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न्यायपालिका और विधायिका में मतभेद

aarthik asmanta ke khilaf ek aawaj
aarthik asmanta ke khilaf ek aawaj
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“न्याय, सरकार और समाज ” यह आलेख जो डाकटर . विजय अग्रवाल जी द्वारा लिखा गया है और दैनिक जागरण के २१ अक्टूबर के संस्करण में प्रकाशित हुवा है उसका निचोड़ भी लिखा गया है “सरकार और न्यायालय एक दूसरे का हाथ थामकर समाज का निर्देशन और नियमन करने के बजाय इस कोशिस में लगे हुए दिलखायी दे रहें हैं की ये केवल समाज का नियमन और निर्देशन ही करेंगे, जाहिर है इससे समाज का, जनता का का कोई भला नहीं होनेवाला और इसीके सन्दर्भ में राजभाषा “हिंदी ” को सर्वोच्च न्यायायलय की भाषा बनाने का मामला भी विचाराधीन है इसका विरोध करने वाले भी हैं जबकि सर्वोच्च न्यायलय द्वारा फांसी की सजा सुनाये गए मुजरिम को मालूम ही नहीं हो पाता उसकी सजा के फैसले में क्या लिखा है , मैं इसमें एक पॉइंट जोड़ना चाहूंगा , वह यह की बजाये केवल राजभाषा हिंदी के फैसले की भाषा मुजरिम की मातृभाषा में होनी चाहिए क्यूंकि सजा सुनाया गया मुजरिम केवल हिंदी भाषी प्रदेश से ही होगा ऐसा नहीं हो सकता और अग्रवाल जी के लेख में यह भी लिखा गया है की “विधि आयोग ने हाल ही में सौंपी अपनी अंतिम रिपोर्ट में कहा है की फांसी की सजा पाने वाले अधिकांश लोग निम्न वर्ग से आते हैं , ऐसे में जरुरी नहीं की निम्न वर्ग का आदमी केवल हिंदी भाषा जानने वाले प्रदेश से ही हो, अतः क्या यह ज्यादा प्रासंगिक नहीं होगा की भाषा समबन्धित कोई निर्णय लेने से पहले इस पहलू पर भी विचार किया जाए मेरी राय में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है .
आज कल बिहार में विधान सभा चुनाव हो रहें हैं २ चरण का चुनाव हो चूका है अब ३ चरण बाकी हैं . सभी पार्टियां अपने- अपने स्तर से जनता को विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहें हैं और कह रहें हैं की चुनाव में अगर उनको जीत हासिल हुयी तो बिहार से रोजगार के लिए युवाओं को प्रदेश से बाहर नहीं जाना पड़ेगा और लगभग ४० सालों से विभिन्न पार्टियां बिहार के युवाओं को ऐसा आश्वासन देते आयीं हैं . नतीजा सबके सामने है इसको देखना हो तो भारतीय रेल में सफर करने वाले यात्रियों को देखकर ही जाना जा सकता है बिहार से जाने वाली और बिहार में आने वाली ट्रेनें खचाखच भरी मिलेंगीं और ऐसा केवल त्योहारों के समय नहीं साल के बारहो महीने देखने को मिल सकता है. इसका जिम्मेवार कौन नेता है, कौन सी पार्टी है (जब सरकार में बैठी बी जे पी) और अन्य सभी पार्टियां सर्वोच्च न्यायलय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया कॉलेजियम को बदलना चाहते हैं नेता खुद को बदलने को तैयार नहीं चुनाव के दौरान सभी पार्टियां विकास का वादा करतीं हैं और विकास के मुद्दे पर ही वोट मांगती भी हैं . क्या पार्टियां अपना किया वायदा पूरा करतीं हैं नहीं ना . विकास कुछ हुवा भी है पर क्या आज तक युवाओं का पलायन रुका है या कम भी हुवा है क्या बिहार में उद्योग खुला है . हाँ ऐसा जरूर हुवा है की जो भी ब्यापारी ब्यापार करता था वह भी बिहार को छोड़कर भाग गए . बिहार में अब माफिया हावी है यहाँ तक की बिहार में शिक्षा माफिया भी मौजूद है . चुनाव में भी माफिया का ही ढेर सारा पैसा लगता है वही अपने मतलब का उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारते हैं पार्टियां भी माफिया या माफिया के उम्मीदवार को ज्यादा तरजीह देते हैं . पार्टियां और नेता अपनी जिम्मेवारी तो निभाती नहीं लेकिन अदालत के काम काज में दखल जरूर देना चाहती हैं .जरूर कुछ न्यायाधीश भी भरष्ट साबित हुए हैं . पहले नेताओं को अपने काम काज पर ध्यान देने की जरुरत है .
