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मैं आज तक यह नहीं समझ सका कि किसी को यह जानते हुए भी कि सामने बैठा व्यक्ति छलिया है उस पर विश्वास कैसे कर लेता है। यह सच है कि सभी की सोच बुद्धि बराबर नहीं होती है या सभी इतने समझदार हों कि वो अच्छा बुरा समझ सकें या व्यक्ति की पहचान कर सकें परन्तु यह तो साफ है कि हर व्यक्ति चाहे वो कितना ही मूढ़ क्यों न हो आसपास के सैकड़ों हजारों में से किसी एक को अपना मार्गदर्शक चुनता है और शायद इसके लिए भेंड़ चाल वाला तरीका अपनाता है। सवाल यही है कि क्या कोई इतना मूर्ख है कि वो अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं न कर सके या गलत हाथों में पहुँच जाए समस्या समाधान की खोज में।
अगर कोई व्यक्ति किसी को कभी सलाह नहीं देता है तो निश्चित ही वह स्वयं की समस्या का समाधान करने योग्य नहीं है परन्तु ऐसा तो कोई दिखता ही नहीं है। यही तो विशेषता है भारत की कि यहाँ हर व्यक्ति बिना डिग्री का डाक्टर और वकील दोनो का ही काम बखूबी करता है। यहाँ कोई मूर्ख नहीं है सभी बहुत चालाक है और इसी लिए डूबते हैं।
संत महात्मा पादरी मौलाना पीर फकीर कथावाचक आदि सभी इसी का फायदा उठा रहे हैं और रोज एक नया ढोंगी हमारे सामने खड़ा मिलता है। उसे पता है कि ये समाज माँ बाप भाई बहन पति पत्नी मित्र रिश्तेदार पड़ोसी को तो समझ नहीं सका तो किसी और को क्या समझेगा और नहीं समझेगा तो आसानी से लूटा जा सकेगा और यही तो हो रहा है। यह सब हम रोज ही देख सुन रहे हैं परन्तु आदत से मजबूर हैं दिखावे के लिए परेशान हैं तो क्या करें फँसना ही है, फँस भी रहे है।
मैंने पहले ही कहा कि सब बहुत समझदार हैं तो क्या गलत कहा, स्वयं देख लीजिए यही किसी न किसी के गुलाम बन चुके लोग दूसरो को शिक्षा देते हैं कि सब ढोंग है, दिखावा है, ये सब ठग हैं, हमे उपदेश देते हैं खुद मंहगी गाड़ियों में घूमते हैं और पैसे इकट्ठा करते हैं आदि आदि। अब इतने समझदार लोग भी स्वयं को उन्हीं भ्रष्टों में से ही किसी के पास गिरवी रख देते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि हम कथावाचकों तक को बहुत बड़ा संत मान बैठते हैं। कथावाचक तो एक अभिनेता की भूमिका निभाता है। संवाद रटना और उसको अदा करना यानी कथावाचक का काम है कि वो धर्म ग्रंथों से कुछ कहानियाँ याद करके उसको दर्शकों के सामने तड़क भड़क के साथ प्रस्तुत कर सभी को सम्मोहित कर ले। यही सच्चाई है। इसी वजह से हमें उपदेश देने वाले स्वयं मोह माया ग्रस्त हैं, स्वयं वो भोग विलास का जीवन जी रहे हैं, वे स्वयं अपनी समस्याएँ नहीं सुलझा पा रहे हैं, वे स्वयं प्रतिद्वंदिता प्रतिस्पर्धा द्वेष ईर्ष्या आदि में फँसे हैं मगर उपदेश देते हैं इन सबसे दूर रहने के।
यह सब को दिखता है फिर भी सभी किसी न किसी का शिष्यत्व स्वीकार कर लेते हैं। यही है मूर्खता यही है चालाकी यही है पढ़े लिखे गँवार होने की पहचान।
कब लोग यह भ्रम जाल तोड़ कर बाहर निकलेंगे और समाज को नई सोच नई दिशा देंगे। दूसरों की नहीं स्वयं की भलाई के लिए।
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