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ये एक ज्वलंत समस्या है

एक विश्वास
एक विश्वास
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अक्षय कुमार व सायना नेहवाल ने सीआरपीएफ के शहीदों की मदद की तो माओवादियों की त्योरियाँ चढ़ गईं। नक्सलियों ने इन दोनो देशभक्तों को धमकी दी है क्योंकि वो सिर्फ देशद्रोही लोगों को ही पसंद करते हैं। यह कोई साधारण बात नहीं है। यह गंभीर मसला है।
जो सरकार कश्मीर में गद्दारों की फौज के बीच से लोगों को सेना में भर्ती कर रही है बिना सोचे समझे कि कौन क्या निकलेगा वो सरकार कभी उनके बारे में नहीं सोचती जो सेना में देश के लिए जान दे देते हैं। क्योंकि उनके परिवारों को हमने भटकते हुए और गद्दारों को सरकारी पैसे पर ऐश तरते हुए देखा है। जो सरकार की मदद करे वो बे मौत मरे और जो देश की नीलामी करे वो ऐश करे अगर यह नीति चलती रही तो जल्द ही देश में वो दिन आएगा जब कोई देश का नाम लेने वाला नहीं रह जाएगा। यह बात सरकारों को सोचना पड़ेगा और वो नहीं सोचें तो जनता तो सोचे। परन्तु लग रहा है कि सभी अपने में मस्त हैं किसी को फुर्सत ही नहीं है।
ये आतंकी या नक्सली हैं कौन यह बात सोचना जरूरी है क्योंकि बिना यह विचार किए समस्या की तह तक पहुँचना ही मुश्किल होगा। एक समाचार पढ़ा कि दिल्ली में एक ई रिक्शा चालक ने कुछ लोगों को खुले में पेशाब करने से रोका तो उन लोगों ने उस चालक को पीट पीट कर मार डाला। तो सवाल है कि सरकार की नीति को आगे बढ़ाने के लिए जो आगे आया उसको मिला क्या मौत? अब सरकार यह सोचेगी क्या कि उसके परिवार का बोझ वो खुद उठाए? नहीं सोचेगी न, कहाँ फुर्सत है गद्दारों को पालने में लगी राजनीति और नौकरशाही को, तो क्या आगे आएगा अब कोई और अपने परिवार की मिट्टी खराब करने? यही अंग्रजों और मुगलों के समय हुआ निकम्मे रजवाड़े अपनी बहू बेटियों का सौदा करते रहे और अवाम को मरवाते रहे। कोई जागीरदार बनता रहा तो कोई रायबहादुर। यही आज हो रहा है। आम आदमी के टैक्स की सूई से निकाला गया खून कुछ खास लोग पी के ताकतवर बनते जा रहे हैं और गरीब इन्हीं ताकतवर सफेदपोश (नेता) और ताकतवर नेताओं की कोख से जन्मे अपराधियों (आतंकी व नक्सली) के बीच पिस रहा है।
जब कोई गरीब बार बार सताया जाता है तो कुछ दिन के बाद अगर कमजोर है तो गुलाम बन कर हर जुल्म सहने की आदत डाल लेता है परन्तु यदि वो स्वाभिमानी है व मजबूत इच्छाशक्ति का है तो वो बगावत करता है और फिर वह नक्सलवाद या आतंकवाद को अपनाता है। प्रतिकार का यही तरीका है। अब यह कोई फिल्म या उपन्यास तो है नहीं कि आगे चल कर वो बुराई का अंत करेगा और हीरो बनेगा यह तो सच्चाई है यहाँ जिंदगी के टेढेमेढे रास्ते व्यक्ति को दलदल में ही घुसाते जाते हैं और वो दुर्दांत बन कर सामने आता है। क्यों होता है ये क्योंकि सरकार यही तो चाहती है। यही सरकार को अंदर से मदद करते हैं। वरना बिना सरकार के ये न तो ऐसा बनते न ही इनको इसकी जरूरत ही पड़ती। कभी ऐसा भी होता है कि कोई फिल्मी स्टाइल में नेता मंत्री या समाज सेवक ही बन जाए। ऐसे उदाहरण समाज में हैं जो माफिया या डान से राजनीति में आए और बड़े समाज सेवी के रूप में महापुरुष बने। तो सरकार अगर चाहे और न्याय करे तो कुछ बुरा नहीं होगा। परन्तु ऐसा होगा ही क्यों क्योंकि यहा तो सरकारें टिकी ही हैं इन्हीं नींव के पत्थरों पर।
सरकार अगर मजबूत इच्छाशक्ति के साथ एक बार तय कर ले तो समाज में अच्छाई की शुरुआत तुरंत हो सकती है। सस्ती लोकप्रियता के लिए सब्सिडी या कर्ज नहीं चरित्र बाँटो परन्तु जब सरकार ही इससे वंचित है तो बाँटे कैसे। चलो कुछ नहीं तो यही करो कि अच्छे काम करनेवाले के लिए सुरक्षा की गारंटी लो मगर यह भी संभव नहीं क्योंकि पुलिस तो चोर डकैत माफिया और देशद्रोहियों की सुरक्षा से ही फुर्सत नहीं पाती फिर यह काम कैसे हो।
तो भाड़ में जाओ।
बिलकुल सही, यही तो हो रहा है। गद्दारों की मौज है और देश भाड़ में झोंका जा रहा है। झोंकने वाले भी कौन, वही गद्दार है जिन्हें हम जाने कब से यह तमन्ना पाले बैठे हैं कि मौका मिले तो झोंक दें भाड़ में।
परन्तु वह मौका आएगा कब हमे नहीं पता।

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