दिल्ली के चुनाव परिणाम किस दिशा में संकेत कर रहे हैं? मुझे याद आता है १९७७ के दौर का भारत जब सभी भारतीय राजनैतिक पार्टियाँ कांग्रेस के खिलाफ एक सुर में राग दरबारी का आलाप कर रही थीं. उस समय किसी को किसी से कोई परहेज नहीं था. कोई भी पार्टी किसी के लिए अछूत नहीं थी. सभी अपने स्वर्थ सिद्धि की खातिर एक दुसरे से कंधे से कंधा मिला कर साथ नजर आए और जब स्वार्थ सिद्धि में बाधा पहुँची तो सब बालू के ढेर की तरह बिखर गए और जनता पार्टी जो कांग्रेस के विरोध में खड़ी की गई थी ताश के महल की तरह भरभरा गई और जननायक लोकनायक जय प्रकाश जी के सपने चकनाचूर हो गए.
आज फिर कुछ कुछ वैसा ही नजर आ रहा है. बस दृश्य बदला है. आज के परिदृश्य में कांग्रेस की जगह भाजपा है और भाजपा की जगह कांग्रेस आ रही है. इसी परिदृश्य में एक बदलाव यह भी है की आज भाजपा उनके लिए साम्प्रदायिक हो गई है जिनके लिए १९७७ में यह एक प्रिय दोस्त थी. अब आज के दौर में आम आदमी पार्टी एक ने अवसरवादी दल के रूप में सामने है. कांग्रेस आज हासिए पर भी नही है और अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रही है. यही वजह है की भारतीय राजनीति का परिदृश्य एक दम बदला हुआ है. कांग्रेस को अपने अस्तित्व के लिए भाजपा की पराजय की दरकार थी. मुझे लगता है कि कांग्रेस ने भाजपा को हराने के लिए निश्चित तौर पर केजरीवाल को अपने वोट किसी भी सूरत में स्थानांतरित करवाए.
भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी असफलता यही है की यहाँ चुनाव पार्टियाँ, लोग और नेता सभी अपने अपने स्वार्थ के लिए चुनाव लड़ते हैं. यहाँ कोई देश लिए चुनाव नहीं लड़ता है. यह दुखद पहलू आजादी से लेकर आज तक हमारे पीछे पड़ा है. जब तक ये हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा तब तक हमारा लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा. शायद भारत का हर आम आदमी इस बात से सहमत होगा की भारत में आज तक सही मायने में लोकतंत्र कभी आया ही नहीं. और अभी आएगा भी नहीं जब तक हम भारतीय अपना चरित्र नहीं बदलेंगे.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments