एक विश्वास
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वो
मेरे सामने से
चुपचाप निकल जाती है।
न हँसती है न मुस्कराती है
बस एक सवाल छोड़ जाती है।
इतराती है, बल खाती है,
बहुत ललचाती है,
मेरा सुख चैन,
मेरा सर्वस्व ही ले जाती है।
और मैं असहाय, अवाक,
हैरान परेशान बेजुबान
बेंचने को तैयार हो जाता हूँ ईमान।
मैं बेईमान नहीं,
किसी बात से अंजान नहीं
परन्तु, वो मुझे
बना देती है गुनहगार।
कर देती है मजबूर
करने को व्यापार
और छा जाता है
मुझ पर एक नशा सा।
मैं निकल पड़ता हूँ
करने को अपराध;
मुझ पर मेरा ही वश नहीं चलता
और फिर
मैं अपराधी बन जाता हूँ।
तेरे आगोश से निकल नहीं पाता हूँ
और तू मुझे निगल लेती है
मेरे देश की तकदीर।
बड़ी बेशर्म सी तू
ऐ मेरे देश की राजनीति।
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