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पागल मन

मंजिल की ओर
मंजिल की ओर
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मन मेरे पागल सा होकर

तू बैठा क्या कर रहा

औरों की प्रगति देख

हीन भाव क्यों भर रहा


अरे मन ! सोचो ज़रा

तू है कौन ?

सब जानकर भी बैठे हो

क्यों मौन ?


अरे पगले ! उठो !

निज पथ का निर्माण कर

तुम्हे है क्या करना

अपने लक्ष्य की पहिचान कर


जीवन भरी है उथल – पुथल से

कंटकों का ताज है

जो तुम्हे था कल करना

वह उचित समय आज है


समय बहुत बहुमूल्य है

बेकार की गवाओ नहीं

समझ – बुझ के चलना है

राह में भटक जाओ नहीं


कुछ अपने को भी सोचो

तेरे पर ही नाज है

मै तो कहता हूँ की

तू ही जगत का ताज है


ये मेरे प्यारे मन !

तू मेरा कहना मान ले

उचित – अनुचित क्या है

अच्छी तरह पहचान ले


तुम ऐसा कर्म करो की

जग तेरा भी गुण गाये

तेरे पदचिन्हों पर चलकर

सारे लोग सकूँन पाए

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