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खबरों के आइने में

एक विश्वास
एक विश्वास
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आज तीन समाचारों पर जो विचार आए उन्हीं को कागज पर उतार रहा हूँ। ये टिप्पणियाँ मन में पैदा हुई आशंकाओं और राजनीतिज्ञों के प्रति बढ़ते अविश्वास व घृणा का नमूना हैं। यह तेरी मेरी से अलग हट कर सोचने की बात है। यह देशप्रेम रखने न रखने से भी अलग होकर सोचने की बात है। यह स्वार्थ, थोड़ी देर को ही सही पर, भूल कर सोचने की बात है। क्योंकि जीना सब चाहते हैं और वो भी बिना तकलीफ के। मरते सब हैं पर यह जानते हुए भी कि मौत तो निश्चित है, उससे डरते भी सब हैं। वो आतंकी या नक्सली या कत्ली जिसे दूसरों को मारने में बड़ा मजा आता है जब खुद मौत को सामने देखता है तो काँप जाता है।
तो बस यही ध्यान में रखते हुए पढ़ें तो जरूर सहमत होंगे आप मेरी बातों से। वैसे हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है जिसे बदला नहीं जा सकता है क्योंकि वो उसके वातावरण से जन्मी होती है।

१- लंदन में भारतीय उच्चायोग ने टीम बीसीसीआई का स्वागत किया जो मेरी समझ से अनुचित था। यह बात मन में शंका पैदा करती है कि कहीं हमारे सरकारी खर्चे पर मजे लूटने वाले कर्मचारी माल्या को भी तो भोज पर आमंत्रित नहीं करते या ये कहीं नक्सलियों व आतंकियों को भी तो किसी स्वार्थ के चक्कर में अनुचित लाभ नहीं देते।
माल्या व टीम बीसीसीआई दोनो निजी व्यवसाई हैं जो भारत का हित नहीं सोच सकते क्योंकि उन्हें तो बस अपने लिए पैसे कमाने हैं। जैसे चूहे और बिल्ली की दोस्ती मुश्किल है वैसे ही सरकार या सरकारी कर्मचारी की व्यवसायी या कहें लालची बनिये से दोस्ती नहीं हो सकती और बिना स्वार्थ तो किसी कीमत पर नहीं। जिनको आरटीआई में जवाब भी नहीं देना है कि पैसा आया कहाँ से और गया कहाँ इसका हिसाब न सरकार को बताना है न जनता को तो वो देशभक्त किस बात का?
तो क्या हमारी केंद्र सरकार कुछ करेगी इसपर? शायद नहीं, बल्कि कहें कि निश्चित ही नहीं, तो अधिक सही होगा। बात तो साफ है कि जिस सरकार को सद्भावना की परिभाषा तक नहीं पता वो क्या कदम उठाएगी इसपर?
सोचिये, सरबजीत को तड़पा-तड़पा कर मारने वाले व जाधव को फाँसी की गैरकानूनी सजा सुनाने वाले के साथ सद्भाव कहाँ का न्याय है? जो हमारे लोगों को मार रहा है हम उसके लोगों को मारें नहीं परन्तु रिहा भी करने की जल्दी तो न दिखाएँ। दुश्मन बीमार है या स्वस्थ हमारी बला से। हम बहुत मानवतावादी हैं तो किसी का बुरा न सोचें बस। परन्तु दुश्मन को वो भी पाकिस्तान जैसे, हमें उसको सबक ही सिखाने की आवश्यकता है न कि सद्भाव की।
मोदी सरकार के यही काम कुछ शरीफों को भी बदमाश बनाने पर तुले हैं।
डर है कि जब लोग ऐशोआराम की जिंदगी जीने से परेशान होकर नक्सली व आतंकी बन रहे हैं तो कोई हताश निराश देशप्रेमी कब तक शरीफ बना रह सकता है?
सभी सड़क छाप सुअर ब्रांड नेताओं से विनम्र अनुरोध है कि वो देशद्रोह करें पर ऐसा कुछ न करें कि आमजन भी ऐसा ही बनने व करने को मजबूर हो।
२- दरअसल दिग्विजय संदीप दीक्षित सोम साक्षी निरंजन ज्योति आजम ओवैसी लालू मुलायम या ऐसे ही अन्य बहुत से लोग देशद्रोही या गद्दार नहीं हैं।
समझने की कोशिश तो करिए ये सब बुरहान, मूसा, महबूबा, व फारूक या उमर अब्दुल्ला आदि की ही तरह हमारे देश के भटके हुए या गुमराह हो गए नौजवान हैं। आपको तो पता ही है कि ये सब समाजवाद के पोषक हैं। राहुल अखिलेश तेजस्वी जैसे महान तेजवान नेता इन्हीं समाजवादी फैक्ट्रियों या पाठशालाओं से ही तो उपजे हैं जो समाज के उत्थान में दिन रात एक किए पड़े हैं। यहाँ तक कि बेचारे अपनी अय्याशी तक के लिए समय नहीं निकाला पा रहे हैं।
अब कोई संकीर्ण सोच वाला कहे कि ये तो परिवारवादी हैं समाजवादी नहीं और ममता माया जया को बताए कि वो समाजवाद को आगे बढ़ानेवाले हैं तो यह उसकी मर्ज़ी है।
सोचने की बात है कि व्यक्ति फिर परिवार और फिर समाज यही है न समाज और देश बनने की प्रक्रिया तो बिना व्यक्ति या परिवार के समाज कहाँ बनता है। रही बात माया ममता या जया कि तो ये सब तो ……। समझ गए न, फिर कैसा परिवारवाद चलाते ये। वैसे इन सबने फिर भी परिवारवाद चलाया है। लोगों को गोद ले ले कर चलाया है। अब ये गोद में ऐसे ही थोड़े कोई आ जाएगा। सब समझते हैं आप परन्तु …..।
तो अब इनके साथ आपकी सहानुभूति जरूर छलकती पड़ रही होगी। बस इतना ही कहूँगा कि कृपया इनपर तरस खाएँ न कि इन बेचारों को ही खा जाएँ यही अच्छा होगा।
३- राजनीति अच्छी थी ही कब जो खराब हो गई है। यह तो बस बद से बदतर होती जा रही है ठीक वैसे ही जैसे कि सतयुग आया और चरम पर पहुँच गया तो रामराज्य की स्थापना हो गई फिर चरमोत्कर्ष के बाद पराभव का आरंभ होना था तो हुआ और कलयुग आ गया। तो यह कलयुग है इसलिए कहिए कि –
“जब जब होय अधर्म की हानी
बाढ़ें अपराधी व नेता अंज्ञानी”
अब कलयुग जबतक पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं होगा तबतक युग परिवर्तन संभव नहीं है। तो पानी के साथ अपमान के घूँट गले के नीचे उतारते हुए सभी सभ्य लोग गांधी नेहरू का जाप करें आराम मिलेगा।
हाँ, “आराम” करें “आराम” कहें परन्तु “आ राम” सपने में भी नहीं वरना राम की जगह रावण आ जाएगा और आपको सांप्रदायिकता व असहिष्णुता के आरोप में ….।
“नेहरू गांधी दे गए हैं इतने पेड़ बबूल
कि अब हर जगह हैं बस शूल ही शूल”

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