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ट्रेन की खिड़कियॉ किसी फिल्मी पर्दे से कम नही

सुप्रभात
सुप्रभात
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viewfromwcexpressट्रेन की खिड़कियॉ किसी सिनेमाई पर्दे से कम नही होती, जहॉ बाहर दिखने वाला नजारा हर पल बदलता रहता है। ये खिड़कियॉ हमें यह अहसास कराती हैं कि हम किसी थियेटर मे मूवी देखने बैठे है। मजेदार बात तो यह है कि ट्रेन जितनी स्पीड मे होती है, उसे देखकर हम उतना ही रोमान्चित महसूस करते हैं। जितना कि किसी थियेटर मे करते है।
डिब्बों से जुड़ी एक श्रृंखला में दो पटरियों के पथ पर चलकर, अपनी सवारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती हुई। यह लोहपथगामिनी की चाल लाजवाब है। इसे देखने का आकर्षण सिर्फ बच्चों में ही नहीं बड़ों में भी होता है।
जब भी मैं किसी बोगी की एमरजेन्सी विन्डो सीट पर बैठा होता हूॅ, तो बाहर देखता हूॅ कि किसी फिल्मी केरेक्टर की तरह ये पेड़-पौधे दौड़ भाग रहे हों। घने जंगल को देखकर लगता है जैसे घोड़े पर सवार कोई फौज मुस्तैदी से आगे बढ़ी जा रही हो। रेल के पटरियों से कटक फटक की आवाज घोड़ो के टाप को महसूस करवा रही हो।
टेªन जब शहरी क्षेत्र से गुजरती है तो गगनचुम्बी इमारते तो एैसा प्रतीत होती कि जैसे किसी एक्शन हीरो पर फिल्माया जा रहा एक्शन शॉट दे रही हो। वाकई ये नजारा तो सिनेमा हाल मे बैठे किसी मूवी को देखने मे खो जाने जैसा होता है, और मैं फिर से एक बार दर्शक बन जाता हॅू। यहॉ पर भी बेन्डर, मूमफली वाले, चने वाले, से मुॅह का स्वाद भी बदलता रहता है।
मुझे लगता है कि हाऊसफुल सिनेमा हाल की तरह अब मेरी बोगी भी फुल हो गई है। यात्रियो और दर्शको में यहॉ पर यही एक फर्क दिखता है कि ज्यों ज्यों रेल अपने मुकाम की तरफ बढ़ती है वैसे वैसे उसमे सवार यात्रियों की संख्या घटती बढ़ती रहती है।
रेल परिवहन का सस्ता और मुख्य साधन है। भारत में इसकी शुरुआत 1853 में अंग्रेजों द्वारा की गई थी वे इसका उपयोग अपनी प्राशासनिक सुविधा के लिये किया करते थे। 19 वीं सदी के मध्य से 20 वीं शताब्दी तक यह भाप के इंजनों से चलती थीं। पर अब डीज़ल या बिजली ऊर्जा से चलने वाला इंजन इन्हे खींचता है।
चाय बेचता वो बूढ़ा ‘वेन्डर‘ मेरे इर्दर्गिद अपनीं केतली लिये खड़ा रहा, तब तक मेरे भीतर की चाय की तलब भी जाग जाती है। उगते सूरज के साथ भाग रही ये रेल, खेत खलिहान दिखा कर पूरे ग्रामीण जीवन के रहन सहन का एहसास करवा रही होती है।
चलते चलते जंगल मे घुस जाती है, जंगली जीव दिखाने लगती है। हरियाली दिखाती बताती कि देखो कितनी प्यारी है धरती हमारी। झीले, नदियॉ, वादियों के कई रूप दिखाती जाती, इस नजारे पर यात्री फूले नही समाये।
धीरे धीरे रात हो गयी सबने बिस्तर खोला और सुबह होने तक सो गऐ। टेªन की गति से मानो एैसा प्रतीत हो रही हो कि ट्राली शॉट से गोल-गोल घूम कर धरती को शूट किया गया हो और हम कंम्पार्टमेन्ट में सिनेमा हाल की सीट पर बैठे ये नजारा देख रहे है।
मौसम के अनुसार सफर के मिजाज भी बदलते रहते है। मई और जून के महीनों में, जब पहाड़ियां भूरी और सूखी हो जाती हैं, गर्मियों के आगमन के साथ ही चारो तरफ गर्म हवा के साथ सूखे जंगल ही दिखते रहते है सूखी पत्तियों के बीच से बहती हवाओं की भयावह सरसराहट डरावनी सी लगती है इसी मे रात के घने अंधेरे मे जंगलो से गुजरती ट्रेन की कटक कटक की आवाज के साथ उसकी सीटी सचमुच भयावह बना देने वाला नजारा होता है। जैसे फिल्मो मे हमारे नायक पर विलेन की कोई साजिस का मंडराता कोई खतरा पैदा हो गया हो।
