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गेंद, कुत्ता, गेट और होली

यथार्थ
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जो यह कहते हों कि हमें होली नहीं पसंद, वे कृपया यह न पढ़ें। जो यह निहायत अहमकाना सलाह देने के मूड में हों कि हर्बल रंगों से होली खेलो-वे तो फौरन अपना कम्प्यूटर ही बंद कर दें, जो यह कहते हों कि ‘हम तो भई होली के दिन थोड़ी सी लगा कर टीवी देखते हैं, वे कृपया अभी से लगा के सो जाएं और दो मार्च को उठें।’ जिन्हें गीले रंगों से एलर्जी हो, शोर न अच्छा लगता हो, जो होली को हुड़दंग मानते हों, वे न पढ़ें।

..तो पढ़े कौन?? वे जिनके लिए कीचड़ एक दिन डियोडोरेंट में बदल जाता हो, जो हर्बल रंग देखकर वैसे ही भड़कते हों जैसे अमर सिंह को देखकर आजम खां। जो अगर बूढ़े हों तो भी पानी भरा गुब्बारा हाथ में लेकर छत पर निशाना तलाशने की तमन्ना जिनके दिल में अंगड़ाई लेती हो, वे पढ़ें..और जो मानते हों कि जैसे लोक के सबसे बड़े देव गणेश हैं वैसे ही होली से बड़ा सामाजिक पर्व दूसरा नहीं, वे पढ़ें। जो सड़क पर निकलें तो जहां तहां नाचने वालों के साथ थिरके बिना आगे न बढ़ें, वे पढ़ें। जिन्हें सूखे रंग से उबकाई आती हो लेकिन हौदिया में पटक कर रंगने में मजा आता हो वे पढ़ें।

मौका है होली का, मूड है होली का तो माहौल भी बनाना है होली का। सबकी होती हैं अपनी यादें, अपनी शरारतें। कौन है जो बचा इससे..तो इन दो एक दिन में उन्हें सबसे करें शेयर ताकि सब हंसें, सब मगन हों और जोर से बोलें..जय हो होली की। मैं करता हूं शुरुआत और सुनाता हूं एक किस्सा। अच्छा लगे तो मुस्कराना और न लगे तो..

तो वही!!!

हम लोग चौदह पंद्रह साल के रहे होंगे। क्रिकेट खेलते थे। तब कार्क की बाल तीन, साढ़े तीन रुपये की आती और चंदे से लायी जाती। जो इस अनुभव से गुजरे हैं वे जानते हैं कि चंदा इकट्ठा करने में जितनी मेहनत पड़ती थी, उतनी तो अपने नेताओं को अब विश्व बैंक से भीख मांगने में नहीं पड़ती। कुछ लड़के इतने कमबख्त कि खेलने को तैयार लेकिन चंदे के नाम पर रोते। इतनी मुश्किलों से, चवन्नी-अठन्नी मिलाकर आती गेंद..और ऐसी गेंद को एक दिन कुत्ता खा गया..मेहरोत्रा जी का कुत्ता।

मेहरोत्रा जी भले आदमी थे। सबके दादा कहलाते। शौकीन मिजाज थे। घर के आगे एक सुन्दर सा लान सजाया था। मखमली दूब, फूल और एक अत्यन्त कलात्मक गेट। जी हुजूर, यह किस्सा गेट का है। आपने घरों पर लगे गेट देखे होंगे। लोहे के बेढ़ब बेडौल फाटक लेकिन दादा का गेट पूरी कालोनी में सबसे अलग था। उन्होंने गेट तांगे के पहिये से बनाया था। गोल गेट, पहिये की हर तीली अलग रंग से रंगी। बड़ा आकर्षक लगता। दादा बड़े चाव से उसकी झाड़ पोंछ करते।

एक दिन इसी गेट और लान को पार करती हुई हमारी कीमती गेंद दादा के कमरे में जा घुसी। हम सब उनके घर पहुंचे गेंद लेने। दादा खुशमिजाज आदमी थे लेकिन उस दिन पता नहीं क्या हुआ कि गरम हो गए। वाही तबाही बकने लगे तो लड़के भी चढ़ लिये। दादा को जाने क्या सूझी, उन्होंने गेंद अपने कुत्ते को दे दी। कुत्ता तो कुत्ता। उसने गेंद चबा डाली। मुझे आज करीब तीन दशक बाद यह लिखते हुए भी बड़ा दुर्लभ ‘हानिबोध’ है। कुत्ता गेंद नहीं हमारे अरमान चबा रहा था। वहां अपनी बैटिंग फंसी थी और यहां दादा और उनका कुत्ता!!! घोड़े जैसा कुत्ता। गेंद चबाता और फिर गुर्राता। हमारे एक साथी का आज भी कहना है कि जीवन में इतनी लाचारी, इतनी बेचारगी उसने फिर कभी महसूस नहीं की। हम गेंद की चिंदियां बिखरते देख रहे थे मगर बेबस। दूसरी बाल के पैसे नहीं थे। कुछ कर तो सकते नहीं थे, नतीजन आंखों में खून और दिल में बदले की आग लिये लौट आये।

आप समझ सकते हैं अगले कुछ दिन हमारी कोर मीटिंगों का एजेंडा क्या रहा होगा। पढ़ने में पहले ही मन नहीं लगता था और अब तो खेलने से भी गये। जब मिलते तो गेंद और दादा। वहशियाना खयालात आते। नपुंसक क्रोध!!

