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अब क्या बचा है?

एक विश्वास
एक विश्वास
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जनता इतना तो समझ ही चुकी है कि हर राजनैतिक दल उसी को बेवकूफ बना रहा है और जनता मजबूर है उन्हीं में से किसी एक को चुनने के लिए। अब ये मजबूरी जनता समझ गई है इसलिए यह कहना अधिक उचित लगता है कि जन जागरण से जनमानस ने अपनी मजबूरी को अपने स्वार्थ से बदल दिया है। बात चाहे स्वार्थ की हो या मजबूरी की देश के लिए तो दोनो ही परिस्थितियाँ घातक हैं। देश तो गड्ढे में ही जा रहा है।
आज नेता जनता को जाति धर्म या फिर धन का लोभ देकर अपने पक्ष में कर लेता है और फिर चुनाव जीतने के बाद देश को लूटने में लग जाता है। जनता तो पहले ही या तो बिक चुकी होती है या कीमत वसूल चुकी होती है और कुछ जो इन दोनो श्रेणियों में नहीं आते न तो उन्हें कोई महत्व देता है और न ही वो यह सामर्थ्य रखते हैं कि कोई बात कह सकें या सार्वजनिक रूप से किसी देश विरोधी मुद्दे को उठा सकें। यह विडंबना की बात है कि हम लोकतंत्र की दुहाई देते हैं जो पूंजीवादी नेताओं और उद्योगपतियों तथा उच्च अधिकारियों के हाथों में गिरवी पड़ा है। यह हाल है आज के भारत का जो सब देख रहे हैं पर फुर्सत नहीं पा रहे हैं या डर से चुप बैठे हैं। यह जानते हुए भी कि आनेवाले दिन और दुष्कर होने हैं।
ऐसा तो नहीं है कि यह परिस्थिति रातों रात उत्पन्न हुई है। यह तो आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था क्योंकि बददिमाग नेताओं को सत्ता मिली थी या कहें कि बंदर के हाथ तलवार चली गई थी। वैसे हमें आजादी मिली ही कहाँ थी। हमें आजादी दिलवाने वाले तो कुछ हमारे ही अपने आस्तीन के साँपों के द्वारा डस लिए गए थे। इन साँपों ने अपने चहर के दाँत गड़ा कर समय से पहले ही उन वीर सपूतों को दुनिया से ही आजाद करवा दिया था। वह परम्परा समाप्त तो नहीं हुई है। होगी भी नहीं क्योंकि गद्दारों को जनता का साथ जो मिल गया है। अब तो गद्दार सीना ठोक के कहता है कि जिसका जो हक है हम दे चुके और अब हमारा हिस्सा बचा है तो हम जैसे चाहेंगे प्रयोग करेंगे कोई मुँह न खोले वरना इतिहास खुद को दोहराने लगेगा।
सरकारों की संवेदनहीनता और देश के साथ गद्दारी व लोकतंत्र के साथ छल लगातार चलता चला जा रहा है। देश की पहली सरकार के मुखिया के तौर पर पंद्रह में से तेरह कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल को समर्थन दिया परन्तु गांधी ने नेहरू से अंतरंगता का मान रखते हुए पटेल को किनारे कर दिया और नेहरू को सत्ता का सिंहासन सौंप दिया। जब गांधी नेहरू छल कप सकते थे तो पटेल का फर्ज़ क्या बनता था? लोकतंत्र की हत्या होते हुए देखते रहना या लोकतंत्र के जागरूक सिपाही के नाते देशभक्ति का परिचय देते हुए गलत फैसले का विरोध करना? परन्तु कांग्रेस तो थी ही चाटुकारों की फौज। जब गांधी की इच्छा के विरूद्ध सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था तब भी तो यही हुआ था। गांधी कांग्रेस छोड़ते इसके पहले नेताजी (मुलायम नहीं) त्यागपत्र दे दिया। तो यह तानाशाही तो कांग्रेस के शीर्ष नेताओं में आजादी के पहले से ही थी। आजादी के समय क्या हुआ जिन्ना व नेहरू ने मिलकर देश बाँट लिया ताकि धर्म के नाम पर राज्य किया जाए। परन्तु यहाँ भी नेहरू गांधी की कुटिल नीति ने वो बीज बोया कि हम आज तक काँटों में उलझे हुए हैं और दामन बचा पाने का कोई उपाय नहीं मिल रहा है। जो भी सरकारें सत्ता में आईं सभी की नीति नक्सलवाद और आतंकवाद पर लचर ही रही। सेना के जवान मर रहे हैं। उनके परिवार उजड़ रहे हैं। बच्चों के सिर से पिता का साया ही नहीं उठ रहा भविष्य का सपना भी चकनाचूर हो रहा है। नेता, आतंकवादी व नक्सली जो सैकड़ों सैनिकों व बेगुनाहों के खूनी हैं, वाहवाही लूटने के लिए करोड़ों दे देता है उन देशद्रोहियों को परन्तु जब सैनिक शहीद होता है तो रस्म आदायगी करता है। ऐसे में कौन चाहेगा कि वो गद्दार देशवासियों के लिए अपनी जान दे और परिवार को लाचारी भुखमरी और अपमान दे। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अभी बयान दिया कि चंद्रशेखर जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने खालिस्तानी आतंकियों का सरेंडर करवाया जिनको बाद में चंद्रशेखर जी ने मरवा दिया इसलिए फिर कभी इन्होंने उनसे बात नहीं की। यह बयान क्या दर्शाता है और कौन सी मानसिकता है यह आप खुद ही फैसला कर लें।
भोपाल गैस कांड के अपराधी एंडरसन से लेकर आज चिदंबरम के बेटे कार्ति तक का आर्थिक अपराध के खुलासे के बाद पलायन क्या है। सरकारें (चेहरे) ही बदलती हैं लोग (मानसिकता) वही रहती है। मोरारजी आए तो उनके बेटे पर सोने की घपलेबाजी का आरोप लगा। वीपी सिंह बोफोर्स तोप पर बवाल खडा़ कर के आए तो मंडल व कमंडल पकड़ा गए। नरसिंह राव के बेटे यूरिया घोटाला कर गए। नेहरू के प्रथम कार्यकाल से भ्रष्टाचार और घोटालों की जो झड़ी लगी आज तक रुकी नहीं है। ललित मोदी हो या माल्या या कार्ति सभी सरकार की नाक के नीचे से आराम से निकल जाते हैं और सुरक्षित ठिकाने पर पहुँच कर बताते हैं कि अब तुम हमारा कुछ नहीं उखाड़ सकते हो। बता दो जनता को कि कानूनी अड़चन है हम कुछ नहीं कर सकते हैं।
पाकिस्तान की खाट पर मनमोहन भी सोए और बाजपेयी भी पर शांत रहे आज सरकार कहती है कि सेना को सारे अधिकार दे दिए हैं परन्तु सारे अधिकार के बाद भी आतंकी सैनिक को मारता ही नहीं शव से खिलवाड़ भी करता है और तो और हमारे ही पिल्ले सेना को थप्पड़ तक मार रहे हैं और सेना ऐसे शांत है जैसे शहर का गुंडा किसी गली में घुसकर एक शरीफ को मारता है। यही छूट है जो आज की सरकार ने सेनी को दे रखी है।
पाकिस्तान व चीन रोज हमारी छाती पे मूंग दलते हैं और हम सम्मान से सिर झुका कर उनका स्वागत करते हैं। कभी अंतर्राष्ट्रीय विरादरी तो कभी डब्ल्यूटीओ तो कभी किसी संध तो कभी किसी नियम या मानवता का हवाला देकर हम खामोश खड़े सब देखते रहते हैं। सारे बंधन हमारे लिए ही हैं और सारी भलाई की जिम्मेदारी भी हमारी ही है और बाकी सब खुले सांड़ हैं कि कहीं मुँह मारे फर्क नहीं पड़ता। दरअसल हम कमजोर है और कमजोर लुगाई सारे गांव की भौजाई होती है। उसे कोई छेड़ सकता है। यह अनुभव आप ने भी इस या उस रूप में जरूर ही किया होगा।

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