रेलवे लाईन के किनारे बेरियो की झाड़ियॉ उगी होती है, क्योंकि इस मौसम में बेरियां पक चुकी होती हैं। दिन के किसी एक पहर मे सिगनल न मिलने के कारण ट्रेन किसी जंगल मे खड़ी हो गई तो समझो कुछ यात्री इन्हीं बेरियो पर ही टूट पड़ते है।
कभी कभी सफर के दौरान हमें एैसे सीन भी देखने को मिलते है – खेतों की कटाई होने के बाद उसमें हरे तोतों का एक झुंड ने धावा बोला होता है लेकिन वे बेचारे अचानक टेªन आने की धड़धड़ाहट सुनते ही तोतों का झुंड हवा में हरे रंग की एक लहर बनाते हुए उड़ जाता है।
टेªन ने सफर के दौरान जब टनल दिखाई दी अंधकार से डरे सहमे लोग लाईट चालू कर देते है और शोर गुल मे खुशियॉ महसूस कर है लोग। पहाड़ों को देखकर यकीन नहीं होता कि मनुष्य इनके दिलो को भेद कर कैसे टनल बना लेगा, मनुष्य बुद्विमान है तो ये पहाड़ भी जिद्दी होते हैं। विस्फोट करके उनके दिल में छेद करके सुरंगें, सड़कें और पुल बना दें, लेकिन हम इनको इनकी जगह से बेदखल नहीं कर सकते। ये अपनी जगह छोड़ने से इनकार कर देते है। फिर भी ये हमें रास्ता दे देते है।
जैसे-जैसे टेªन प्लेटमार्म के करीब आने लगती हैं, बोगी का माहौल अजीबोगरीब रूप अख्तियार करने लगते हैं। हालांकि सफर अभी बाकी है। पानी वाले, चाय वाले की आवाज यही से ही सुनाई देने लगती है।
वर्षा ऋतु मे पूरी वादी पर हरियाली की चादर-सी बिछ जाती है। इस मौसम मे सफर तब और भी सुहाना हो जाता है जब टेªन किसी झरने के पास से गुजरती है। लोगो को झरने बहुत लुभाते हैं। सुन रहे है ये किलकारियॉ और सीटियॉ खंडाला का ये झरना वाकई यात्रियों का मन मोह लिया, डायवर भी गाड़ी की स्पीड धीमी कर देते है ताकि लोग इस मनमोहक जगह का आनंद उठा लें।
जंगली फूल पूरे शबाब पर होते हैं। तीखी गंध, बेतरह उलझी हुई बेलें और लताओ का ही नजारा चारो तरफ दिखता रहाता है। हल्की नीली रंगत मे आसमान साफ झलक रहा है। बोगी में टिन की छत पर वर्षा की बूॅदें गिरने से किसी ढोल या नगाड़े की तरह बजाती रहती है। वर्षा की झड़ी, एक सुर में बरसती हुई सफर को सुहाना बना रही थी।
आप अपने चेहरे पर पानी के छींटों की ताजगी को महसूस कर रहे होते है। अगर आप के पास साईड लोअर सीट हों तो इस ताजगी के साथ इसकी ध्वनि को लेटे-लेटे सुनने के साथ बाहर के नजारे को देखते हुये मन को मोह लेने जैसा होता है। बाहर बारिश है तो बोगी के भीतर चहल पहल है। अलबत्ता खिड़कियों की कुछ दरारें हैं और उनसे पानी रिसते हुये अंदर आता रहता है, इसके बावजूद यह बारिश हमें खलती नहीं।
बारिश से धुली हुई तराइयां हरे पन्ने की तरह चमक रही हैं। चारो तरफ शुद्व हवा का एहसास हो रहा होता है। बारिश के ऐरिया को पार करते ही एकाएक खुशनुमा नम हवाऐ चेहरो से टकराती हुये पीछे निकलती जाती है, तब कुछ अन्य ध्वनियां भी मेरा ध्यान खींचती हैं, जैसे बोगी मे लगे पंखों से खड़खड़ाहट की आवाज, टेªन के ये पंखे बर्सो से मरम्मत के मोहताज होते है कईयो को तो चलाने के लिये हर यात्री देशी जुगाड़ अपनाता है। अपने जेब मे रखी कंघी से उसकी पंखियो को थोड़ा सा धक्का देते ही ये घड़घड़ाने लगते है उस समय उन्हे देख कर लगता है जैसे वे हमे देख कर मुस्कुराने लगे हो और घक्का देने के लिये धन्यवाद कह रहे हो।
एक लम्हे के ख्याल मे डूबा था कि तभी किसी ट्रेन का हॉर्न जोरों से चीखा और मेरे ऑखो के सामने से वह दूसरे ट्रेक से गुजरने लगी। मै अपनी सीट पर बैठा रहा, मुझे हवा में डीजल की गंध महसूस हुई। ट्रेन की इस चिल्लपौं से मेरी बोगी भी जरा उत्साहित सी दिखी। ट्रेन हमे क्रास कर गई तो पाया कि हमारी गाड़ी भी अपनी पटरी पर धीरे धीरे लुढ़कने लगी है।
