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आस्तिकता के खटोले में,
उड़ने वालों।
संस्कार और आदर्शों की,
दुहाई देने वालों।
धर्म के नाम पर,
अधर्म की होड़ में रत।
अत्याचार से,
सामाजिक ढाँचे को
क्यों करते हो क्षत विक्षत?
क्यों हो अभिमानी इतने,
कि सिवाय अपने
तुम्हें सब लगते हैं गलत?
ऐ धर्म के रक्षकों!
समाज के ठेकेदारों,
कब तक लूटोगे बरगलाओगे,
धर्म के नाम पर लडा़ओगे?
पहले तय कर लो आपस में
कि किसके आराध्य बड़े हैं?
किसके नैतिकता के पथ पर खड़े हैं?
कौन हैं जो खुद पढ़े हैं?
और कौन हैं वो
जिनको तुमने खुद गढ़े हैं?
अभिव्यक्ति की आजादी की
बात करने वाले देशद्रोहियों,
कहाँ हो तुम?
धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले
राष्ट्रद्रोहियों चुप हो,
क्यों?
रोटियाँ जल जाएँगी?
जग गए लोग तो
दुकानें बंद हो जाएँगी?
हे आस्तिकता के संरक्षकों,
अब छोड़ दो कुकर्म अपने।
नास्तिक हैं जो, वो
धर्म में तुम्हारे अधर्म से आहत हैं
उनको सुख शांति चाहिए।
इसलिए वो
अगर बसाना चाहते हैं,
अपना अलग संसार
तो तुम्हें कष्ट क्यों?
तुम चलाओ अपनी दुकान,
पर जो धर्म अधर्म से विरत हों
दो उन्हें भी सम्मान।
सत्कर्म से बन सकता है मानव,
एक अच्छा व्यक्ति
और ईश्वर का प्यारा धर्मनिष्ठ,
यही तो कहते हैं गीता बाइबिल कुरान
फिर आखिर कष्ट क्या है तुम्हें?
कि कोई सत्कर्मी
आस्तिक है या नास्तिक।
कर्मकाण्डी और पाखण्डी को
जो पहचाने
वो ईमान वाला हो ना हो,
तुम बेईमानों से तो बुरा नहीं ही होगा।
वो मानवता का रक्षक भले ना हो,
पर तुम लोगों जैसा
इंसानियत का दुश्मन चालबाज मुफ्तखोर
भक्षक तो कतई ना होगा।
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