..और फिर आयी होली। तब योजना बनी कि दादा का पाला पोसा ‘उत्तम में सर्वोत्तम’ गेट होली में जला दिया जाए। योजना की रिफाइनिंग हुई और होली जलने से दो घंटे पहले हम छह सात लड़के दादा के घर जा धमके। वहां अंधेरा। सब सो रहे थे। कुत्ते का डर था लेकिन वह भी भीतर। पेंचकस, हथौड़ी वगैरह लेकर गये थे सो गेट तो खोल लिया लेकिन उसे उठाने लगे तो पैंट सरक गई। तांगे का पहिया इतना भारी होगा, हमने सोचा ही नहीं था। कभी पहिया उठाने की नौबत ही नहीं आयी थी। उसे लुढ़काना शुरू किया तो हंगामा हो गया। हम लोग आज तक न जान सके कि हमारे बीच कोई विभीषण था या जाने क्या हुआ, दादा जग गया। उसने खिड़की से झांका तो आधे बहादुर तो कुत्ते के डर से भाग निकले। बचे हम दो तीन लोग। उधर पहिया सीधा चले ना। मिशन फेल होने की नौबत कि सामने जमादार वाली गाड़ी दिख गई। बड़ी मुश्किल से पहिया उठाया, लादा और भागे।

अब इसके बाद तो क्या गजब दृश्य बना। सड़क पर भयानक शोर करता लोहे का हत्थू ठेला, उससे अधिक शोर करते लड़के (क्योंकि पोल तो खुल ही चुकी थी) और पीछे पीछे ललकारते, हमारे पुरखों का तर्पण करते, चीत्कार करते पैजामा-बनियान पहने दादा। उनसे गलती यह हुई कि जल्दी में वह कुत्ता खोलना भूल गये। उधर हम मुसीबत में कि होली तो जली नहीं है, गेट कहां ले जाएं। ठेला दौड़ाते दौड़ाते ही योजना बनी। हम लोगों ने ठेले का मुंह घुमा दिया और कभी दाएं तो कभी बाएं भागे। एक लड़का भाग कर जहां होली जलनी थी, वहां पहुंचा। फौरन आग लगाने की कार्यवाही शुरू हुई लेकिन मारे घबराहट के आग न जली तो किसी ने बगल में खड़ी प्रिया स्कूटर का ताला तोड़ कर सारा पेट्रोल और स्टेपनी कवर निकाल कर लकडि़यों पर डाल दिया। (यह एक अलग बयाना हो गया जो हफ्तों चला)। फिर हम लोगों तक एक हरकारा दौड़ाया गया। तब तक भीषण शोर से आधा मुहल्ला जग चुका था। हमारी छवि ठीक नहीं थी तो विरोधियों को मौका मिल गया पर हम भी पूरी ताकत से दौड़े और गेट को जमादार के ठेले सहित होलिका माई के हवाले कर दिया। उधर दादा भी गजब। आग में कूदने को तैयार। गेट जला नहीं था तो हम लोगों ने धर्म की व्याख्या शुरू कर दी। उन्हें समझाने लगे कि ‘जो चीज होलिका में चली जाती है वह निकाली नहीं नहीं जाती। पाप लगता है।’ दादा के सपने जले जाते थे, वह कहां प्रवचन सुनने वाले। उन्होंने घूमकर चारों तरफ कंटाप उड़ाने शुरू कर दिये। एक झन्नाटेदार मेरे पड़ा तो मैंने भी उन्हें तौल दिया। दादा माने नहीं और गेट जलती आग से खींच ही लिया। हालांकि तब तक हमारी मुराद पूरी हो चुकी थी। गेंद का बदला ले चुके थे। गेट की शक्ल इतनी बिगड़ चुकी थी कि दादा की लाख कोशिशों के बाद भी वह फिर सुधर न सका।

इसके बाद कथा और भी है कि हम सबकी घर में क्या गत बनी। आज भी हम सबको उस गेंद का अफसोस है, अपनी करतूत का नहीं।

बचपन तो बचपन ही है।

यादें..बस यादें।

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