जब मैं ट्रेन की ध्वनियों के बारे में सोचता हूं तो एक के बाद एक, कई ध्वनियां याद आने लगती हैं, उसके पहिये जैसे जैसे ट्रेक बदलते है उसकी आवाज, उसके ज्वाईन्टो की आवाज, उसके ब्रेक लगने की आवाज के साथ गर्म लोहे की खुश्बू भी आती है। चैन पुलिंग होते ही वैक्यूम से एयर लीक होने पर छीं….छी…छी…वाली आवाज। सचमुच किसी सिनेमाई पर्दे की तरह हर टविस्ट पर एक नई आवाज सुनने को मिलती है।
किसी देहाती स्टेशन से गाड़ी छूटने से पहिले स्टेशन पर लगे घंटियों की टन……टन आवाज टेªन के लाईन क्लियर होने पर बजाई जाती है। इससे यात्रियो को पता चल जाता है कि गाड़ी छूटने वाली है। ट्रेन की कुछ ध्वनियां ऐसी हैं, जो बहुत दूर से आती हुई मालूम होती हैं। ये हवा के पंखों पर सफर करने वाली ध्वनियां हैं।
जिसने भी स्टीम इंजन की टेªन मे सफर किया होगा उसे अपने सफर के दौरान ये शब्द जरूर महसूस किया होगा कि अब टेªन कह रही हो – ‘‘छः छः पैसा चल कलकत्ता…….. छः छः पैसा चल कलकत्ता………। स्टीम इंजन की यह आवाज बहुत भाती है शायद यही उनकी खूबसूरती है, और ऐसा कहते हुए वह यात्रियो को उनके मुकाम तक पहुॅचा देती है।
शहरों की चहलपहल से दूर बसे किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकी हुई है। चाय की दुकान के ठीक सामने एक छोटा-सा देवस्थल है। देवस्थल क्या, पत्थर का चबूतरा है। उस पर सिंदूर पुता है। पूजा के दौरान अर्पित किए गए फूल जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। सभी धर्मो में से हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो प्रकृति के सबसे करीब है। हिंदू लोग नदियों, पत्थरों, पेड़-पौधों, जीवों, पक्षियों सभी को पूजते हैं। ये सभी उनके जीवन के साथ ही उनकी धार्मिक आस्था के भी अभिन्न अंग हैं।
नदी के साथ-साथ एक सफर आप ब्रिज से गुजरते वक्त उसके पुल के लोहे की खड़बड़ नुमा आवाज को अचानक सुन सक्ते है पर ध्यान तो नदी की जल धारा पर टिकी होती है। ऑखों को सुकून देने वाली जलधारा पर आपको ये आवाज भंागड़े के ढोल जैसी लगती है।
सफर के दौरान किसी नदी के पुल पर से ट्रेन के गुजरने की इस ढोल के संगीत का यात्री इतना अभ्यस्त हो गया होता है कि जब भी वह उससे दूर चला जाता है तो उसे एैसा लगता है पूरे सफर के संगीत मे ये एक अपने आप मे अलग तरह का संगीत है जिसके आने पर हमे किसी नदी का एहसास हो जाता है। लेकिन रामेश्वरम के इस ब्रिज का संगीत जो ट्रेन के बाहर से लिया गया है। यहॉ पर आप उसकी सरसराहट सुन सकते हो। लेकिन आमतौर पर उसकी ध्वनि पर आप ध्यान नहीं दे पाते। क्योकि यहॉ ट्रेन की गति नही है सिर्फ समुन्दर के हवाओं की सरसराहट आपको सुनाई दे रही है।
सर्दियों का मौसम आते ही सफर कोहरे से ढंक जाता है इस मौसम मे कोहरे रेलगाड़ियो की रफतार धीमी कर देते है। मानो वे कह रहे हो ‘‘इंसानो के साथ इंसानो की चाल चलो जानीं‘‘।
जाड़ों की चुभन में यात्री जहॉ तहॉ दुबके होते है सर्द हवाओ से यात्री बचने के लिये बोगी की खिड़कियों पर शीसे चढ़ा देते है दरवाजे चारो तरफ से बंद होते है। चाय-चाय पुकारते वेन्डर के शब्दो नजरे टिकी रहती कि कब पास आ जाये, और चाय की चुस्की का आनंद लिया जाय।
ट्रेन देखने का आर्कषण बच्चों से लेकर बड़ो बूढ़ो सभी मे देखा जा सक्ता है। ये लोग अक्सर उसकी फोटोग्राफी करने के लिये रेल लाईन के इर्द गिर्द उसके आने के इंतजार मे खड़ेे रहते है।
एक सफर ऐसा, जो मनोंजक भी हो और संतुष्टिदायक हो, वो पूरी तरह मेरी आत्मा की गहराइयों में बसा हुआ होता है।

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