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क्या खुशी क्या ग़म

एक विश्वास
एक विश्वास
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अयोध्या विवाद का फैसला न तो न्यायालय प्रणाली का तोहफा है न ही न्यायधीशों की कृपा का परिणाम और न ही किसी सरकार का करिश्मा। यह हिंदू पक्ष की विजय और मुस्लिम पक्ष के पराजय के रूप में भी मैं नहीं देखता हूँ। मैं यह भी नहीं कह सकता कि हिंदुओं पर ईश्वर की कृपा हो गई और वो अपने गौरव को प्राप्त कर सकें क्योंकि तब यह भी कहना पड़ेगा कि दूसरे पक्ष का ईश्वर आज कमजोर पड़ गया और इस लिए वो पराजित हो गए। इसलिए मैंने पहले ही कहा कि यह हार या जीत का विषय ही नहीं है। और भगवान तो भगवान ही है सब का विश्वास एक नाम में है जो भाषानुसार सबके लिए अलग-अलग नाम वाला है परन्तु वह है तो एक ही। सभी यही मानते हैं सिवाय कुछ मूर्ख लोगों को छोड़कर।

 

 

अब जब ईश्वर एक है तो वही एक को हराएगा और दूसरे को जिताएगा भला यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार ईश्वर कैसे कर सकता है? बात साफ़ है कि जो कुछ हुआ है समय के साथ हुए बदलाव का परिणाम है। सभी के लिए कभी गौरव के क्षण तो कभी अपमान के, आते ही रहते हैं। यह सब हमारे क्रियाकलाप का ही परिणाम होता है। इसीलिए मैंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय बस इसी रूप में देखें कि यह बदलते समय के साथ बदलती मानसिकता का परिचायक है।

 

 

आज धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अधर्म की जयविजय का दौर लगभग समाप्त है, पहले जैसा तुष्टिकरण अब शायद कहीं नहीं है और ऐसा वातावरण नहीं है कि लोग किसी को खुलेआम भड़काएंं और लोग किसी के भड़काने पर सरेराह उत्पात मचाने लगें। एक आदर्श समाज तो कभी भी कहीं भी नहीं हो सकता है परन्तु लोग उस ओर जाते नज़र आएंं तो यह भी बहुत बड़ी बात है। एक समय था कि लोग सार्वजनिक रूप से ग़लत का पक्ष लेते थे और उसका बचाव भी करते थे जबकि आज कुछ खास ही लोग ऐसी बेशर्मी ओढ़े मिलेंगे। लोग बदल रहे हैं और इसके सुखद परिणाम भी आने हैं जो समय के साथ सभी को प्रभावित भी करेंगे। एक शांतिप्रिय भारत को पुनः जीवित करने के लिए यह आवश्यक भी है।

 

 

समय के साथ बदलाव दिखाई पड़ने लगा है और इसको बनाए रखने की जिम्मेदारी सबकी है और यह सभी का प्रथम कर्तव्य हो ताकि लक्ष्य निर्धारित करने और उसको प्राप्त करने में किसी प्रकार की कोई कठिनाई उत्पन्न न हो। निर्णय अगर किसी को देना होता तो न्याय को जीवित रखने के लिए मंदिर को नफ़रत से भरकर और हिंदुओं का संहार कर तोड़ा ही क्यों जाता? अगर किसी के सेनापति ने ऐसा कर भी दिया तो इस गलती को उसका बादशाह सुधार सकता था परन्तु यह तो हुआ नहीं। अंग्रेजों ने सत्ता संभाली तो वही न्याय दे देते परन्तु उनको भी न्याय नहीं सत्ता का मोह था।

 

 

देश आजाद हुआ और सोमनाथ का मंदिर जीर्णोद्धार के लिए चुना गया तो उसी समय यह भी उस योजना का हिस्सा बनाया जा सकता था परन्तु ऐसा तो किया नहीं गया। बीच-बीच में अलग-अलग विचारधारा की सरकारें भी आईं परन्तु किसी ने भी न्याय के लिए नहीं बस अपनी सत्ता के लिए ही सोचा और सत्य का साथ नहीं दिया। बात साफ़ है कि यह निर्णय समय ने किया है या करवाया है न कि किसी अन्य ने।

 

 

मुगलों के सत्तानशीं होने के साथ ही भारत इस्लामीकरण की ओर बढ़ा और इस्लामी वर्चस्व कायम हुआ। हिंदुओं ने समर्पण कर दिया। आक्रांताओं को विश्वास हो गया कि भय का वातावरण बना कर यहांं जैसे चाहें वैसे राज कर सकते हैं और उन्होंने यही किया भी। सबकुछ मुगलों के अनुकूल था परन्तु सत्ता और व्यभिचार की हवस में गद्दारी और मूर्खता चोरी छुपे शासन प्रशासन का अंग बन चुकी थी जैसा हिंदू राजाओं के समय में था। इस भ्रष्ट आचरण के सहयोग से अंग्रेजी शासन आया। अंग्रेजों ने अंग्रेजियत का प्रचार प्रसार किया और लोग अपने नए मालिक के रंग में रंग गए। सभी अपनी परंपरा को भूल गए या फिर अपनी परंपरानुसार चलने का कोई साहस ही नहीं जुटा पा रहा था। फलस्वरूप हम वहीं करते रहे और मरते रहे।

 

 

यह सब होता रहा और समय भी अपना रंग दिखाता रहा और अंतराल के साथ बदलता भी रहा। बाल-पाल-लाल, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी, ऊधम सिंह, भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल, खुदीराम, नेताजी सुभाष, महाराणा प्रताप, अशफ़ाक, हमीद, बालक बाजी राउत, गोविंद सिंह जी के बच्चे आदि अपने अपने समय में अपने बलिदान से हमें हमारी संस्कृति परंपरा को याद दिलाते रहे। इन्हीं के प्रयासों से हमने समय के साथ-साथ चलते बढ़ते हुए बहुत कुछ जाना समझा और सीखा। फिर हम बदलने लगे तो लोग भी हमको देख कर जगे और बदले। उसी बदलाव का परिणाम है आज का यह बदलाव और उसी के परिप्रेक्ष्य में आया है यह निर्णय।

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं। इनसे संस्‍थान का कोई लेना-देना नहीं है। 

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