन पवित्र नदियों की सफाई हो, और उसका ‘‘पुण्य‘‘ सभी को मिले।
प्रत्येक वर्ष अनेेक संत – महात्मा अपने भक्त गणों को ‘‘श्रीमद् भागवत् कथा‘‘ का श्रवण करा कर कोई ‘कन्हैया‘ के ‘मंदिर‘ के नाम पर तो कोई ‘‘कन्हैया‘‘ के नाम पर अधिक से अधिक ‘शून्यों‘ वाला ‘‘बैंकर चेक‘‘ लेकर स्वयं फलने फूलने लगते है, पर उसी ‘‘भागवत्‘‘ में ‘‘श्री कृष्ण‘‘ की ‘यमुना‘ को कोई याद नहीं करता। जिस ‘यमुना‘ ने उनके मामा ‘‘कंस‘‘ से ‘‘श्री कृष्ण‘‘ की रक्षा के लिये स्वयं ‘‘वासुदेव‘‘ के कदमो तले सूख गई थी, और ‘वासुदेव‘ यमुना पार कर ‘‘श्रीकृष्ण‘‘ को ‘‘मैया यशोदा‘‘ के हवाले किया था। कहने का मतलब, आज भगवान ‘‘राम‘‘ या ‘‘कृष्ण‘‘ के समय का कोई एक तिनका भी मानव को पता चल जाये, तो वह उसकी पूजा – पाठ करके, उसे टीक – टाक कर उसका मंदिर बना देंगे, वहॉ श्राद्धालुओ की भीड़ लग जाऐगी। वहीं गंगा – यमुना जो साक्षात ‘‘श्री कृष्ण‘‘ के समय की है, उनको गंदा करने में कोई परहेज नहीं है।
महान साहित्यकार ‘‘श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी‘‘ के साहित्य की कुछ लाईन इस प्रकार है – एक मछुआ किसी नदी के समीप होकर जा रहा था, कि रास्ते पर चलते समय उसने सुना – ‘‘मछुऐ ,,,,,,,मछुऐ इधर तो आ‘‘ मछुआ उस आवाज के करीब जाकर इधर-उधर देखता हुआ बोला क्या है,,,,,? तभी उस नदी की घनी काईयो के बीच फॅसी एक छोटी मछली ने उससे सहायता मॉगी ‘‘मै एक छोटी मछली हूॅ और अच्छी तरह तैर नही पाती हूॅ, इस कारण इन लताओं में फॅस गई हूॅ ,तुम मुझे किसी तरह इन लताओं से बाहर निकाल कर एक स्वच्छ जल मेें पहुॅचा दो‘‘। मछुऐ को उस छोटी मछली पर दया आई और उसे काई से निकाल कर नदी के स्वच्छ जल में छोड़ दिया। यहॉ मछुऐ ने मछली पर उपकार तो कर दिया पर नदी में स्थित गंदी काई को वह भुला देता है। वैसे इस कहानी के पूणर््ा होने पर उसका अर्थ, मछुऐ के उपकार और मछली के दोष को प्रगट करता है। क्योकि इस कहानी में मछुऐ ने मछली को देवी का रूप मान लिया होता है। इसलिऐ ज्यो ज्यों कहानी आगे बढ़ती है। उसमें एक दिन यही मछली मछुऐ ‘‘दंपत्ति‘‘ को ‘‘श्राप‘‘ देकर उसे पुःन उसी गरीबी के हवाले कर देती है ,जिस दिन वह पहली बार काईयों के बीच फॅसी उस मछली को बचाया था। यहॉ हम बात कर रहे है नदियोें की साफ सफाई की। इसलिये इस कहानी की ये अधूरी पंक्तियॉ यह भी सिद्ध करती है कि, यदि हम नदियों से काई, घास – फूस ,गंदगी को साफ सुथरा रखंेगें तो यही मछलियॉ पानी में विकसित बैक्टीरिया को खा कर, हमारे लिये स्वच्छ जल बना देती है, जो हमारे पीने योग्य होता है, और समस्त मानव जाति को जीवन मिलता है। वर्ना प्रत्येक वर्ष दूषित जल पीने से कितनी बीमारियॉ लोगो को होती है, और उसमे से भी कितनों की तो जीवनलीला ही समाप्त हो जाती है।
नदियों का पानी नहरों के द्धारा राजधानियों तक तो पहुॅचाया जा सक्ता है पर नदियों को नहीं। सौभाग्यशाली है वे शहर जो प्रकृति के इस वरदान – नदियों के तट पर बसे है और यह शाश्वत सत्य है कि सभ्यताऐं नदियों के किनारे ही विकसित हुई है। विश्व में हमारे देश की संस्कृति ‘‘गंगा – यमुना संस्कृति‘‘ के नाम से जानी जाती है। क्योकि यह इन्ही नदियों के तट से विकसित हुई है। नदियो के प्रति हमारे ऋषि – मुनियों की मान्यता ‘‘मॉ‘‘ के रूप में रही है लेकिन हमारे आचरण उसे संजोने में पुत्रवत नहीं है। हम नदियों को ‘‘मॉ‘‘ पहाड़ों एवं वृक्षों को ‘‘देवता‘‘ मानकर पूजा करने वाली संस्कृति के अनुयाई है। लेकिन हम अपनी मॉ को मैला और जर्जर होने से नहीं बचा सकें।
प्रगति के इस अंधी दौड़ में आज ‘मानव‘ ने ‘मानव‘ के अंदर जो ‘‘विष‘‘ घोला है। उससे जीवन की ‘‘मूल शंाति‘‘ नष्ट हो गई है। जीवन का एक ही मार्ग रह गया है – अज्ञानता एवं अपराध। भारतीय परंपरा एवं संस्कृति में जीवन का जो मूल तत्व है, वह है – जीवन का आधार व्यवस्थित रहे। लेकिन शांति न छिने बल्कि शांति बनी रहे इसलिये सभी में प्रकृति के इस रूप को ‘‘मॉ‘‘ एवं ‘‘देवताओं‘‘ की मान्यता देकर मनुष्य स्वयं के अनुशासन से उसे संरक्षित करने की मनोबैज्ञानिक आचार संहिता के रूप में गढ़ा था। और इसीलिये नदियों को ‘‘मॉ‘‘ और पहाड़ों को ‘‘देवता‘‘ मानकर पूजा करते चले आ रहे है।
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हदय नहीं पत्थर है। जिसे नदियों से प्यार नहीं।।
लेखक – आशीष शुक्ला

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