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मुंबई की धूल में एक ऐसे फूल थे ‘यशराज’

सुप्रभात
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रखना याद मुझे..जब तक है जान

मेरी टेढ़ी मेढ़ी कहानियाँ, मेरे हँसते रोते ख़्वाब ।

कुछ सुरीले बेसुरे गीत मेरे, कुछ अच्छे बुरे किरदार ।

वो सब मेरे हैं., उन सबमें मैं हूँ ।

बस भूल न जाना, रखना याद मुझे..जब तक है जान ।

मीडिया में आए ये आख़िरी शब्द थे जो निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा ने कुछ दिन पहले अपने सम्मान में रखे एक मीडिया कार्यक्रम में कहे थे.

इन पंक्तियों के एक-एक शब्द जैसे उनके जीवन की कहानी कहते हैं. आज की पीढ़ी जिस तरह शाहरुख़ खान को किंग ऑफ रोमांस कहती है वैसे ही निर्माता- निर्देशकों में ये खिताब बेशक यश चोपड़ा को जाता है.

स्विट्ज़रलैंड में यश चोपड़ा के नाम पर एक झील है क्योंकि अपनी कई रोमांटिक फिल्में उन्होंने यहीं फिल्माई थीं.

लेकिन यश चोपड़ा की शख्सियत को केवल रोमांस में बाँधना उनके साथ बेइंसाफी होगी. आज भले ही उन्हें केवल मोहब्बत और रोमांस के लिए याद किया जाता है लेकिन 60 और 70 के दशक में उनकी सृजनशीलता बिल्कुल दूसरे शिखर पर थी.

‘वक्त’ की ‘दीवार’ ढहाता ये जोशीला नौजवान नए नायक गढ़ रहा था। सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े हुए गुस्सैल नायक को रुहानियत से कैसे रूबरू कराना हो इसकी कला भी यश चोपड़ा से बेहतर शायद ही कोई जानता हो। ऐसा लग रहा था जैसे एक ही सिक्के के दो पहलुओं को पर्दे पर उकेरा जा रहा हो।

अपने बड़े भाई के साथ फिल्मों में काम करने के बाद यश चोपड़ा की निर्देशन में नींव 1959 में धूल का फूल और धर्मपुत्र जैसे सामाजिक विषयों वाली फिल्मों से पड़ी थी.

धर्मपुत्र में उन्होंने बंटवारे के ज़ख्म लोगों के सामने रखे तो 1965 में उन्होंने फिल्म वक़्त के ज़रिए करारा प्रहार किया. कौन भूल सकता है वक़्त का वो गाना- ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं..

इतने बड़े पैमाने पर मल्टीस्टारर फिल्म शायद लोगों ने नहीं देखी थी. परिवार के बिछड़ने और मिलने का जो फ़ॉर्मूला वक़्त में उन्होंने अपनाया वो हिंदी सिनेमा में बरसों बरस चलता रहा और चल रहा है.

हाल के बर्षों पर यश चोपड़ा पर एक तरह की या केवल रुमानी फिल्में बनाने का आरोप लगता रहा है. लेकिन यश चोपड़ा को केवल रोमांस के चश्मे से देखने वालों को शायद उनकी फिल्म इत्तेफाक़ देखनी होगी. 24 घंटों में सिमटी ऐसी स्पसेंस फिल्म मैने हिंदी सिनेमा में कम ही देखी है.

पाकिस्तान में जन्मे यश चोपड़ा पर परिवार से इंजीनियर बनने का दबाव था लेकिन यश चोपड़ा को तो फिल्मों का रोग लग चुका था. सो अपने बड़े भाई बीआर चोपड़ा के पास वो भी मुंबई आ गए.

70 के दशक में उन्होंने एक से एक बेमिसाल फिल्में बनाईं. अमिताभ बच्चन-सलीम जावेद-यश चोपड़ा के घातक तालमेल ने दीवार और त्रिशूल जैसी फिल्में दीं. अमिताभ बच्चन को बुलंदियों पर पहुँचाने में यश चोपड़ा का भी हाथ रहा. दाग में दो पत्नियों के बीच संघर्ष करते व्यक्ति की दास्तां कहने की हिम्मत तब उन्होंने की. जीवन की वास्तविकता और कठोर सच्चाईयों से रूबरू करवातीं फिल्मों के बीच उन्होंने सिलसिला और कभी कभी भी दी.

