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आज मार्च का आखिरी दिन है यानी वित्तीय वर्ष की समाप्ति का दिन। सरकारी कोषागारों और बैंको में गहमागहमी का दिन…!
… मैं भी इस दिन को गहमागहमी के कारण ही याद रखना चाहता हूं…… लेकिन वह गहमा गहमी आज से ठीक सौ वर्ष पूर्व 1919 में आरंभ हुयी थी। दरअसल वह गहमा गहमी ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों पर लादे गये रोलेट एक्ट के कारण उत्पन्न हुयी थी ।
…. सौ साल पहले 1919 ई में मार्च के पहले सप्ताह में इस अंग्रेजी कानून को लागू किया गया था जो वास्तव में भारत में ब्रिटिश शासन के विरूद्व पनप रहे जनआक्रोश से निबटने के लिये लाया गया ऐसा काला कानून था जिसके अंतरगत शासन को किसी भी संदेहास्पद स्थिति वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा चलाने का अधिकार मिल गया था। अपने इस अधिकार के कारण अंग्रेजी सरकार किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दण्डित करने का अधिकार पा गयी थी।
तत्कालीन कानूनविदों ने इसे ”बिना अपील, बिना वकील, तथा बिना दलील कानून” कहकर संबोधित किया था।
इस कानून के लागू होने के साथ ही समूचे देश में इसके लिये विरोध के छिटपुट स्वर उठना आरंभ हो गये थे।
दिल्ली में इस कानून के विरोध में जनजागरण और उसका नेतृत्व करने का बीडा आर्यसमाज के स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उठाया और दिल्ली में 30 मार्च 1919 ई0 को रोलेट एक्ट के विरोध में एक बडा जनसमूह उमड पडा। आवागमन के सभी साधन बंद हो गये और आर्यसमाज के अनेक स्वयंसेवक पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। भीड़ ने साथियों की रिहाई के लिए प्रार्थना की तो पुलिस ने गोलियां चला दी। सांयकाल के समय बीस पच्चीस हजार की अपार भीड़ एक कतार में भारत माता की जय के नारे लगाती हुई घंटाघर की और स्वामी जी के नेतृत्व में चल पड़ी। अचानक कम्पनी बाग के गोरखा फौज के किसी सैनिक ने गोली चला दी जनता क्रोधित हो गई। लोगों को वहीं खडे़ रहने का आदेश देकर स्वामी जी आगे जा खडे़ हुए और धीर गम्भीर वाणी में पूछा-
‘’तुमने गोली क्यों चलाई?’’
सैनिकों ने बन्दुकों की संगीने आगे बढ़ाते हुए कहा-
‘’हट जाओ नहीं तो हम तुम्हें छेद देंगे।‘’
स्वामी जी एक कदम और आगे बढ़ गए अब संगीन की नोक स्वामी जी की छाती को छू रही थी. स्वामी जी शेर की भांति गरजते हुए बोले-
“मेरी छाती खुली है हिम्मत है तो चलाओ गोली”
अंग्रेज अधिकारी के आदेश से सैनिकों ने अपनी संगीने झुका ली और जलूस फिर चल पड़ा।
आज के दिन ऐसे निर्भीक जननायक को याद करते हुये मैं आज पुनः प्रणाम करना चाहूंगा स्वामी श्रद्धानंद की कर्मस्थली बरेली को और उनकी चैथी पीढी के श्री हर्षवर्षन आर्य जी को जो बरेली में ही रह कर स्वामी श्रद्धानंद जी के द्वारा स्थापित अनाथाश्रम की व्यवस्था देख रहे हैं।
हाॅलांकि मैं अब बरेली से दूर हाथरस में हूं परन्तु ऐसे महापुरूषों की धरती बरेली और वहाॅ के मित्रो को सादर नमन करते हुये पुनः वही उलाहना अवश्य देना चाहूंगा कि –
”..बरेलीवासियों को अपनी अतीत पर गर्व करना नहीं आता..!”
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