बिहार में सालों से माफिया हावी हैं, यहाँ तक की बिहार में शिक्षा माफिया भी मौजूद है . चुनाव में भी माफिया का ही वर्चस्व रहता हैं क्यूंकि चुनाव में ढेर सारा पैसा लगता है और उगाही का धन माफियाओं के पास होता हैं अतः चुनाव में माफिया ही अपने मतलब का उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारते हैं पार्टियां भी माफिया या माफिया के उम्मीदवार को ज्यादा तरजीह देतीं हैं तभी तो चुनाव दर चुनाव ऐसा कहा जरूर जाता है की अपराधियों को टिकट नहीं दिया जायेगा पर हर चुनाव में अपराधी चुनाव लड़ते हैं और वे चुनाव हारते नहीं यहाँ तक की निर्दलीय के रूप में भी वैसे लोग ही चुनाव जीत जाते हैं ईमानदार ब्यक्ति अगर चुनाव लड़ने की हिमाकत करता है तो उसका जमानत जब्त हो जाता है हर चुनाव के वख्त चुनाव आयोग कहता है निष्पक्ष रूप से चुनाव संपन्न किया जायेगा पर क्या ऐसा हो पाता है आचार संहिता का उल्लघन भी होता है क्या उनका चुनाव ख़ारिज होता है . कब इस देश का न्यायलय इन बातों का संज्ञान लेगा यह भी बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और सबको मालूम भी है . पर अभी तक तो जनता ही ठगी गयी है और नेता ठगते आये हैं जनता से झूठा वायदा करके चुनाव जीत जाते हैं . कभी तो चुनाव आयोग ने ऐसा नहीं कहा की किसी नेता ने पिछले चुनाव में जो वायदे किये थे उनको पूरा नहीं किया तो उस नेता को टिकट क्यों दिया जायेगा वह चुनाव लड़ने को रोका क्यों नहीं जायेगा क्या ऐसा कानून नहीं बनना चाहिए न्यायलय को अब चुनाव प्रक्रिया पर भी गंभीर होना पड़ेगा क्यूंकि चुनाव आयोग तो अभी तक इन बिंदुओं पर कोई कार्रवाई कर नहीं पाई है जबकि इससे सीधे जनता को प्रभाव पड़ रहा है
जनता ५-7 बेईमानों में से किसी एक को चुनने के लिए बाध्य है . ऐसा क्यों है कभी इन मुद्दों पर भी चर्चा होनी चाहिए यह नहीं की कोई भी ब्यक्ति २५ साल की आयु का हो गया वह चुनाव लड़ सकता है चाहे उसको राजनीती ,लोकनीति , जनहित इत्यादि के बारे में कुछ अनुभव भी ना हो जानता भी ना हो उसको अपने क्षेत्र की क्या जरूरते हैं क्या परेशानियां और क्या कुछ उसने जनहित का कार्य किया है कुछ तो मापदंड होना चाहिए एक नेता को जनता का नेतृत्व करने के लिए . आज क्या हो रहा है कोई नेता का बीटा है या नेता का सम्बन्धी है उसको चुनाव में टिकट मिल जायेगा और जो लोग वर्षों से पार्टी के लिए काम कर रहे होते हैं उनका नंबर ही नहीं लगता और समर्पित कार्यकर्ताओं के दम पर ही सभी पार्टियां टिकीं हैं . इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए अतः न्यायपालिका एवं विधायिका अपने मतभेद मिटाकर इन महत्वपूर्ण विन्दुओं पर गंभीरता से चर्चा भी कराएं और बदलाव के लिए कुछ करें तो बेहतर होगा ऐसी में जनता एवं पार्टियों की भलाई अन्तर्निहित है .

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