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कुछ खुद भी सोचें

एक विश्वास
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आज नाथूराम गोडसे का जन्मदिन है। सत्याग्रह नामक अखबार ने गांधी की हत्या के मुकदमें के जिक्र के साथ एक वीडियो का उल्लेख करते हुए अदालत के माहौल का वर्णन किया है। वीडियो के हवाले से कहा गया है कि कोर्ट में गहमागहमी आज जैसी ही दिख रही है परन्तु कोर्ट में फोटोग्राफर पत्रकार आज नहीं जा सकते जबकि वीडियो में पत्रकार जज से बात करते भी दिखता है।
हत्यारोपियों के बारे में लिखा है कि वो बेखौफ नजर आ रहे हैं। किसी के चेहरे पर भय नहीं है। हत्यारोपियों के लिए अखबार ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह भाषा अपराधी के लिए आज आमतौर पर तब प्रयोग होती है जब अपराधी कमज़ोर होता है अर्थात मजबूरी का अपराधी होता है। आज जब इतिहास को तर्क की कसौटी पर कस कर उसकी बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ कर पुनर्व्याख्या की कोशिशें चल रही हैं तब ऐसे में कई पुराने सफेदपोश और महानायक आज नंगे होते जा रहे हैं और भाषा इधर से उधर व उधर की इधर स्थानांतरित हो रही है। भाषा क्यों न इससे हट कर उसपर जाए क्योंकि नए तथ्य चरित्र की ही अदला बदली कर दे रहे हैं। कांग्रेस ने गांधी को दो अक्टूबर व तीस जनवरी को उनके कार्यों का साल में दो बार बखान कर देवता बना दिया परन्तु तवज्जो तो नेहरू को और नेहरू खानदान को मिली। फिर हम किसे महान मानें किसे बड़ा कहें, भ्रम का मकड़ जाल तो है।
सवाल उठना ही है कि ऐसा क्यों? जवाब कांग्रेस कहाँ से देगी क्योंकि वो तो आजादी के बाद सौ प्रतिशत धोखे की राजनीति करती रही है जैसा कि पिछड़े, दलित और मुस्लिम उसपर आरोप लगाते हैं। आजादी से पहले उसने कितने प्रतिशत छल किया इसपर अनुसंधान होना चाहिए। आज नहीं तो कल कोई करेगा भी। यह बात समझनी ही होगी कि कल का नायक आज खलनायक और खलनायक अब नायक क्यों बन रहा है? आज समाज दो खेमों में बँटा है। जनता जब छला हुआ महसूस करती है तब वो बीती बातों और गुजरी हुई परिस्थितियों के निहितार्थ समझने का प्रयास करती है। कभी गांधी नेहरू ने आजाद, भगत और सुभाष जैसे राष्ट्रभक्त वीर क्रांतिकारियों को आतंकवादी तक कह दिया था परन्तु आज जनता में उनकी प्रासंगिकता बढ़ रही है। यह विचारणीय प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसे में अगर गोडसे भक्त भी आज पैदा हो रहे हैं तो यह प्रश्न भी विचारणीय है। गोडसे को उनकी किताब न छापने देना कुछ सवाल तो खड़ा करेगा ही। इसी केस में जब विनायक दामोदर सावरकर को बरी कर दिया गया तो फिर कांग्रेस उनको देशद्रोही क्यों कहती है? यह प्रश्न भी गलत तो नहीं। और अगर मात्र शक के आधार पर ऐसा हुआ तो आज लोग गांधी नेहरू को शक की नजर से अगर देख रहे हैं तो किसी को दर्द क्यों होता है? क्या सोच पर आधारित आरोप लगाना कांग्रेस या उस जैसे अन्य का ही एकाधिकार है?
मुसलमान का गोडसे या सावरकर से जलन रखना तो वाजिब है क्योंकि वो इनको हिंदूवादी सोच का मानते हैं और मानते हैं कि यह सोच बढ़ी तो उनकी वो स्वछंदता जो नेहरू गांधी अंबेडकर जैसे लोग उन्हें दे गए हैं वो छिन जाएगी। परन्तु अन्य लोग जो चाहे जिस मजहब या पार्टी के हों वो गोडसे को अपराधी क्यों मानते हैं? अगर किसी के पड़ोसी को कोई कत्ल कर दे और पड़ोसी से उनकी पटरी नहीं खाती तब तो कत्ली को बुरा नहीं कहते बल्कि कभी कभी तो तारीफ तक करते हैं। है न कुछ ऐसा ही चलन यहाँ का? फिर यहाँ गोडसे के केस में वो कौन सा कारण है जो उनको गोडसे बुरा लगता है यह मैं समझ नहीं पाता। क्योंकि यह अगर कुछ है तो सिवाय पूर्वाग्रह के और क्या हो सकता है? कत्ल करने वाला निश्चय ही अपराधी है और अपराधी को सम्मान और बड़ा अपराध है परन्तु हमारे व्यवहार में दोगलापन तो और भी बड़ा अपराध है।

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