80 का दशक यश चोपड़ा के लिए भटकाव वाला दौर रहा. दर्शक के तौर पर मैं 80 के दौर की उनकी ज़्यादातर फिल्मों से सामांजस्य नहीं बना पाई.

एक इंटरव्यू में ख़ुद यश चोपड़ा ने कहा था कि 80 के दौर में उन्हें अपनी ही एक फिल्म का पोस्टर देखकर लगा था कि उनकी फिल्मों में केवल पोस्टर पर से सितारों के चेहरे बदल रहे हैं, कहानी वही रहती है. तब उन्होंने चाँदनी बनाई. स्विट्ज़रलैंड की वादियाँ, ख़ूबसूरत नज़ारे, रोमांस का ऐसा ताना बाना उन्होंने बुना कि हर ओर वाकई चाँदनी बिखर गई.

कहना गलत नहीं होगा कि यश चोपड़ा ख़ूबसूरती के पुजारी थे. रुपहले पर्दे पर हुस्न को कैसे चार चाँद लगाए जाते हैं, इसमें यश चोपड़ा माहिर थे. श्रीदेवी, जूही चावला, माधुरी दीक्षित की फिल्में इसकी मिसाल हैं.

कुछ ऐसे ‘लम्हे’ भी आए जिनका जिक्र तो होता है मगर शायद उनमें वो बात नहीं थी। यश चोपड़ा एक अलग मुकाम पर खड़े थे। अब ‘परंपरा’ से हटकर कुछ अलग करने की चुनौती थी। लिहाजा उन्होंने एक प्रेमी की पुरानी अवधारणा को तोड़ते हुए एक ऐसे नायक को जन्म दिया जो अपनी प्रेमिका को ‘डर’ दिखाकर पाना चाहता हो।

सिनेमा में अमूल्य योगदान के लिए उन्हें 2001 में भारत का सर्वोच्च सिनेमा सम्मान ‘दादा साहेब फ़ाल्के’ पुरस्कार दिया गया था। 2005 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। करियर में उन्हें 11 फिल्मफेयर सम्मान मिला, 2 नेशनल फिल्म अवॉर्ड।

पिछले 10-15 सालों में उन्होंने लम्हे, दिल तो पागल है और वीर ज़ारा जैसी चुनिंदा फिल्में ही निर्देशित की. लेकिन यश चोपड़ा को एक और योगदान के लिए याद रखा जाएगा. वे पर्दे के पीछे ही रहे पर उनके प्रोडक्शन हाउस यश राज फिल्मस के बैनर तले पिछले एक दशक में कई फिल्में बनीं.

कुछ खराब फिल्में बनीं, कुछ औसत तो कुछ बेहतरीन पर इसी बहाने कई अभिनेताओं, अभिनेत्रियाँ, निर्देशकों, तकनीशियनों को अपनी ज़मीन तलाशने का मौका मिला. शाहरुख़ भी यहीं से निकले हैं. अमिताभ जब दूसरी पारी में काम की तलाश में थे तो यश राज बैनर की मोहब्बतें ने उनके करियर में नई जान फूँकी.

लाहौर की धरती में पैदा हुआ मुंबई का ये फूल शायद अब मुरझा रहा था। लिहाजा इसने अपने जुनून को अलविदा कहने का फैसला कर लिया। ‘जब तक है जान’ तक का वायदा टूट गया और वक्त के सामने फिर किसी की नहीं चली।

इस दीवाली उनके निर्देशन में बनी फिल्म जब तक है जान रिलीज़ होने वाली है. अभी कुछ दिन पहले शाहरुख़ के साथ इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि ये उनकी आख़िरी फिल्म होगी….नियती ने भी जैसे उनके शब्दों को पकड़ लिया. उन्हें मौका नहीं दिया कि वे इस फैसले पर दोबारा सोच सकें.

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