Menu
blogid : 2257 postid : 135

नदी का मिलन

मंजिल की ओर
मंजिल की ओर
  • 21 Posts
  • 3 Comments

सज-धज कर
पर्वत मालाओं से
वह निकलती
नयी नवेली दुल्हन सी

स्वच्छ ,सीतल,धवल तन-मन
लिये रग-रग में विश्वास नया
कल -कल की मधुर गीतों से
करती प्रीतम का प्रीत वयां

मन में रहती एक ही इच्छा
मिल जाऊं शीघ्र प्रीतम से
पथ में भरी हो लाख बाधाएँ
पर भय नहीं सितम से

धूप ग्रीष्म या वर्षा में भी
वह निरंतर चलते जाती
कहाँ है मेरा प्रेमी सागर
गीतों में वह है गाती

कभी सूनसान जंगल तो
कभी रेगिस्तान में वह भटकती
फिर भी मिलन की आस लिये
दुने उत्साह से वह बहती

चलते- चलते एक दिन वह
प्रेमी से अपने मिलती
आकर सागर के बाँहों में
बहुत अनंदित वह लगती

आशु

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh