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भूमि समस्या .1(वैदिक काल)

पोस्टिंगनामा
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धरती पर मनुष्य ने अपने विकास क्रम की एक बडी यात्रा तय की है। कन्दराओं से निकलकर समूह में रहने की यात्रा , जीवन यापन के मूल प्रश्न से आरंभ हुयी खेती से लेकर उसके व्यवसायीकरण तक की यात्रा। इस समूची यात्रा के दौरान अनगिनत लोग बदलते गये और उनकी विचारधाराऐं भी बदलती रहीं। इसके साथ ही यात्रा की योजना (स्ट्रैडिजी) बदली। इस समूची विकास यात्रा के दौरान धरती की सतह पर उपलब्ध भूभाग का स्वरूप भी बदलता गया। …यदि नही बदला तो सिर्फ घरती का आकार नहीं बदला और उसका क्षेत्रफल नहीं बदला।
धरती पर अधिपत्य को लेकर संघर्ष भी होते रहे और अंततः धरती अपने उस स्वरूप में आ गयी जो आज विद्यमान है।
जिसमें अधिपत्य के आधार पर देशों का निर्धारण हुआ।
जीवधारियों का भरण पोषण करने के कारण ही हिन्दू धर्म शास्त्रों धरती को मां की संज्ञा दी गयी।
भारत के संदर्भ में बात करें तो प्राचीन भारत में जमीन उस पर काश्त करने वाले किसान की थी अथवा राज्य की इस बारे में मतैक्य न होकर परस्पर विरोधी प्रमाण मिलते हैं।
यह तथ्य निर्विवाद रूप से प्रगट है कि जमीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व की अवधारणा जो आज विद्यमान है वह वैदिक काल में नहीं थी। किसान मेहनत कर धरती से अन्नोत्पादन करते थे और शासक को फसल का एक निश्चित हिस्सा देते थे। ……जारी….

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