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सारा देश अकर्मण्य हो गया है

एक विश्वास
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यह भारतीय समाज की अकर्मण्यता है या फिर भारतीय राजनीति की, कहना जरा मुश्किल लगता है परन्तु यह आज एक यक्ष प्रश्न बनकर हमें उद्वेलित तो कर ही रहा है। प्रश्न समस्या बनकर जटिल से जटिलतम होता जा रहा है और न तो प्रश्न का उत्तर मिल रहा है न ही समस्या समाधान की ओर बढ़ती नज़र आ रही है। हर तरफ अंधकार है जिसके कारण सामान्य जनमानस हताश परेशान व लाचार होकर एक मकड़जाल में उलझा हुआ है मगर नेता और अधिकारी उसी अंधकार का फायदा उठाकर ऐश कर रहे हैं। बड़ी मछली छोटी को खाने को आतुर है आखिर अस्तित्व का सवाल जो है।
हर सत्ता पक्ष और विपक्ष एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे हैं फिर किसे फुर्सत कि कोई समाज या देश की बात भी करे। यहाँ तो यह चलन ही बन गया है कि नित नई समस्याओं को जन्म दो और लोगों को उन्हीं में उलझाकर अपने लिए नोट व वोट का मार्ग प्रशस्त करो। नेहरू गांधी से लेकर आज सोनिया मोदी और इनके सारे सहयोगी यही करते रहे हैं और आज भी यही कर रहे हैं। यह क्रम समाप्त तो होगा नहीं ऐसे ही चलता रहेगा। क्योंकि कांग्रेस को हटाने के लिए जनता पार्टी बनी और सफल भी हुई परन्तु उसका हश्र क्या हुआ? बेमेल के विवाह या बेमेल की दोस्ती कभी परवान नहीं चढ़ती। यहाँ भी वही हुआ। जयप्रकाश नारायण की उपयोगिता सरकार बनते ही समाप्त हो गई और भानुमति का कुनीबार बिखर गया। फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अवसर का लाभ उठाया और कभी जिसके भक्त थे उसे ही धत्ता बताकर प्रधानमंत्री बनने का अपना सपना पूरा किया। चरण सिंह हो या चंद्र शेखर सभी ने यही किया और सभी मुंह की खाते चले गए। कांग्रेस जो खुद को अपराजेय मानती थी इन परिस्थितियों में विचलित हुई और अपने धूर्त अधिकारियों व नेताओं के बल पर कुचक्र की राजनीति करने पर आमादा हो गई। ऐसा नहीं कि पहले साफ सुथरी राजनीति होती थी परन्तु फर्क यह आया की वहीं से जो स्तरहीनता का दौर आरम्भ हुआ वह अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। और हर पार्टी व हर नेता यही करके खुद को स्थापित करने में जुटा है।
जो भी आया सभी ने जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया और सत्ता मिलते ही सारे वादे इरादे एक किनारे हो गए। लालू मुलायम मायावती ममता नितीश ये सब उसी गंदगी से पनपे हैं जो कांग्रेस ने अपने फलने फूलने के लिए तैयार की थी। संप्रदायवादी जातिवाद क्षेत्रवाद भाषावाद अराजकता भ्रष्टाचार नक्सलवाद आतंकवाद और भी न जाने कितने वाद पैदा करके रोज नए विवाद बनाए जाते रहे हैं वो भी सत्ता के लिए और देशहित ताख पर रख करके यह सब किया है हमारे देश के तथाकथित नेताओं राजनीतिज्ञों ने जो वास्तविक रूप में तो मुगल या अंग्रेज ही नजर आते हैं।
जयप्रकाश नारायण की तरह अन्ना हजारे उभर कर आए और उनकी पैदावार अरविन्द केजरीवाल एंड कंपनी मगर हुआ क्या? जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने जेपी को किनारे कर दिया वैसे ही केजरीवाल ने अन्ना के आंदोलन का नाजायज़ फायदा उठाया और राजनैतिक पार्टी बनाकर जनता को ठगने का काम शुरू कर दिया। दिल्ली में जीत दर्ज की और अन्ना व अन्ना के लोकपाल को ठेंगा दिखाते हुए हर वो काम करने शुरू किए जिसके लिए कभी कसम तक खाई कि वह सब नहीं करेंगे। इतना ही नहीं सत्ता मिलने से पहले बिना सबूत आरोप लगाना और सबको भ्रष्ट बताना फिर उसी झूठे आरोप को खुद ही सच बताकर इस्तीफा मांगना ही इनका काम था परन्तु सत्ता मिलते ही सब उलटा हो गया। अब इनपर आरोप लगके हैं तो ये प्रत्यारोप पर उतर आते हैं, इस्तीफा मांगने पर कहते हैं पहले प्रूफ करो आदि आदि। यह सब कांग्रेस ने ही सिखाया और आज ये सभी क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित हुई हैं। पूरे देश में राज करने वाली कांग्रेस आज क्षेत्रीय दलों के रहमोकरम पर चुनाव लड़ती है। भ्रष्टाचार की जननी आज खुद भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है।
देश में जब भी कोई आंदोलन हुआ तो उसे मुगलों या अंग्रेजों के अंदाज में ही दबाया गया। मतांध मग़रूर व तानाशाह नेताओं व अधिकारियों ने कभी सही गलत को आधार बना कर निर्णय नहीं लिया बल्कि अपने स्वार्थ के आधार पर सारे निर्णय लिए। यह गांधी नेहरू से लेकर आजतक होता रहा है और आगे भी ऐसा ही होता प्रतीत हो रहा है।
सत्तर साल की आजादी के बाद भी हमारी सरकारें अपने देशवासियों में देशप्रेम कर्मठता स्वाभिमान की भावना नहीं जगा सकीं तो क्यों? अनुशासित और सदाचारी नागरिक नहीं पैदा हुए तो क्यों? सेना को गाली देनेवाले लोग बढ़ रहे हैं तो क्यों? लोग भय भूख भ्रष्टाचार कुपोषण अशिक्षा बेरोजगारी से जूझ रहे हैं तो क्यों?
सभी प्रश्न अनुत्तरित थे, हैं और रहेंगे भी क्योंकि सभी सरकारों ने हराम का खाना जो सिखा दिया है जनता को। जो सरकारी योजनाओं से खा रहे हैं औप जो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं उनको अपने अधीन लूट पाट का धंधा करवा रहे हैं देश के कर्णधार नेता व अधिकारी। ऐसे में सवाल यही है कि सवाल पूछे तो कौन? और जवाब दे तो दे कौन?
कभी सरकारों ने न ही सही इतिहास पढ़ाया न ही सही भूगोल या विज्ञान की शिक्षा दी, न ही कभी खुद नैतिकता दिखाई न ही समाज को सिखाई, न जनसंख्या पर नियंत्रण किया न अपराध पर, न सही कृषि नीति बनी न ही सही उद्योग नीति, न स्वास्थ्य की बात सोची गई न अनुशासन की तो ऐसे में क्या हो सकता था या हो सकता है?
यही जो हो रहा है यही होना था तो हो भी रहा है और यही होता भी रहेगा क्योंकि नेता व अधिकारी तो अभ्यस्त अपराधी हैं जो सुधरने से रहे परन्तु यहाँ तो हम भी सुधरने को तैयार नहीं हैं। तो न हम सुधरेंगे न ये समाज सुधरेगा और जब यह सुधार होना ही नहीं है तो हम नेताओं और अधिकारियों की बात ही क्यों करें?

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