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कविता

एक विश्वास
एक विश्वास
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तुम स्वछंद, और
तुम्हें आजादी चाहिए,
तो किस बात की?
हर पल आजाद हो,
हर बात से आजाद हो,
कर्म तो क्या तुम,
कुकर्म को आजाद हो।
फिर कौन सी आजादी चाहिए?
बोलने को स्वतंत्र,
खाने-पीने को स्वतंत्र;
जो चाहो पहनो
या न भी पहनो,
कौन टोकता है तुम्हें?
तुम आजाद हो,
स्वतंत्र हो हर बात को,
दिन को रात को,
फिर भी आजादी चाहिए?
अब तो मुंह पर माँ बाप के,
कालिख पोतने तक की
स्वतंत्रता है तुम्हें।
पढ़ाई के नाम पर
आवारगी, देशद्रोह और गद्दारी
वो भी भाई-बहन की
खुशियों का गला घोंट कर;
भोली माँ के दिल पर चोट कर,
यह आजादी नहीं तो क्या है?
स्वतंत्रता नहीं,
तुमने अपना ली है स्वछंदता
और भूल चुका है तुमको
अंतर आजादी और गुलामी का।
यह सफर हमने
कब कैसे तय किया,
कि सारा संस्कार ही खो दिया
हमें याद नहीं।
परन्तु सोचें
कुछ तो गलत कर आए हैं
हम ही कहीं;
कि वो औलादे जो स्वछन्द हैं
आज पूछती हैं
कि वो क्यों नहीं स्वतंत्र हैं?

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